Sunday, November 24, 2024
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शास्त्रार्थ महारथी:पंडित गणपति शर्मा

स्वामी दयानंद सरस्वती जी की शिष्य परम्परा में प्रत्येक क्षेत्र में एक से एक दिग्गज विद्वान् मिलते हैं| इन क्षेत्रों में एक क्षेत्र शास्त्रार्थों का भी विशेष रहा है| इस क्षेत्र में इस प्रकार के दिग्गज विद्वानों में पांडित गणपति शर्मा जी भी एक हुए हैं, जिनका नाम आर्य समाज के क्षेत्र में बड़े स्वाभिमान से लिया जाता है| पंडित जी का जन्म राजस्थान के चुरू नगर में १९३० विक्रमी को हुआ| आपके पिताजी का नाम वैद्य भानीराम पाराशर था| स्वामी दयानंद सरस्वती जी के समकालीन पंडित कालूराम जी शेखावाटी वालों ने राजस्थान मे वैदिक पथ का खूब विस्तार किया और वेद का खूब प्रचार किया| इस विस्तार और प्रचार में से ही उभर कर पंडित गणपति शर्मा जी निकले| इस प्रकार पंडित गणपति शर्मा जी के लिए हम कह सकते हैं कि वह अआरी समाज को पंडित कालूराम जी की ही देन थे| पंडित गणपति शर्मा जी ने खूब अध्ययन किया और इसके पश्चात् आर्य समाज के लिए खूब कार्य किया, जिससे आर्य समाज को खूब गति मिली|

अपने समय के उच्चकोटि के शास्त्रार्थ महारथी पंडित गणपति शर्मा जी में विरोधी को भी अपना बनाने का एक अत्यधिक सुन्दर गुण था| उनके इस गुण के कारण उनके विरोधी लोग भी पंडित जी से अत्यधिक सनेह रखते थे| इस प्रकार की दूसरों को मोह लेने की अत्यधिक सुन्दर कला पंडित जी के अतिरिक्त और किसी में देखने को नहीं मिलती| पंडित जी की बोलने की आवाज इतनी तेज थी कि , जिस युग में आजकल में प्रयोग हो रहे ध्वनी विस्तारक यंत्र ( लाऊड़ स्पीकर) का नाम भी उस समय के लोग नहीं जानते थे, तो भी आप पन्द्रह बीस हजार से भी अधिक उपस्थित जन समुदाय को पांच घंटे से भी अधिक समय तक बांधे रखने की क्षमता रखते थे| बहुत दूर बैठे अथवा खड़े लोगों को भी आपकी आवाज स्पष्ट सुनाई देती थी| इस कारण श्रोताओं को पंडित जी के व्याख्यानों को सुनने के प्रति एक प्रकार से अनुराग सा ही हो गया था|

पंडित जी के शास्त्रार्थ के समय किसी भी श्रोता को ऊंघने का अवसर ही नहीं मिलता था क्योंकि पंडित जी अपने शास्त्रार्थो तक में भी व्यंग्यात्मक शैली को प्रधानता देते थे| आपकी बोलने की शैली में विरोधियों के लिए अत्यधिक कटाक्ष भी सम्मिलित होते थे| कटाक्ष करते समय जो बोलने की शैली होती थी, उसमे इतनी उत्तम कला भर देते थे कि आपके विरोधी और यहाँ तक कि विधर्मी भी आपके उत्तम व्यवहार, सज्जनता तथा सच्चे अर्थों में आर्यत्व के लक्षणों को देखकर आपसे सदा ही प्रभावित होते थे| कभी कोई इस प्रकार का अवसर देखने में नहीं आया जब आपके विरोधियों पर कभी किसी प्रकार का प्रभाव दिखाई न दिया हो, उन्होंने कभी आपके विरोध में कोई उलाहना दिया हो या आपके विरोध में कभी एक शब्द तक भी बोला हो, जैसा कि शास्त्रार्थ करने वालों ले साथ साधारणतया हुआ करता है कि विरोधी लोग शास्त्रार्थ कर्ता के पीछे पड जाया करते थे तथा उनके खून तक के प्यासे होकर उन्हें मारने तक का प्रयास किया करते थे किन्तु जहाँ तक पंडित गणपति जी का प्रश्न है, उनके लिए यह उक्ति कहीं अथवा किसी भी स्तर पर यथार्थ नहीं बैठती| आपके बोलने तथा शास्त्रार्थ में प्रयोग चुने हुए कलात्मक शब्दों के कारण विरोधियों ने कभी आप से वैर विरोध नहीं किया अपितु सदा ही आपसे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने के ही अभिलाषी रहे|

जब आप गुरुकुल ज्वालापुर के उत्सव पर गए तो इस अवसर पर रुड़की के एक पादरी के साथ शास्त्रार्थ हो गया| काश्मीर में एक पादरी थे, जिनका नाम जानसन था| वह संस्कृत के एक असाधारण विद्वान् और वक्ता थे| इनके साथ आपका शास्त्रार्थ हुआ| इनके अतिरिक्त काशी के पौराणिक पंडित शिवकुमार जी से दो बार आपका शास्त्रार्थ हुआ| रोहतक जिला के गाँव खांडा में जाटों ने जब शास्त्रार्थ के लिए काशी के पंडित शिवकुमार जी को बुलाया और जब वह पंडित आपके सम्मुख आये तो आपके दर्शन मात्र से ही मुकाबले के लिए उन पंडित शिवकुमार जी की हिम्मत ही नहीं हुई| पंडित शिवकुमार जी ने उस समय रोहतक वालों से इस शास्त्रार्थ में भाग लेने के लिए ६०० रुपये(जो आज के हिसाब से छ: लाख से भी अधिक बनेंगे) अग्रिम ले रखे थे| उन्होंने जाटों को वह ६०० रुपये लोटा दिए और तत्काल वहां से रफू चक्कर हो गए तथा यह शास्त्रार्थ हुए बिना ही पंडित जी विजयी हो गए| इस प्रकार का दृश्य राजस्थान के कोटा के रामपुर बाजार में भी हुआ| शास्त्रार्थ की सब तैयारियां पूर्ण हो चुकी थीं किन्तु अंतिम समय पर किसी पौराणिक के सामने आने की हिम्मत न हुई और यहाँ भी हमारे पंडित जी बिना शास्त्रार्थ किये ही विजयी हो गए| इन सब के अतिरिक्त आपने राजस्थान के झालावाड में दो बार शास्रार्थ किये जहाँ विजयी हुए| इनके अतिरिक्त भी आपने अनेक बार तथा अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थों की चुनौती का सामना करते हुए शास्त्रार्थ किये और सदा विजयी रहे|

पंडित गणपति शर्मा जी को वैदिक मान्यताओं के प्रति अगाध श्रद्धा थी| वैदक सिद्धान्तों के प्रति उन्होंने कभी कोई सौदा नहीं किया और न ही कभी इन पर आंच आने दी| यदि कोई व्यक्ति वैदिक सिद्धांतो में कही गई बात को नहीं मानता था तो आप उससे उलझने में भी कभी शर्म नहीं करते थे| इस प्रकार की ही एक घटना स्वामी दर्शना नन्द सरस्वती जी से शास्त्रार्थ करने की भी मिलती है| जब स्वामी जी ने वैदिक मान्यताओं को न स्वीकारते हुए इनके विरोध में यह कहना आरम्भ किया कि पेड़ पौधों में जीव नहीं होता तो आपने उनको भी ललकारा तथा एक लंबा शास्त्रार्थ स्वामी दर्शना नन्द सरस्वती जी के साथ भी हो गया|

इस प्रकार पंडित गणपति शर्मा जी वैदिक मान्यताओं को सच्चे अर्थों में अपनाए हुए थे तथा इन मान्यताओं को अपने जीवन का एक अभिन्न अंग बना लिया था| इतना ही नहीं आप में इतनी शक्ति थी कि अन्यों से भी बड़ी मजबूती के साथ वैदिक मान्यताओं को मनवा लेते थे| आपके पुरुषार्थ, मेहनत और लगन के परिणाम स्वरूप वैदिक धर्म को अत्यधिक बल मिला| इस प्रकार के पंडित गणपति शर्मा जी का २७ जून १९१५ ईस्वी को देहांत हो गया|

डॉ. अशोक आर्य
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