महात्मा मुन्शीराम, जिन्हें हम स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती के नाम से भी जानते हैं , का विवाह शिवराज देवी से हुआ। शिवराज देवी एक अत्यन्त ही धर्म परायणा व पतिभक्त महिला थी। वह प्रत्येक कदम पर पति को सुखी रखना चाहती थी तथा पति के सुख में ही अपना सुख समझती थी। यह उसका एक नियम था कि पति ने जब तक भोजन नहीं किया, तब तक वह भोजन न करती थी। यदि कोई अवसर ऐसा आया, जब किसी कारण मुन्शीराम जी भोजन न कर पाते तो वह भोजन ही न करती थी। एसी ही एक घटना एक बार घटी, जिसने मुन्शीराम का जीवन ही बदल दिया ।
पत्नी की ही भान्ति महात्मा मुन्शी राम जी(स्वामी श्रद्धानन्द जी) भी पत्नी से अति स्नेह रखते थे किन्तु रात्रि के भोजन में उन्हें देर हो ही जाती थी। कारण कोतवाल की बिगडैल सन्तान होना ही था। ऐसी सन्तान जिस का अपना तो कोई अस्तित्व था नहीं , कोतवाल की जी हजूरी करने वाले, जिसे घेरे रहते तथा जिसे गल्त मार्ग पर(जिस मार्ग को उस काल में उत्तम समझा जाता था) ले जाने का यत्न करते रहते। ऐसी ही एक घटना का स्वामी जी अपनी आत्म -कथा “ कल्याण मार्ग का पथिक ” में उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि इस घटना ने उनके जीवन में भारी परिवर्तन कर दिय़ा । घटना इस प्रकार है : –
स्वामी जी कल्याण मार्ग का पथिक में लिखते हैं कि —–“ बरेली आने पर मेरी धर्म -पत्नि का यह नियम हुआ कि दिन का भोजन तो मेरे पीछे करती थी, परन्तु रात जब कभी मुझे देर हो जाती ओर पिताजी भोजन कर चुकते तो मेरा ओर अपना भॊजन ऊपर(घर के उपर के कमरे में)मंगा लेती ओर जब मैं लौटता उसी समय अंगीठी पर गर्म करके मुझे भोजन करा पीछे स्वयं खाती।
एक रात मैं रात के आठ बजे मकान लौट रहा था। गाडी दर्जी चौक दरवाजे पर छोडी। दरवाजे पर ही बरेली के बुजुर्ग रईस मुन्शी जीवन सहाय का मकान था। उनके बडे पुत्र मुन्शी त्रिवेणी सहाय ने मुझे रोक लिया। गजक सामने रखी ओर जाम भर दिया। मैंने इन्कार किया। बोले-” तुम्हारे लिए ही तो दो-आतशा खिंचवाई हैं। यह जौहर है।” त्रिवेणी सहाय जी से छोटे सब मेरे मित्र थे, उनको मैं बडे भाई के तुल्य समझता था। न तो आतशा का मतलब समझा न जौहर का, एक गिलास पी गया। फ़िर गप्प बाजी शुरु हो गई ओर उनके मना करते-करते मैं चार गिलास चढ़ा गया।
असल में वह बड़ी नशीली शराब थी, उठते ही असर मालूम हुआ। दो मित्र साथ हुए। एक ने कहा चलो, मुजरा करायें। उस समय तक न तो कभी वेश्या के मकान पर गया था ओर न कभी किसी वेश्या को अपने यहां बुलाकर बातचीत की थी, केवल महफ़िलों में नाच देखकर चला आता था। शराब ने इतना जोर किया कि पांव जमीन पर नहीं पडता था। एक खूंड मेरे हाथ में था। एक वेश्या के घर जा घुसे। कोतवाल साहब के पुत्र को देखकर सब सलाम करके खडी हो गईं। घर की बडी नायिका को हुकम दिया कि मुजरा सजाया जाये। उसकी नौची के पास कोयी रुपए देने वाला बैठा था। उसके आने में देर हुई। न जाने मेरे मुंह से क्या निकला, सारा घर कांपने लगा। नौची घबराई हुई आई ओर सलाम किया तब मुझे किसी अन्य विचार ने आ घेरा। उसने क्षमा मांगने के लिए हाथ बढाया ओर मैं नापाक नापाक कहते हुये नीचे उतर आया। यह सब साथियों ने बतलाया।
नीचे उतरते ही घर की ओर लौटा, बैठक में तकिए पर जा गिरा ओर बूट आगे कर दिये जो नोकर ने उतारे। उठकर ऊपर जाना चाहा परन्तु खडा नहीं हो सकता था। पुराने भ्रत्य बूटे पहाडी पाचक ने सहारा देकर ऊपर चढाया। छत पर पहुंचते ही पुराने अभ्यास के अनुसार किवाड बन्द कर लिये ओर बरामदे के पास पहुंचा ही था कि उल्टी आने लगी। उसी समय एक नाजुक छोटी उंगलियों वाला हाथ सिर पर पहुंच गया ओर मैंने उल्टी खुल के की।
मैं अब शिवदेवी के हाथों में बालकवत् था, कुल्ला करा, मेरा मुंह पोंछ ऊपर का अंगरखा जो खराब हो गया था, बैठे-बैठे ही फ़ैंक दिया ओर मुझे आश्रय देकर अन्दर ले गई। वहां पलंग पर लेटा कर मुझ पर चादर डाल दी ओर साथ बैठकर माथा ओर सिर दबाने लगी। मुझे उस समय का करुणा ओर शुद्ध प्रेम से भरा मुख कभी नहीं भूलेगा। मैंने अनुभव किया मानो मातृ-शक्ति की छत्रछाया के नीचे निश्चिन्त लेट गया हूँ। पथराई हुई आंखें बन्द हो गईं ओर मैं गहरी नींद सो गया। रात के शायद एक बजा था जब मेरी आंख खुली। वह चौदह वर्ष की बालिका पैर दबा रही थी । मैंने पानी मांगा। आश्रय देकर उठाने लगी, परन्तु मैं स्वयं ही उठ खडा हुआ। गरम दूध अंगीठी पर से उतार ओर मिश्री डालकर मेरे मुंह को लगा दिया। दूध पीने पर होश आया।
उस समय अंग्रेजी उपन्यास मगज में से निकल गये ओर गुसाईं जी (गो स्वामी तुलसीदास जी ) के खींचे दृश्य सामने आ खडे हुये। मैंने उठकर ओर पास बैठाकर कहा-” देवी! तुम बराबर जागती रही ओर भोजन तक नहीं किया। अब भोजन करो”। उतर ने मुझे व्याकुल कर दिया परन्तु उस व्याकुलता मे भी आशा की झलक थी। शिवदेवी ने कहा-” आपके भोजन किये बिना मैं कैसे खाती, अब भोजन करने में क्या रुचि है?”
उस समय की दशा का वर्णन लेखिनी द्वारा नहीं हो सकता। मैंने अपनी गिरावट की दोनों कहानियां सुना कर देवी से क्षमा करने की प्रार्थना की परन्तु वहां उनकी माता का उपदेश काम कर रहा था -” आप मेरे स्वामी हो , यह सब कुछ सुनाकर मुझ पर क्यों पाप चढाते हो? मुझे तो यह शिक्षा मिली है कि मैं आपकी नित्य सेवा करूं।” उस रात बिना भोजन किये दोनों सो गये ओर दूसरे दिन से मेरे लिए जीवन ही बदल गया |”
स्वामी श्रद्धा नन्द सरस्वती जी ने अपने जीवन के कटु सत्यों को अपनी आत्मकथा में अंंकित किया है। इस आत्म कथा”कल्याण मार्ग का पथिक” में अपने जीवन की कमियों को भी छुपाने का यत्न नहीं किया, सब सत्यों को खोल कर सामने रख दिया है। इस कारण उनकी आत्मकथा तत्वों के आधार पर एक उत्तम आत्मकथा की श्रेणॊ में आती है। इस आत्मकथा के ही कुछ पन्ने उनकी पत्नि से सम्बन्धित यहाँ दिये गये हैं। यह पन्ने स्वयं साक्षी दे रहे हैं कि स्वामी जी ने कभी भी अपनी कमियों को छुपाने का यत्न नहीं किया बल्कि इन कमियों को लोगों के सामने रखते हुए प्रसन्नता अनुभव करते हैं। इससे स्वामी जी के आरम्भिक जीवन पर खूब प्रकाश पडता है तथा जन-जन को पता चलता है कि आत्मबल सुदृढ होने पर मानव अपने जीवन की बडी-बडी कमियों पर भी विजयी हो सकता है।
डॉ. अशोक आर्य
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