Sunday, November 24, 2024
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Homeकवितातो कितने रोज़ तक हम चुप रहेंगे

तो कितने रोज़ तक हम चुप रहेंगे

हमें तो शायरी से है मुहब्बत।
सियासत का भला हम क्या करेंगे।
मगर जब कोई मनमानी करेगा।
तो कितने रोज़ तक हम चुप रहेंगे॥

सियासत शायरी में यों घुसी कि।
पुरस्कारों के गोले दग रहे थे॥
अचानक ही उन्हों को लग रहा था।
कि बस उन पर ही शोले दग रहे थे॥

अरे माँ भारती के लाड़लो तुम।
ज़रा कहिये तो आख़िर क्या हुआ था॥
ज़मीं अपनी जगह से हट गयी थी।
कि अम्बर टूट कर गिरने लगा था॥

अमाँ अँगरेज अफसर की तरह से।
ज़ुबाँ क्या काट डाली थी तुम्हारी।
कि नादिरशाह के जैसे किसी ने ।
बहन-बेटी उठा ली थी तुम्हारी॥

तुम्हारी पुस्तकों के सब ज़ख़ीरे।
किसी ने आग में धधका दिये क्या।
तुम्हारे गूढतम शोधों के मन्तर।
समन्दर बीच में फिकवा दिये क्या॥

अरे तुम तो वही हो न बिरादर।
जो अब तक कुर्सियों पर सो रहे थे।
तुम्हारे जैसों के रह्मोकरम पर।
सरस साहित्य के वांधे पड़े थे॥

अरे तुम तो वही हो न बिरादर।
जिन्हें कश्मीर दिखता ही नहीं है।
वहाँ के पण्डितों का दर्द ओ ग़म।
तुम्हें ग़मगीन करता ही नहीं है॥

अरे नेताओं के सम्बन्धियो तुम।
भला उस वक़्त किस गढ में छुपे थे।
कि जब दिल्ली की सड़कों पर टपाटप।
सिखों के जिस्म कट कर गिर रहे थे॥

अरे अखलाक की पीड़ा से पीड़ित।
हमें भी शर्म है उस वाक़ये पर।
मगर तुम जैसे कितनों ने कहो तो।
सुमन रक्खे पुजारी की चिता पर॥

हमें भी बाबरी का ग़म बहुत है।
मगर मन्दिर बताओ किस ने तोड़ा।
बशर जो स्वर्ग जाना चाहते थे।
उन्हें जन्नत की जानिब किस ने मोड़ा॥

बहुत सी और भी बातें हैं जिन को।
गिना कर हम भी रो सकते हैं रोना।
मगर पीतल के बदले हम बिरादर।
थमा दें क्यों किसी को अपना सोना॥

ज़रा कहिये तो अपने घर के झगड़े।
कभी बाज़ार में लाता है कोई।
कि अपने बाल-बच्चों की शिकायत।
पराये कान में कहता है कोई॥

ज़रा कहिये तो उस को क्या कहेंगे।
जो घर का भेद दुश्मन को बता दे।
हुकूमत की मलाई चाटने को।
जो अपने देश के टुकड़े करा दे॥

महज़ इक राज्य की सत्ता की ख़ातिर।
घिनौना खेल क्यों खेला बिरादर।
सुनहरे वक़्त को आख़िर भला क्यों।
अँधेरों की तरफ़ ठेला बिरादर॥

तो ये भी याद रख लीजे बिरादर।
तुम्हारा भेद सारा खुल चुका है।
लगाया दाग़ जो तुम ने बिरादर।
इलेक्शन बाद ख़ुद ही धुल चुका है॥

चलो अब माफ़ कर देते हैं तुम को।
यही करना मुनासिब लग रहा अब।
परिस्थितियाँ करा देती हैं सब कुछ।
बहक जाते हैं अच्छे-अच्छे साहब॥

मगर ये इल्तिज़ा भी कर रहे हैं।
अमन के दूत हो तो दीखिये भी ।
पुराने हिन्द का नक्शा उठा कर।
सबक गुजरे समय से लीजिये भी॥

जो कुछ होता रहा या हो रहा है।
किसी भी हाल में अच्छा नहीं है।
अमन और शान्ति के लमहों का ज़िम्मा।
फ़क़त कुछ लोगों का होता नहीं है॥

अगर तुम जौहरी कहते हो ख़ुद को।
तो मत लोहार जैसे घन चलाओ।
जो मानव मात्र को मानव बनाये।
‘नवीन’अब बस वही लिक्खो सुनाओ॥

नवीन सी. चतुर्वेदी

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