कल मैंने अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘सोनाटा’ का प्रीव्यू देखा, यह फिल्म 21 अप्रैल को सिनेमा हाल में रिलीज़ होने जा रही है।
अपर्णा एक ज़माने में जानी मानी अभिनेत्री रह चुकी हैं , यही नहीं 36 चौरंगी लेन और मि. एंड मिसेज अय्यर जैसी लीक से हटी फ़िल्में बना चुकी हैं , इसलिए हाल में इस उम्मीद से प्रवेश किया कि कुछ अलग और विचारोत्तेजक किस्म की फिल्म देखने को मिलेगी। हाँ, फिल्म तो कई मायने में अलग सी है।
यह पूरी फिल्म का घटना क्रम बम्बई के पॉश इलाके में बहुमंजिली के एक फ्लैट के ड्राइंग रूम में सिमटा हुआ है। ११५ मिनट की फिल्म में कैमरा 10X 10 मीटर के स्पेस में पैन करता रहता है।
फिल्म में तीन मुख्य किरदार – अरुणिमा चतुर्वेदी, प्रोफेसर, दोलन सेन, वरिष्ठ बैंकर और सुभद्रा पारेख, पत्रकार हैं। तीनों ही मध्यवय जीवन के संक्रमण से गुजर रही हैं। फिल्म का समूचा परिवेश उन्मुक्त, मस्ती, आज़ाद ख्याल, दार्शनिक और शायराना किस्म का है। इस सबसे भी एक कदम आगे यह स्त्रीत्व की प्याज जैसी अंदरूनी बारीक बारीक परतों को छीलता चलता है।
शबाना आज़मी ने प्रोफेशनल बैंकर दोलन सेन का किरदार निभाया है , दोलन को जीवन में ऐश्वर्या और विलास की परफ्यूम, वाइन, सिगरेट जैसी चीजें पसंद हैं, बिंदास दोलन वर्जना मुक्त रहना चाहती है. इसके ठीक विपरीत संस्कृत प्रोफेस्रर अरुणिमा, जिस किरदार को अपर्णा सेन ने निभाया है, अपने आप को अध्यापन, लेखन और शोध में डुबोया हुआ है वह सयमित और मर्यादित जीवन जीने में यकीन रखती है. वह अपनी दोनों सहेलियों को उनके उश्रृंखल हमेश कस्ती रहती है. मगर जब वाइन उसके कंठ से नीचे उतरती है तो धीरे धीरे उसकी जबरन ओढ़ी नकाब थोड़ी थोड़ी सरकने लगती है. तीसरा चरित्र सुभद्रा पत्रकार का है जिसे लिलेट दुबे ने निभाया है, सुभद्रा अपनी कवरेज और रिपोर्टों में किसी किस्म समझौता नहीं करती और इसकी कीमत अपनी नौकरी खो कर चुकाती है। पुरुष रिश्तों को बेबाकी से जीती है, यहाँ तक कि उसे परफ्यूम से ज्यादा पुरुष गंध पसंद है, वह अपने प्रेमी की मार भी खा कर ज्यादा विद्रोह नहीं करती क्योंकि वह उसको शारीरिक रूप से पूरी तरह संतुष्ट करता है.वाइन और सिगरेट पीना, श्लील और अश्लील की विभाजक रेखा की उसे कोई कोई परवाह नहीं है.
फिल्म का पूरा घटनाक्रम एक शाम की कहानी है, फिल्म के तीनों किरदार सिगरेट के धुएं और वाइन की चुस्की के अपने जीवन, आदर्शों और संबंधों को परत दर परत अनावृत करते चलते हैं. इन तीनों किरदारों का यह भी सोच है कि उनके जीवन में कोई प्रतिबद्धता, लक्ष्य ,आदर्श नहीं है. फिल्म में स्त्रीत्व का अर्थ पुराने पितृमूलक समाज से मुक्ति से कहीं आगे पहुँच गया है। लेकिन इसमें संपन्न और स्वतंत्र नारी की अपूर्णता को लेकर भी काफी तंज कैसा गया है. घर में काम करने वाली बाई की बेटी गर्भवती है जब उसे छुट्टी के लिए मना किया जाता है तो वह बिफर पड़ती है और कहती है, ‘तुम बच्चे के प्रति मान के प्यार को कैसे समझ सकते हो?’
इस सबके बीच इन तीनों केंद्रीय किरदारों का एक ट्रांसजेंडर मित्र भी है जो सेक्स बदलाव की शल्य चिकत्सा करा कर नारी बन जाता है, उसका प्रसंग स्त्रीत्व के एक अलग ही पक्ष को रेखांकित करता है.
फिल्म में अपर्णा सेन के पति कल्याण रे भी अरुणिमा चतुर्वेदी के प्रेमी की संछिप्त भूमिका में नज़र आये हैं।
फिल्म नाटककार महेश एल्कान्च्वार के नाटक पर आधारित है, समस्या यह है कि इस के स्क्रीन प्ले को नाटक के ही अंदाज में रख लिया गया है इस कारण कहीं कहीं बोझिल सी लगने लगती है। यदि अभिनय की बात करें तो तीनों मुख्य किरदार बखूबी निभाए गए हैं लेकिन अपर्णा शबाना और लिलेट पर भारी पड़ती है.
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