स्पिक मैके की शुरुआत 1977 में आईआईटी, दिल्ली में छात्रों को कम उम्र में ही भारत की कला व् संस्कृति से परिचित कराए जाने के उद्देश्य से की गई थी। इस उम्र के छात्रों का उनका मन और दिमाग अधिक ग्रहणशील होता है। स्किक मैके का मकसद था छात्रों को देश के सर्वश्रेष्ठ कलाकारों के सीधे संपर्क में लाना और उन्हें भारतीय विरासत के विभिन्न पहलुओं के बारे में अवगत कराते हुए प्रेरणा देना और फिर इंतज़ार होता की कब कलाकारों और कला के जादू से इन छात्रों के मन में कला के प्रति अनुराग और दिलचस्पी उजागर हो।
स्पिक मैके ने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत और कथक के कार्यक्रमों से अपनी शुरूआत की थी, पर जल्द ही इसमें कर्नाटक शास्त्रीय संगीत, सभी आठ प्रकार के शास्त्रीय नृत्य, लोक संगीत और नृत्य की विभिन्न शैलियाँ, योग और ध्यान, देश के विभिन्न राज्यों के शिल्प और बुनाई की शैलियाँ, समग्र खाद्य परंपराए, क्लासिक सिनेमा, चित्रकला,सामाजिक कार्य, दर्शन, धर्मशास्त्र, आदि विभिन्न विषयों पर प्रसिद्ध विशेषज्ञों द्वारा वार्ता इत्यादि गतिविधियाँ भी शामिल कर ली गयीं।
इन समस्त गतिविधियों के द्वारा हमारा प्रयास यही रहा है की युवाओं को एक अमूर्त या अस्पृश्य ज्ञानक्षेत्र की ओर ले जा सके. उन्हें उनके अंतरतम में बसे सत्व, रौंगटे खड़े कर देने वाले या आँखों से बरबस नीर बह निकलने वाले अनुभव अथवा ‘मैं नहीं जानता कि वह क्या था, पर जो भी था अद्भुत था’ जैसी भावना के साथ फिर से जोड़ना ही हमारा असली ध्येय है।
जब स्पिक मैके शुरू हुआ तब डॉ सेठ को कई प्रतिष्ठित कलाकारों से उनके कार्यक्रम के लिए नाम मात्र मानदेय की पेशकश पर समर्थन के लिए अनुरोध करना पड़ता था। आज, कलाकार स्वयं स्पिक मैके के कार्यक्रमों की तलाश में रहते हैं। 1980 में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम (1860) के तहत पंजीकृत करने के पश्चात्, 1981 में इस आन्दोलन ने अपने पंख पसारने शुरू किये और जल्द ही अहमदाबाद, मुंबई, कलकत्ता, खड़गपुर, हैदराबाद (1984),बैंगलोर (1985) तक पहुंच गया। जैसे जैसे आन्दोलन के स्वयंसेवक और छात्र विदेशों में पढने या बसने के लिए जाते रहे, वे अक्सर उस देश में स्पिक मैके अध्याय शुरू करने की इच्छा व्यक्त करते और इस प्रकार आज यह आन्दोलन अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, हांगकांग, सिंगापुर, संयुक्त अरब अमीरात, फिलीपींस, बांग्लादेश, श्रीलंका, फ्रांस और नॉर्वे तक फैल चुका है।
पिछले 40 वर्षों में, स्पिक मैके में परिवर्तन निरंतरता से चला आ रहा है क्योंकि हम नियमित रूप से नए कलाकार और कलाए, नए संस्थान, नए कस्बे, देश व् स्वयंसेवको को जोड़ते रहे हैं। फिबोनैची स्पाइरल की तरह, स्पिक मैके भी कभी न समाप्त होने वाली एक घुमावदार कुंडली है जहाँ खुलापन है, समग्रता है, विस्तार है, सह-अस्तित्व की भावना व्याप्त है, एकत्रीकरण व् वृद्धिशील बढ़त है।
आज एक वर्ष में 5000 से अधिक कार्यक्रमों का आयोजन भारत और विदेशों में, 817 स्थानों पर और 2000 से अधिक शैक्षिक संस्थान में किया जाता है, जिससे हम लगभग 30 लाख छात्रों को प्रभावित कर पाते हैं।
स्पिक मैके के भिन्न भिन्न कार्यक्रम :
1986 में, हैदराबाद के प्रशासनिक स्टाफ कॉलेज ऑफ इंडिया में स्पिक मैके का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें 100 से ज्यादा लोग आए। आज, हर वर्ष राष्ट्रीय सम्मेलनों में करीब 2000 लोग भाग लेते हैं, जिएमे विदेश से छात्र और स्वयंसेवक भी भाग लेते हैं. गत 5 वर्षो से राष्ट्रीय सम्मलेन अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में बदल चुका है और इस वर्ष आई आई टी दिल्ली में इसका आयोजन हुआ जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने किया!
गुरुकुल स्कीम को 1986 में शुरू किया गया। आज, देश भर से लगभग 100 छात्रों को लम्बे साक्षात्कार के बाद चुना जाता है और उन्हें अलग अलग गुरुओं के साथ एक माह तक रहने के लिए भेजा जाता है। देश और दुनिया के कुछ जाने माने गुरु इस योजना का हिस्सा है जैसे : दलाई लामा, मदर टेरेसा की मिशनरी ऑफ चैरिटी, अरुणा रॉय,अंजॉली इला मेनन, हरिप्रसाद चौरसिया, बिरजू महाराज, कोलकाता का संगीत अनुसंधान अकादमी, मुंगेर का बिहार स्कूल ऑफ योगा आदि। इन गुरुओं से सानिध्य में रह कर यह बच्चे हमारे चिरंतन मूल्यों को ग्रहण कर पते हैं।
इसी प्रकार लोक कलाओं को भी सन 1986 में स्पिक मैके की गतिविधियों में शामिल किया गया। आज यह हमारी प्रोग्रामिंग का एक नियमित और अहम हिस्सा है।
पहला संगीत-इन-द-पार्क भी 2002 में दिल्ली के नेहरू पार्क में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के साथ आयोजित किया गया था और अब एक वार्षिक कार्यक्रम बन गया है जो तीन शहरो में आयोजित हो रहा है। इसके अंतर्गत देश के वरिष्ठ से वरिष्ठ कलाकार एक पार्क में जन जन के लिए कार्यक्रम करते हैं। सभी कार्यक्रमों की तरह यह भी निशुल्क होता है।
वर्ष 2004 में स्पिक मैके ने कार्यशालाएं शुरू कीं और 2012 में राजस्थान के कोटा अध्याय में वर्कशॉप-डेमोस्ट्रेशन(डब्लूडीएस) का आरम्भ हुआ। यह प्रोग्राम विशेषकर नगर निगम और ग्राम विद्यालयों के छात्रों को ध्यान में रख कर बनाया गया था। इसमें एक कलाकार 45 मिनट तक छात्रों को अपनी कला के बारे में बताता है और फिर अगले 45मिनट पूर्व-दर्ज संगीत के साथ उसी कला का प्रदर्शन करता है। एक सप्ताह तक प्रति दिन इसी प्रकार कार्यशाला चलती है और अंत में सब बच्चो से पुछा जाता है की उन्होंने क्या सीखा। आज, एक वर्ष में 2000 से अधिक वर्कशॉप-डेमोस्ट्रेशन सरकारी स्कूलों में आयोजित किए जाते हैं।
पहला ग्रामीण स्कूल इन्टेनसिवे (कार्यशाला) सितंबर 2011 में आयोजित किया गया था, जहां 150 से अधिक छात्र 6दिवसीय सम्मलेन के लिए आए थे। ये कार्यशाला उन बच्चों से लिए था जो बहुत देश के पिछड़े इलाको में रहते थे। यही कुछ छात्र ऐसे थे जिन्होंने कभी अपने गांव से बाहर कदम नहीं रखा था, कुछ लोग कभी भी ट्रेन में नहीं बैठे थे,कुछ लोगों को कभी एक दिन में तीन समय का भोजन नहीं मिला था, और कुछ तो केवल दो कपड़े पहनते थे.. इस कार्यशाला का एक एक कार्यक्रम इन सब ग्रामीण बच्चों ने बड़े प्यार और धन से देखा और आत्मसात किया. इससे स्वयंसेवकों को भी नया परिप्रेक्ष्य मिला है. आज, हैदराबाद, अनंतपुर, विशाखापत्तनम, बेंगलुरु, धारवाड़, गुलबर्गा,बिहार, गोवा, यूपी में 15 से अधिक ग्रामीण स्कूल इन्टेनसिवे का आयोजन किया जा चुका है।
आन्दोलन की समस्याएं
एक ओर जहाँ सफलताये है वहीं कई समस्याए भी हैं। आज यह लोक आंदोलन कई चुनौतियां का सामना कर रहा है। पहली चुनौती है नए स्वयंसेवकों को आकर्षित करना, उनका परिपोषण करना और उनको आन्दोलन में बनाये रखना। धन जुटाना एक और बड़ा संकट है।
एक बड़े आन्दोलन को, जो किसी कॉर्पोरेट साम्राज्य की तरह है, चलाने और प्रबंधित करने के लिए विशेष कौशल की आवश्यकता होती है। स्वयंसेवकों को भर्ती करना, उनका लगातार पोषण करना, उन्हें बनाए रखने और उनके विकास की बड़ी आवश्यकता होती है। चाहे वह किसी बच्चे की आंखों में एक कार्यक्रम देखते हुए आयी चमक हो या अच्छा’महसूस करते समय, चाहे जो भी कर रहे हों, इस तरह की स्वैच्छिक काम के लिए उनमें विश्वास होना आवश्यक है।
स्पिक मैके में नियमित साप्ताहिक बैठकों में प्रबंध होता है जो आयोजन की लोकतांत्रिक शैली के मुख्य भाग में होते हैं,जहां अक्सर वार्ता के माध्यम से निर्णय लिया जाता है, शामिल करने, चर्चा, विश्लेषण, विस्तार, विकास के लिए जगह हमेशा रहती है।