Friday, November 22, 2024
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हिंदी की व्यथाः हे गिध्दों! मेरी लाश पर मंडराना बंद करो

सपने में अचानक हिंदी से मुलाकात हो गई। नई नई चली फैशन के सुंदर कपड़ों से लदी-फदी हिंदी के मलीन से चेहरे पर गज़ब की चमक थी। मैने सहज ही पूछ लिया ये क्या हाल बना रखा है। जिसके दम पर सरकारें बनती है, टीवी चैनलों की टीआरपी इठलाती है, इतने करोड़ उतने करोड़ लोग बोलते हैं सुनते हैं। जिसे बोले बगैर प्रधान मंत्री के मन की बात लोगों के गले नहीं उतरती। जिसे सुनाए बगैर रामायण, भागवत, गीता पुराण के कथाकारों की बड़ी बड़ी दुकानें या अँग्रेजी में कहें तो शोरुम नहीं चलते वो कमनीय काया वाली हिंदी इतनी दयनीय हालत में कैसे।

सुनते ही हिंदी बिफर पड़ी। मैं तो उसका क्रोध देखकर ही पसीने पसीने हो गया। जो हिंदी इतनी विनम्र, संकोची, संस्कारी, सरकारी, दरबारी थी वो अचानक कंगना रानौत की तरह बिफरी हुई थी। उसे इस हालत में देखकर मैं तय नहीं कर पाया कि मैं इस दृश्य पर गर्व करुँ, डरुँ या शर्म करूँ।

हिंदी बोलती जा रही थी और मैं सुनता जा रहा था। हिंदी बोली तुम्हारी सरकार, अधिकारियों, नेताओँ, साहित्यकारों, पत्रकारों, लेखकों और मेरे नाम से दुकान चलाने वाले सब लोग मेरी लाश पर गिध्द की तरह मंडरा रहे हैं। जो नेता, मंत्री और प्रधान मंत्री चुनावों में हिंदी में वोट माँगता है, उसके दफ़्तर में हिंदी बस चपरासी और ड्रायवर से ही बोली जाती है। चुनावी सभाओं में जो नेता हिंदी में गुर्राते हैं वो मंत्री बनते ही अफसर के आगे अंग्रेजी में मिमियाते हैं। अफसरों, नेताओँ मंत्रियो, विधायकों, सांसदों और राजभाषा विभाग के अधिकारियों के बच्चे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं। बच्चों को इतनी ही हिंदी सिखाई जाती है जितनी वो अपने घर काम करने वाली बाई से बोल समझ सके।

हिंदी के साहित्यकार और कवि दो दो कौड़ी की रचनाएँ लिखकर दर्शकों को पकड़-पक़ड़ कर सुनाते हैं वाट्सप पर भेजते हैं और लोग कहते हैं क्या घटिया हिंदी है। कवि सम्मेलनों में अश्लील आलाप करके कवि लोगों से तालियाँ बजवाते हैं तो मेरा सिर शर्म से झुक जाता है।

केंद्र सरकार ने हर विभाग की हिंदी सलाहकार समितियाँ बना रखी है। ये समितियाँ जितनी बार मेरे उद्धार के लिए और सरकारी कामकाज में मेरा उपयोग बढ़ाने के लिए बैठक करती है उतनी ही मेरी दुर्द्शा इन विभागों में पक्की हो जाती है। हिंदी समितियों की हर बैठक का बिल लाखों में आता है, मगर मैं बेचारी हिंदी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती रहती हूँ।

बैंकों में, सरकारी संस्थानों में मेरे नाम पर करोड़ों रुपये की मशीनें, सॉफ्टवेअर खरीद लिए गए हैं मगर उनका कोई उपयोग ही नहीं किया जाता।

टीवी से लेकर रेडिओ तक प्रधान मंत्री की मन की बात हिंदी में गूँजती है मगर मैं उसी प्रधान मंत्री कार्यालय में बैठे बाबुओँ की मजाक बनती हूँ। हिंदी को लेकर ऐसे ऐसे जुमले कसे जाते हैं कि डूब मरने की इच्छा होती है। रही सही कसर गूगल बाबा ने पूरी कर दी। अंग्रेजी के वाक्यों को गूगल में डालकर ऐसा अनुवाद किया जाता है कि हिंदी न जानने वाला भी आत्महत्या कर ले। मगर ऐसी हिंदी दिखाकर मक्कार बाबू प्रधान मंत्री से लेकर हर मंत्री के कृपापात्र बन जाते हैं। इस देश में सरकारी तंत्र में किसी को हिंदी आती हो तो उसका भविष्य भले ही अंधकार में हो लेकिन अधकचरी हिंदी हो और चापलूसी का गुण हो तो उसका भविष्य हैलोजन के भभके की तरह चमकता रहता है।

रही सही कसर हिंदी के अखबारों ने पूरी कर दी, हिंदी का हर अखबार अपनी खबरों में दस बीस शब्द अंग्रेजी के घुसा देता है। पहले तो लगता था कि दाल में कंकड़ की तरह अंग्रेजी शब्द अखबारों में होते हैं लेकिन अब तो हिंदी अखबारों की ये हालत है कि कंकड़ में दाल दिख रही है।

फिल्मी दुनिया से लेकर टीवी वाले सब हिंदी की खाते हैं मगर टीवी चैनलों पर अँग्रेजी में गुर्राते हैं।

मैं हिंदी की दारुण कथा सुनकर दुःखी होने का नाटक कर अपनी संवेदना प्रकट करना चाहता था कि मेरी नींद खुल गई।

नींद खुलते ही मैने राहत की साँस ली, ये सोचकर कि अगर सचमुच हिंदी से सामना हो जाता तो मैं तो मुँह दिखाने काबिल ही नहीं रहता।

एक निवेदन

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