यह बात सन 1930-40 के दशक की है उस दौर में अचानक कुछ ऐसा हुआ कि पूरे देश मे हिंदी भाषा के कुछ विरोधी सक्रिय हो गए। इस बिरोध के पीछे एक वर्ग विशेष को संतुष्ट करने का प्रयास था। विरोधियों ने हिंदी भाषा को गर्त में ले जाने के प्रयास शुरू कर दिए। इन कुत्सित प्रयासों से दुखी होकर हिंदी के एक कवि “स्वामी रामचंद्र वीर महाराजु” ने एक अत्यंत मार्मिक कविता लिखी। हुआ यूं कि एक दिन गुरुदेव श्री जगदीश प्रसाद पाण्डेय जी की डायरी पढ रहा था जिसमें इस कविता पर नजर पड़ी जो बहुत ही बेजोड़ ढंग से तात्कालिक तुष्टिकरण पर प्रहार कर रही थी।
यह बेजोड़ कविता यहाँ साझा करने से पूर्व गुरुदेव श्री जगदीश प्रसाद पाण्डेय जी की डायरी में दर्ज वह भूमिका भी साझा कर रहा हूँ कि आखिर यह कविता क्यों लिखी गई।
आजादी के पूर्व 1937 में गांधीजी के आदेश पर देश मे धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने के लिए ‘वर्धा शिक्षा समिति’का पाठयक्रम तैयार किया। इस पाठ्यक्रम में अरबी,फारसी ,उर्दू और हिंदी को जोड़ कर एक नई भाषा तैयार की गई। जिसे “हिंदूस्तानी भाषा” का नाम दिया गया। इस भाषा मे हिंदी शब्दों को मात्र दस प्रतिशत स्थान मिला बाकी के 90 प्रतिशत शब्द उर्दु, अरबी ,फारसी और तुर्की भाषा से लिए गए।
इस भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए गांधीजी ने ‘हिंदूस्तानी तालीमी संघ ‘ की स्थापना की। इस संघ ने ‘बुनियादी राष्ट्रीय शिक्षा’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की जिसकी भूमिका स्वयं गांधी जी ने लिखी थी। इस पुस्तक में अलबरूनी, फिरोजशाह तुगलक, बाबर, अकबर, चाँद बीबी, नुरजहां, ईसा, मुसा, जरस्थु और अकबर आदि पर विस्तृत चर्चा की गई थी लेकिन महाराणा प्रताप, महारानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, शिवा जी, गुरू गोविंद सिंह, चंद्रशेखर आजाद आदि को पाठयक्रम में जगह नही दी गई।
इस पुस्तक में भगवान श्री राम के संबध में जो लिखा गया वह कुछ इस प्रकार था- “बादशाह दशरथ के चार फरजंद थे। शहजादा राम बड़े फरजंद थे। उनका विवाह बेगम सीता के साथ किया गया। मौलवी वाल्मिकी ने लव-कुश को पढाया।’ आदि-आदि…..
इस वर्धा शिक्षा समिति की नई हिंदूस्तानी भाषा का महाकवि निराला, राहुल सांकृत्यान ,नारायण चतुर्वेदी ,किशोरीदास वाजपेयी जैसे हिंदी के कई लेखकों ने जबरदस्त विरोध किया।
इसी समय के स्वामी रामचंद्र वीर महाराज ने इस शिक्षा समिती का विरोध करते हुए 1938 में यह कविता लिखी जो उस समय बहुत लोकप्रिय हुई थी-
हिंदी को मरोड़, अरबी के शब्द जोड़-जोड़,
हिंदूस्तानी की खिचड़ी जब पकाएगें।
हंस से उतारकर वीणा पाणी शारदा को,
मुरगे की पीठ पर खींचकर बिठाएंगे।
‘बादशाह दशरथ’ ‘शहजादा राम’ कह मौलवी वशिष्ठ बाल्मिकी को बताएगें।*
देवी जानकी को वीर बेगम कहेंगे जब,
तुलसी से संत यहां कैसे फिर आएगें।
तुलसी से संत यहां कैसे फिर आएंगे….
उस महान कवि की इस कविता ने हिंदी प्रमियों में चेतना का संचार हुआ और जबरदस्त विरोध के चलते हिंदुस्तानी भाषा के नाम पर हिंदी को नष्ट करने के कुत्सित प्रयासों पर रोक लग सकी।
महात्मा रामचन्द्र वीर की अन्य प्रकाशित रचनाएँ हैं – वीर का विराट आन्दोलन, वीर रत्न मंजूषा, हिन्दू नारी, हमारी गौ माता, अमर हुतात्मा, विनाश के मार्ग (1945 में रचित), ज्वलंत ज्योति, भोजन और स्वास्थ्य वीर जी राष्ट्र भाषा हिंदी के लिए भी संघर्षरत रहे। एक राज्य ने जब हिंदी की जगह उर्दू को राजभाषा घोषित किया तो वीर जी ने उनके विरुद्ध अभियान चलाया व अनशन किया। तब वीर विनायक दामोदर सावरकर ने भी उनका समर्थन किया था। जहाँ मध्यकाल में वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा लेकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने जन सामान्य के लिए अवधी भाषा में रामचरित मानस की रचना की, वहीं आधुनिक काल में वाल्मीकि रामायण से ही प्रेरित होकर महात्मा रामचन्द्र वीर ने हिन्दी भाषा में श्री रामकथामृत लिखकर एक नया अध्याय जोडा है। राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति उनकी अनन्य भक्ति अनुपम है-
नहिं हो सकती कोई भाषा मेरे तुल्य अतुल अभिराम।
करता हूँ मैं अति ममतामय हिन्दी माता तुझे प्रणाम।।
महात्मा वीर एक यशश्वी लेखक, कवि तथा ओजस्वी वक्ता थे। इन्होंने देश तथा धर्म के लिए बलिदान देने वाले हिन्दू हुतात्माओं का इतिहास लिखा। हमारी गोमाता, श्री रामकथामृत (महाकाव्य), हमारा स्वास्थ्य, वज्रांग वंदना समेत दर्जनों पुस्तकें लिख कर साहित्य सेवा में योगदान दिया और लेखनी के माध्यम से जनजागरण किया। ‘वीर रामायण महाकाव्य’ हिन्दी साहित्य को वीरजी की अदभुत देन है। रामचंद्र वीर ने गद्य और पद्य दोनों में बहुत अच्छा लिखा, उनकी अमर कृति ‘विजय पताका’ तो मुर्दों में जान फूंक देने में सक्षम है। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने बाल्यकाल में इसी पुस्तक को पढकर अपना जीवन देश सेवा हेतु समर्पित किया। इसमें लेखक ने पिछले एक हज़ार वर्ष के भारत के इतिहास को पराजय और ग़ुलामी के इतिहास के बजाय संघर्ष और विजय का इतिहास निरूपित किया है। अपनी अधूरी आत्मकथा “विकट यात्रा” को महात्मा वीर जी ने संक्षेप में 650 पृष्ठों में समेटा है। वह भी केवल 1953 तक की कथा है। उनके पूरे जीवन वृत्तांत के लिये तो कोई महाग्रन्थ चाहिये। ऐसे एक महान् लेखक और कवि का साहित्य जगत् अब तक ठीक से मूल्यांकन नहीं कर पाया है।
वीर जी गोरक्षा के लिए संघर्ष करते हुए 24 अप्रैल, 2009 ई. को शतायु पूर्ण करते हुए विराट नगर (राजस्थान) में स्वर्ग सिधार गए।
( स्व.रामचन्द्र वीर विश्व हिंदू परिषद के मार्गदर्शक मंडल के सदस्य आचार्य धर्मेंद्र के पूज्य पिताजी थे। )