भारतवर्ष कभी विश्वगुरू हुआ करता था,इस कथन को विश्व कितनी मान्यता देता है इस बात का तो पता नहीं परंतु इतना ज़रूर है कि हमारे देश में 21वीं शताब्दी में भी लोगों को इस बात के लिए शिक्षित किया जा रहा है कि वे खुले में शौच करने से बाज़ आएं,अपने घर व पास-पड़ोस में सफ़ाई रखें,जनता को अभी तक यही समझाया जा रहा है कि गंदगी फैलने से बीमारी व संक्रमण फैलता है। अभी देश के लोगों को यातायात के नियम समझाए जा रहे हैं। महिला उत्पीड़न व बलात्कार जैसी घटनाओं को लेकर हमारा देश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में बना रहता है। हमारा स्वयंभू ‘विश्वगुरू’ आज भी अंधविश्वासों में जकड़ा हुआ है। झाड़-फूंक,जादू-टोना,दुआ-ताबीज़ जैसी चीज़ों से हम मुक्ति नहीं पा सके हैं। ऐसी ही एक अमानवीय कही जा सकने वाली त्रासदी इसी ‘विश्वगुरू’ राष्ट्र में स्हस्त्राब्दियों से चली आ रही है जिसे हम दलित समाज अथवा हरिजन समाज के उत्पीडऩ या उसकी उपेक्षा के नाम से जानते हैं। धर्म अथवा जाति को लेकर अछूत समझी जाने वाली व्यवस्था शायद ‘भारत महान’ के अतिरिक्त दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। भारत ही दुनिया का अकेला ऐसा देश है जहां हरिजन अथवा दलित समाज के लोगों को तथाकथित स्वर्ण जाति के लेागों द्वारा नीच व तुच्छ समझा जाता है। हालांकि शहरी क्षेत्रों में यह कुप्रथा धीरे-धीरे कम ज़रूर होती जा रही है परंतु देश के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र अभी भी उसी जातिवादी मानसिकता से घिरे हुए हैं।
दलित समाज के लोगों को अपने बराबर बिठाने से परहेज़ किया जाता है। उनके खाने-पीने के बर्तन अलग रखे जाते हैं। उनके शरीर का स्पर्श भी अच्छा नहीं समझा जाता। दलित समाज के दूल्हे को घोड़ी पर बैठने नहीं दिया जाता। स्वर्ण समाज स्वयं को ही घोड़ी पर बैठने का जन्मसिद्ध अधिकारी मानता है। यदि कहीं दलित समाज का व्यक्ति भोजन बनाता है तो उसके हाथ का बना भोजन खाने से मना कर दिया जाता है। ऐसी कई घटनाएं मिड डे मील योजना के तहत स्कूलों में बनाए जाने वाले खाने को लेकर हो चुकी हैं जबकि स्कूल के स्वर्ण समाज के बच्चों ने दलित कर्मी के हाथ का बना भोजन स्कूल में खाने से मना कर दिया। हद तो यह है कि उत्तर प्रदेश के हाथरस जि़ले में जाटव समाज के एक दूल्हे को पुलिस प्रशासन द्वारा घोड़ी पर सवार होकर अपनी बारात गांव में घुमाने से इसलिए मना कर दिया गया क्योंकि उस गांव में स्वर्ण दबंगों से जाटव समाज की बारात को खतरा पहुंच सकता था। जबकि दूल्हे की ओर से प्रशासन से इस विषय पर अनुमति भी तलब की गई थी परंतु प्रशासन ने अनुमति देने के बजाए जाटव समाज के लोगों को ही स्वर्णों का भय दिखाकर उन्हें घुड़चढ़ी व गांव में बारात घुमाने की इजाज़त नहीं दी। क्या यह सवाल वाजिब नहीं है कि यह कैसा स्वयंभू विश्वगुरू राष्ट्र है जहां हम 21वीं सदी में भी बारात निकालने व घोड़ी पर चढऩे की अनुमति मांगते फिर रहे हैं और प्रशासन वह अनुमति भी देने से इंकार कर रहा है?
उधर दूसरी ओर देश के विकास और प्रगति की बात करने वाले और देश की एकता व अखंडता का दंभ भरने वाले विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं द्वारा दलित समाज से भाईचारगी व समरसता का ढोंग करने का सिलसिला भी कई दशकों से जारी है। देश का बड़े से बड़ा नेता दलितों के घर भोजन करने का स्वांग रचाकर यही दिखाने की कोशिश करता है कि वह दलितों के प्रति प्रेम व सद्भाव रखता है तथा ऊंच-नीच व जात-पात अथवा छूत-अछूत जैसी विसंगतियों को नहीं मानता। क्या राहुल गांधी तो क्या अमित शाह यह सभी नेता दलितों के घरों पर भोजन करने का प्रदर्शन करते देखे जा चुके हैं। राहुल गांधी ने पूरी रात दलित के घर गुज़ार कर यह जताने की भी कोशिश की कि हमें इनके साथ खाने-पीने,उठने-बैठने और सोने में भी कोई परहेज़ नहीं है। भारतीय जनता पार्टी 2014 में सत्ता में आने के बाद विभिन्न आयोजनों द्वारा यह प्रदर्शित करने की कोशिश करती रही है कि हिंदू धर्म में जात-पात नाम की कोई चीज़ नहीं है। सभी हिंदू एक समान हैं। ऐसे प्रदर्शन के लिए भाजपा ने महाकुंभ मेले जैसे देश के सबसे विशाल आयोजन को भी इससे जोडऩे की कोशिश की। परंतु इन सब बातों के बावजूद नतीजा यही है कि दलित समाज पर होने वाले अत्याचार तथा इनकी उपेक्षा व इस समाज के साथ सहस्त्राब्दियों से होता आ रहा सौतेला व्यवहार अब भी न केवल जस का तस है बल्कि कहीं-कहीं इसमें इज़ाफ़ा भी होता जा रहा है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों अपने एक बयान में भाजपा नेताओं के दलितों के घर भोज करने को सीधे तौर पर नाटक करार दिया। उन्होंने यह बात कर्नाटक चुनाव के दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह व कर्नाटक भाजपा नेता बी एस येदिुरप्पा तथा कई अन्य नेताओं द्वारा सिलसिलेवार तरीक़े से दलितों के घर जाने तथा वहां भोजन ग्रहण करने का नाटक करने के संदर्भ में कही। संघ, हिंदू एकता जैसे राष्ट्रव्यापी मिशन पर चलते हुए देश के प्रत्येक गांव में एक मंदिर एक शमशान और एक स्थान से पानी लेने जैसे मिशन पर काम कर रहा है। परंतु जातिवाद का यह ज़हर कम होने का नाम ही नहीं ले रहा। आख़िर इसकी वजह क्या है? क्यों स्वर्ण व दलित समाज एक-दूसरे के क़रीब खुलकर नहीं आ पा रहे हैं? इस समस्या की जड़ें आख़िर हैं कहां? संघ क्या इस दुर्व्यवस्था की जड़ों पर प्रहार किए बिना गांवों में एक मंदिर,एक शमशान व एक कुंआं जैसी परिकल्पना को धरातल पर ला सकता है? क्या वजह है कि उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार का एक मंत्री पार्टी के दिशा निर्देश पर दलितों के घर भोजन करने का ‘नाटक’ तो ज़रूर करता है परंतु अपना खाना और पानी साथ लेकर जाता है? ख़बरें तो यहां तक हैं कि दलितों के घर भोज के ड्रामे में भी पांच सितारा होटलों से खाना मंगवा कर इन तथाकथित राष्ट्रवादियों को परोसा जाता है। ज़ाहिर है नफ़रत के यह रिश्ते कुछ वर्षों या इतिहास की किसी एक घटना के नतीजे नहीं बल्कि इनकी जड़ें धार्मिक शिक्षाओं तथा संस्कारों में छुपी हुई हैं।
निश्चित रूप से हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि वर्ण व्यवस्था की शुरुआत कब,कहां से और क्या सोचकर की गई? क्यों भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जैसे महान क़ानूनविद् द्वारा लाखों लोगों के साथ हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली गई और क्या वजह है कि दलितों के धर्म परिवर्तन करने का यह सिलसिला आज तक जातरी है? ज़ाहिर है इस अमानवीय त्रासदी के पीछे किसी इस्लामिक शिक्षा,जेहाद,क़ुरान,पाकिस्तान,कांग्रेस,गांधी-नेहरू परिवार,कम्युनिस्टों आदि का हाथ नहीं है बल्कि इस व्यवस्था की जड़ें उस मनुवादी संस्कारों में छुपी हुई हैं जो समाज में वर्ण व्यवस्था को लागू करने का जि़म्मेदार है। संघ को ऐसी शिक्षाओं,ऐसे शास्त्रों,ऐसे संस्कारों को जड़ से संशोधित करने के विषय में सोचने की ज़रूरत है। हद तो यह है कि दलित समाज के उत्थान तथा उन्हें उनके अधिकार दिलाने के लिए देश में आज जो भी दलित नेता सिर उठाए नज़र आते हैं वे भी सत्ता तथा माया मोह में उलझकर रह गए हैं। वे भी उसी स्वर्ण समाज की हां में हां मिलाते अक्सर देखे जाते हैं। हां जब चुनाव का समय क़रीब आता है उस समय ज़रूर एक से बढक़र एक दलित मसीहा नज़र आने लगते हैं। लिहाज़ा सांकेतिक रूप से दलितों के घर भोजन जैसे नाटक बंद कर गंभीरतापूर्वक इसी बात पर मंथन करने की ज़रूरत है कि आख़िर आज हमें ऐसे नाटक करने की ज़रूरत ही क्यों महसूस हो रही है?
Tanveer Jafri ( columnist),
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