अंडमान-निकोबार के आदिवासी हाल ही में अमेरिकी मिशनरी जॉन ऐलन चाउ की हत्या की वजह से खबरों में हैं। अंडमान के भारत का हिस्सा बनने से पहले ब्रिटिश हुकूमत ने भी इन आदिवासियों को बाहरी दुनिया से जोड़ने की नाकाम कोशिश की थी।
अंडमान-निकोबार के आदिवासी अमेरिकी मिशनरी ऐलन चाउ की हत्या की वजह से चर्चा में हैं।
अंडमान के भारत का हिस्सा बनने से पहले ब्रिटिश हुकूमत ने इन्हें दुनिया से जोड़ने की कोशिश की थी।
इस ऑपरेशन का हिस्सा रहे एम.वी. पोर्टमैन ने अपनी किताब में इससे जुड़ी कई घटनाओं का ज़िक्र किया है।
अंडमान-निकोबार द्वीप-समूह के स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनने से बहुत पहले ब्रिटिश हुकूमत ने भी यहां के मूल निवासियों से निपटने की नाकाम कोशिश की थी। जारवा और सेंटिनली इस द्वीप-समूह पर रहने वाले आदिवासी कबीलों में से एक हैं, जो हाल ही में अमेरिकी मिशनरी जॉन ऐलन चाउ की कथित हत्या की वजह से खबरों में हैं। ये कबीले बाहरी दुनिया से कटे रहना पसंद करते हैं।
19वीं सदी के आखिरी बरसों में ब्रिटिश प्रशासन इन आदिवासियों को हद से ज़्यादा बर्बर मानते हुए इनकी पूरी आबादी खत्म करने पर विचार कर रहा था। खुशकिस्मती से कुछ बुद्धिमान सलाहकारों के दखल के बाद इन आदिवासियों को बाकी दुनिया से जोड़ने की प्रक्रिया शुरू हुई। उस समय के ब्रिटिश अधिकारी एम.वी. पोर्टमैन ने 1899 में आई अपनी किताब ‘A History of Our Relations with the Andamanese’ (अंडमानियों के साथ हमारे रिश्तों का इतिहास) में ब्रिटिश और आदिवासियों के बीच हुईं कुछ घटनाओं का ज़िक्र किया है। यह किताब बताती है कि कैसे ब्रिटिश हुकूमत की नीति दो चरमपंथी ध्रुवों के बीच डगमगाती रही।
पोर्टमैन के मुताबिक मार्च 1896 में जारवा कबीले के तीन आदिवासियों ने दक्षिणी अंडमान के जंगल में काम कर रहे कुछ कैदियों पर हमला कर दिया। इस हमले में एक व्यक्ति की मौत हो गई, जबकि एक घायल हो गया। हत्यारों की खोज बेकार थी। पोर्टमैन लिखते हैं, – ‘जो लोग अंडमान के जंगलों और आदिवासियों की आदतों से अनजान थे, वो हत्या के समय आदिवासियों को पूरी तरह खत्म करने, उन्हें द्वीप-समूह से खदेड़ने या पुलिस, कैदियों और गोरखा सैनिकों की मदद से उन्हें कैद करने के पक्ष में थे।’
वहीं उस समय इस बंदोबस्त का हिस्सा रहे ब्रिगेडियर जनरल कमिन्स के मुताबिक यह एक बेतुका ख्याल था, जिसे आसानी से अंजाम नहीं दिया जा सकता था। कमिन्स चिन बागियों और बर्मा के डकैतों को कैद करने के ऑपरेशन से जुड़े रहे थे।
एम.वी. पोर्टमैन की किताब लॉन्च होने से करीब एक दशक पहले भी इन अंडमानियों का ऐसी जगह ज़िक्र हुआ, जो बताता है कि ये आदिवासी ब्रिटिश लोगों की कल्पनाओं में कितनी मजबूती से स्थापित हो गए थे। 1890 में लॉन्च हुए अपने नॉवेल ‘The Sign of Four’ में लेखक आर्थर कॉनन डॉयल एक काल्पनिक अंडमानी आदिवासी ‘टोंगा’ के बारे में लिखते हैं कि उसे एक नमूने के तौर पर इंग्लैंड लाया गया था।
शेरलॉक होम्स के रचयिता डॉयल का शेरलॉक पर यह दूसरा नॉवेल था, जिसमें डॉ. वॉटसन टोंगा के बारे में कहते हैं, ‘उसका भयानक चेहरा किसी की भी नींद उड़ाने के लिए काफी था। मैंने पहले कभी ऐसा इंसान नहीं देखा था, जिसके चेहरे से ही इतनी दरिंदगी और क्रूरता झलकती हो।’
उस समय ब्रिटिश हुकूमत ने अंडमान को एक पीनल कॉलोनी में तब्दील कर दिया था। पीनल कॉलोनी यानी दूर-दराज़ की वह जगह, जिसे कैदियों को समाज से दूर रखने के लिए इस्तेमाल किया जाए। इसी को काले पानी की सज़ा कहा जाता था। अंडमान के पीनल कॉलोनी बनने की वजह से सैकड़ों आदिवाली सिफलिस, खसरा और इंफ्लुएंजा की वजह से मारे गए। ये बीमारियां उन्हें बाहरी समाज से ही मिली थीं।
पोर्टमैन ने सेंटिनली लोगों के कुछ और किस्से लिखे हैं। 30 मार्च 1896 को हुई एक हत्या के बारे में पोर्टमैन लिखते हैं, ‘दक्षिणी तट पर पानी के किनारे एक हिंदू व्यक्ति की लाश मिली थी, जो कई तीरों से छिदी हुई थी और गला काट दिया गया था।’
पोर्टमैन ने सेंटिनली लोगों को पूरी तरह खत्म करने के विकल्प के तौर पर एक योजना बनाई। योजना थी कि द्वीप-समूह का खेती और वैज्ञानिक परीक्षण के लिए इस्तेमाल किया जाए। इसका असल मकसद सेंटिनली लोगों को छोटे-छोटे ग्रुप में कैद करके उन्हें जबरन ऐसे कैंप में रखना था, जहां वो ब्रिटिश तौर-तरीकों से परिचित हो सकें।
पोर्टमैन लिखते हैं, ‘खोजी अभियान में लगे लोगों को जंगलों से कुछ पुरुषों को पकड़ना चाहिए, उन्हें कैंप में रखना चाहिए, उन्हें कछुए पकड़ने के लिए साथ ले जाना चाहिए, उन्हें कछुए और वही खाना खिलाना चाहिए, जो वो अपने घरों में खाते हैं। उन्हें तोहफे दिए जाने चाहिए। कुछ दिनों बाद पकड़े गए लोगों में से आधे लोगों को अपने गांवों में वापस भेजना चाहिए।’
पोर्टमैन और उनके साथी एक सेंटिनली परिवार के छह लोगों को पकड़ने में कामयाब हो गए थे। वो उन्हें अपने साथ पोर्ट ब्लेयर ले गए, लेकिन उस परिवार के पेरेंट्स मर गए और उनके बच्चों को तोहफों के साथ आईलैंड पर वापस भेज दिया गया।
तोहफे देने का मकसद आदिवासियों को यह बताना था कि बाहरी लोग उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते, लेकिन यह तरकीब काम नहीं आई। कुछ बरसों तक ऐसी कोशिशों के बाद आखिरकार ब्रिटिश प्रशासन ने इन आदिवासियों को इनके अकेलेपन में छोड़ दिया।
साभार- टाईम्स ऑफ इंडिया से