हम सूचनाओं के विस्फोट के युग में जी रहे हैं। आज नित-नवीन सूचनाओं की तलाश में केवल विभिन्न चैनलों, न्यूज़ एजेंसियों में काम करने वाले मीडियाकर्मी ही नहीं रहते, बल्कि कहीं-न-कहीं हम पाठकों और दर्शकों में भी कुछ नया, कुछ अप्रत्याशित, कुछ सनसनीखेज़ सुनने-पढ़ने-देखने की जिज्ञासा व ललक बनी रहती है। स्वाभाविक है कि इन सब कारणों से शुभ-सुंदर-सार्थक-सकारात्मक पर हमारी दृष्टि ही नहीं जाती या नकारात्मकता के शोर में ऐसी ख़बरें दब जाती हैं। बल्कि नकारात्मकता का यह शोर मनुष्य की सहज संवेदना को भी निरंतर कुंद करता जा रहा है। आज सकारात्मक समाचारों को सामने लाने की आवश्यकता है| कोरोना-काल में यह आवश्यकता और बढ़ गई है।
आज हमें भयभीत करने वाली, हौसला पस्त करने वाली खबरों से अधिक हौसला बढ़ाने वाली ख़बरों की आवश्यकता है। इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि संचार-माध्यम जन सरोकारों से मुँह मोड़ ले या समस्याओं के अवलोकन-विश्लेषण की उपेक्षा करे। बल्कि सरोकारधर्मिता तो उसकी एक प्रमुख विशेषता है। पर प्रस्तुतिकरण ऐसा न हो कि संचार, संवाद और सहमति हाशिए पर चला जाय और संदेह-सनसनी-उत्तेजना केंद्र में आ जाए| आवश्यकता संचार-माध्यमों के ज़रिए संवाद और सहमति क़ायम करने की होनी चाहिए न कि समाज के विभिन्न वर्गों के बीच आशंका, अविश्वास और असहमति बढ़ाने की। यह जिम्मेदारी केवल संचार-माध्यमों की ही नहीं परिवार और समाज की भी होनी चाहिए। क्या देखना और क्या नहीं देखना, क्या पढ़ना और क्या नहीं पढ़ना यह तो आख़िर विवेकी दर्शक एवं पाठक की भी जिम्मेदारी बनती है।
क्या हम सामाजिक चर्चा के केंद्र में ऐसी बातों-मुद्दों को नहीं ला सकते जो मनुष्यता पर विश्वास बढ़ाए, जो पस्त होते हौसलों को सहारा दे, जो अँधेरे वक्त में भी राह दिखाने वाली रोशनी बन जाए। न जाने ऐसी कितनी ही ख़बरें बीते दिनों यदा-कदा चंद रौशनदानों से छन-छनकर सामने आती रहीं, जिन्हें और प्रमुखता से संचारित-प्रसारित-प्रकाशित करने की आवश्यकता थी! जिसने देशवासियों को ढाँढ़स दिया, शिथिल एवं दुविधाग्रस्त पगों को आगे बढ़ने की शक्ति एवं दिशा दी , समूहों-संस्थाओं पर कमज़ोर होते विश्वासों को मज़बूती दी। कितनी उजली तस्वीर है यह कि इस कोरोना-काल में लाखों-लाखों सरकारी-गैर सरकारी अधिकारी-कर्मचारी अपने ही जैसे हाड़-मांस के इंसानों का जीवन बचाने के लिए अपनी जान तक की परबाह नहीं कर रहे! कितनी खूबसूरत है यह तस्वीर कि हजारों-लाखों चिकित्सक-स्वास्थ्यकर्मी-सेवाकर्मी अपना घर-परिवार भुलाकर कोरोना-संक्रमितों की सेवा में अहर्निश जुटे हैं!
क्या यह सत्य नहीं कि उनमें से कइयों ने अपने मरीजों के स्वास्थ्य को ही अपने जीवन का मक़सद बना रखा है? उनके चेहरे पर एक स्मित मुस्कान लौटाने में वे अपनी ओर से कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रख रहे! कितनी अप्रतिम है यह तस्वीर कि हजारों-हजारों पुलिसकर्मी अपनी विकृत-पारंपरिक छवि से भिन्न सेवा एवं कर्तव्यनिष्ठा के नए प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं! भोजन-पैकेट वितरित करते, दुःखियों-पीड़ितों की मदद करते, विभिन्न व्यवस्थाओं के सुचारू संचालन में तैनात किए जाने के कारण घर-परिवार के अपने निजी उत्तरदायित्वों की उपेक्षा करते तमाम सेवादूतों की मानवीय एवं उज्ज्वल तस्वीर हमें क्यों नहीं दिखाई देतीं? बल्कि तमाम जोखिमों को उठा विभिन्न घटनाओं-स्थितियों की रिपोर्टिंग करते ये संवाददाता-रिपोर्टर-पत्रकार भी तो किसी योद्धा से कम नहीं? यदि वे नकारात्मक-सनसनीखेज खबरों के बजाय मनुष्यता की उजली तस्वीरों को सामने लाएँ तो चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का कितना अद्भुत संचार होगा, स्वस्थ-सुंदर-उत्साहजनक परिवेश की कैसी निर्मिति होगी और हमारी चेतना कितनी उर्ध्वगामी बनेगी! मनुष्य की अच्छाइयों की कितनी-कितनी उजली तस्वीरें हैं, जिन्हें कैमरे की जद, कलम की परिधि में लाया जा सकता था।
जब देश के नौनिहालों के सामने पूरा साल व्यर्थ जाने का संकट मंडरा रहा था, ऐसे में तमाम विद्यालयों-शिक्षकों-संस्थाओं ने दूरस्थ शिक्षा की लौ जलाए रखी। अपना घर अँधेरा रखकर भी शिक्षा का दीप बुझने न दिया। ठीक है कि ऑनलाइन शिक्षण की अपनी सीमाएँ हैं, पर सीखना-सिखाना सतत चलते रहना चाहिए। यह जीवन के चलते रहने की निशानी है। ऐसी तमाम तस्वीरें हो सकती थीं जो विध्वंस के बीच जीवन की कहानी कहतीं। जो नियति और परिस्थिति पर विजय पाते मनुष्य की कहानी कहतीं। क्यों हमारे माध्यम और हम प्रलय के भविष्यवक्ता बन जाना चाहते हैं? क्यों हम निराशा और हताशा के कोरस गाते और दुहराते रहना चाहते हैं? क्यों हम मनुष्य की अजेय जिजीविषा की कहानी नहीं कहते, क्यों हम उसके बुलंद इरादों और आसमान छूते सपनों की बातें नहीं करते? तिनका-तिनका सुख जोड़ते और लमहा-लमहा दुःख बटोरते साधारण मनुष्यों का असाधारणत्व हमें क्यों नहीं दिखता? क्यों हम स्याह अँधेरों के अंधे तमाशबीन बन गए हैं या बन जाना चाहते हैं? क्यों अपनी और अपने जैसे हाड़-मांस से बने इंसानों के लहू और रगों में दौड़ते-फिरते रौशनी की धार पर हमारी निगाहें नहीं जातीं और टिकतीं?
क्या यह सत्य नहीं कि जिन नियोक्ताओं-व्यापारियों-उद्योगपतियों-राजनेताओं को कोसना हमारे समाज और माध्यमों का प्रिय शग़ल रहा है, उनमें से कइयों ने इस कठिन वक्त में अपनी सामाजिक-राष्ट्रीय-मानवीय जिम्मेदारी निभाकर एक मिसाल क़ायम की है? उनकी चर्चा हाशिए पर क्यों? क्या यह बदलाव की बयार नहीं कि इस कोरोना-काल में हमारे सांसदों-मंत्रियों ने अपने वेतन-भत्ते की कटौती की पेशकश स्वीकारी और उससे संबंधित विधेयक को पारित होने दिया? क्या यह बदलाव की आहट और दृष्टि-पथ से हटती-छँटती धुंध नहीं कि अभी हाल ही में संपन्न मॉनसून-सत्र में लोकसभा में 167 प्रतिशत और राज्यसभा में 104.47 प्रतिशत कामकाज हुआ? आँकड़ों के अनुसार 14 सितंबर से शुरू हुए मॉनसून सत्र में लोकसभा की 10 बैठकें बिना अवकाश के हुईं, जिनमें निर्धारित कुल 37 घंटे की तुलना में 60 घंटे की कार्यवाही संपन्न हुई|
इस दौरान 2300 अतारांकित प्रश्नों के उत्तर दिए गए, 370 मामले शून्यकाल में उठाए गए। इस अवधि में अनेक बार लोकसभा-अध्यक्ष ने जिस कुशलता एवं प्रत्युत्पन्नमति से अनावश्यक गतिरोध दूर कर सदन की कार्यवाही को आगे बढ़ाया, वह प्रशंसनीय और व्यवस्था-संचालन के विविध क्षेत्रों में भी अनुकरणीय है।वहीं राज्यसभा में उपसभापति को हटाए जाने के लिए लाए गए अविश्वास प्रस्ताव को यदि कुछ पल के लिए भुला पाएँ तो वहाँ भी 3 घंटे 26 मिनट अतिरिक्त बैठकर ज़रूरी कामकाज संपन्न किया गया। इस दौरान कुल 25 विधेयक पारित किया गया या लौटा दिया गया। इसके साथ ही छह महत्त्वपूर्ण विधेयक पेश किए गए। पारित हुए विधेयकों में कृषि क्षेत्र से संबद्ध तीन महत्त्वपूर्ण विधेयक, महामारी संशोधन विधेयक, विदेशी अभिदाय विनियमन संशोधन विधेयक, जम्मू-कश्मीर आधिकारिक विधेयक शामिल हैं।
क्या ये उपलब्धियाँ साधारण फ़ुटेज या कवरेज़ की हक़दार हैं? क्या यह सत्य नहीं कि इस भयावह एवं विकट काल में केंद्र एवं तमाम राज्य-सरकारें निर्णय एवं नीतियों की पंगुता या कामकाजी शिथिलता की शिकार नहीं रहीं? क्या यह प्रशंसनीय नहीं कि संक्रमित होने का संकट मोल लेकर भी हमारे चुने हुए प्रतिनिधि एवं विभिन्न दलों-संगठनों के कार्यकर्त्ता जरूरतमंदों की आवाज़ सुनने तथा आवश्यकताओं को समझने हेतु उनके बीच जा रहे हैं और सीधा संवाद क़ायम करने की कोशिश में उनमें से कई तो संक्रमित भी हो रहे हैं? हमें समाज और संस्था के तौर पर आज अपनी-अपनी जिम्मेदारी शिद्दत से समझनी होगी और सकारात्मकता के साथ देश को इस कोरोना-काल एवं उसके संकटों से उबारना होगा। और निःसंदेह इसमें संचार-माध्यमों की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होगी|
प्रणय कुमार
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