प्रधानमंत्री जी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम ( फरवरी, 2021) में सभ्यता, संस्कृति और आस्था से जोड़कर नदियों की महत्ता बताई। हक़ीक़त यह है कि इन्ही प्रधानमंत्री जी ने गंगा-अविरलता को विज्ञान से ज्यादा, आस्था का विषय मानने वाले स्वर्गीय स्वामी श्री ज्ञानस्वरूप सानंद की एक नहीं सुनी। गंगा अविरलता सुनिश्चित करने हेतु अनकी चार मांगों को मानना तो दूर, संबंधित पत्रों के उत्तर तक नहीं दिए।
(स्वामी श्री सानंद का सन्यास पूर्व नाम – प्रो. जी. डी. अग्रवाल था। प्रो. अग्रवाल कोई साधारण नहीं, तकनीकी रूप से प्रशिक्षित प्रथम भारतीय पर्यावरणविद् (पी.एच.डी., केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कले) थे। भारत में पर्यावरण इंजीनियरिंग का प्रथम विभाग आई.आई.टी., कानपुर में स्थापित हुआ। उसके संस्थापक-अध्यक्ष प्रो. अग्रवाल थे। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सदस्य सचिव की यादगार भूमिका निभाने वाले भी प्रो. अग्रवाल ही थे। वह राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के सलाहकार रहे। नानाजी देशमुख की पहल और प्रेरणा से स्थापित महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय, सतना में मानद प्रोफेसर की भूमिका को विश्वविद्यालय आज भी याद करता है। प्रो. अग्रवाल एक वक्त में वह बडे. बांध के डिजाइन इंजीनियर थे; दूसरे वक्त में वह, बांध व सुरंग आधारित विद्युत-जल परियोजनाओं के डिजाइन, आकार, स्थान और कुप्रबंधन के घोर विरोधी बने। इसी खातिर अपने प्राण गंवाए।)
गौर कीजिए कि इससे पहले अपने-अपने गंगा के अनशन के चलते साधु निगमानंद और नागनाथ को प्राण त्यागने पडे़ थे। अब मातृ सदन, हरिद्वार के साधु श्री आत्मबोधानन्द गंगा अनशन पर हैं। पीठाधीश्वर स्वामी श्री शिवानंद ने मांगें नहीं माने जाने पर स्वयं के शरीर को कुंभ के दौरान विसर्जित करने संबंधी बयान दिया है।
जल-विद्युत, जल-परिवहन और गंगा तट को काटकर गंगा पर्यटन….यानी गंगा जी को कहना माई, करना कमाई ! रिवर फ्रंट डेवल्पमेंट के नाम पर साबरमती को नगरीय हिस्से में नहर में तब्दील कर देना; बाँध की ऊंचाई बढ़ाकर नर्मदा को नुक़सान पहुंचाना; किसान हितैषी सपने दिखना और मांग कर रहे किसानों से खुद बात तक न करना! वैक्सीन पर पीठ ठोकना; घटी आय और बढ़ती मंहगाई पर चुप्पी !! बातें राष्ट्रवाद की और कारगुजारियां…राष्ट्र के मानस को टुकड़ों में बांट देने की। स्वच्छ भारत, उज्जवला, स्वामित्व पहल…योजनाओं का चेहरा सामाजिक, एजेण्डा काॅरपोरेट !!
प्रश्न कीजिए कि ‘नल-जल’ मुफ्त पानी परियोजना है अथवा बिल वसूली योजना ?? स्वामित्व पहल, सिर्फ स्वामित्व दिलाने वाली योजना है अथवा ग्रामीण संपत्ति कर वसूली की योजना ? उज्जवला के बाद रसोई गैस की कीमतें बेतहाशा बढ़ीं कि घटीं ? एक महीने में एक बार के नियम के बीच, एक ही महीने में तीन-तीन बार !! यह नैतिक है या अनैतिक ?
क्या यह झूठ है कि हाशिये के लोगों की बात करने वाले खुद हाशिये पर ढकेले जा रहे हैं ? सत्य यही है कि वक्त की हक़ीक़तों को जुबां पर लाने वाले जन व प्रकृति हितैषी पैरोकारों पर हमले बढ़े हैं। हमलों के प्रकार और रफ्तार को देखकर भले ही लग रहा हो कि कुछेक राजनेता, सत्ता पाकर तानाशाह हो गए हैं। हो सकता है कि इसे आप सत्ता का दोहरा चरित्र कहें। हो सकता है कि उतरता खोल किसी की आशा-निराशा बढ़ाए। हक़ीक़त यही है कि यह विरोधाभास किसी एक-दो देश या राजनेता का विरोधाभास नहीं है; यह पूंजी की खुली मण्डी का आभास है। जो भी तंत्र इस मण्डी की गिरफ्त में है, वहां आदर्शों का मोलभाव सट्टेबाजों की बोलियोें की तरह होता है। इस तरह की पूंजी मण्डी में उतर कर देश जन व प्रकृति हितों की हिफाजत कर पायेगा; यह दावा करना ही एक दुष्कर कार्य हो गया है। याद करने की बात है कि प्राचीन युगों में एकतंत्र, गणतंत्रों को चाट जाते थे। मगघ साम्राज्य ने बहुत से गणतंत्रों का सफाया कर दिया था। यह आज का विरोधाभास ही है कि डिजीटल संचार के खुल्लम-खुल्ला युग में भी दुनिया की महाशक्तियां, दूसरे लोकतंत्रों को चाट जाने की साजिश को गुप-चुप अंजाम देने में खूब सफल हो रही हैं।\
चिंता कीजिए कि भारत इस मण्डी की गिरफ्त में आ चुका है। अक्षम्य अपराध यह है कि अदृश्य आर्थिक साम्राज्यवाद के दृश्य हो जाने के बावजूद हम इसके खतरों की लगातार अनदेखी कर रहे हैं। चाहिए तो यह कि खतरों को सतह पर आते देख, सत्ता, जनता के साथ मिलकर उनका समाधान तलाशें। किंतु हो यह रहा है कि बजाय इसके, सत्ता खतरों के प्रति आगाह करने वालों को ही अप्रासंगिक बनाने में लग गई है। हमारे राजनेता भूल गये हैं कि सत्ता का व्यवहार… सत्ता के आत्मविश्वास का नाप हुआ करता है। जब कभी किसी अनुत्तरदायी सत्ता को लगता है कि यदि उसका भेद खुल गया, तो वह टिक नहीं पायेगी, तो वह दमन, षडयंत्र व आतंक का सहारा लिया करती है। क्या आजकल यह कुछ ज्यादा ही नहीं हो रहा ?
आज हम एक ऐसे राजनैतिक समय में है कि जब जनमत चाहे कुछ भी हो, लोककल्याण चाहे किसी में हो, सत्ता वही करेगी, जो उसे चलाने वाले आर्थिक आकाओं द्वारा निर्देशित किया जायेगा। सत्ता के कदम चाहे आगे चलकर अराजक सिद्ध हों या देश की लुट के प्रवेश द्वार… सत्ता को कोई परवाह नहीं है। विरोध होने पर वह थोङा समय ठहर चाहे जो जाये… कुछ काल बाद रूप बदलकर वह उसे फिर लागू करने की जिद् नहीं छोङती; जैसे उसने किसी को ऐसा करने का वादा कर दिया हो। भारतीय संस्कार के विपरीत यह व्यवहार आज सर्वव्यापी है। क्या यह आजादी के मंतव्य और संविधान के लोकतांत्रिक निर्देशों को सात समंदरों की लहरों मे बहा देने जैसा नहीं है ?
आकलन करने वाले यह भी कह सकते हैं कि वर्तमान समय में निवेश, विनिवेश और राजस्व की सत्ता भूख इतनी ज्यादा है कि इनके पास, आर्थिक साम्राज्यवाद के खतरों के प्रति सावधान होने का समय ही नहीं है। सत्ताशीन ठीक कह रहे हैं कि व्यापार करना, सरकार का काम नहीं है। किंतु वह यह नहीं कह रहे कि रोटी, पानी, पढ़ाई, दवाई, रोज़गार, परिवहन और ऊर्जा जैसे जीवन जीने की बुनियादी ज़रूरतों को लोगों की जेब के मुताबिक उपलब्ध्ता को बाधा रहित करना सरकार का काम है। वह इसका विश्लेषण प्रचारित नहीं कर रहे कि बुनियादी ज़रूरत के ढांचागत क्षेत्रों में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के प्रवेश से भ्रष्टाचार तथा छोटी जेब वालों की बाधायें बढ़ी हैं अथवा घटी हैं ? इस कारण पर्यावरण का विकास हुआ है अथवा ह्यस ? बावजूद इस सच के आदर्श यही है कि ठीकरा सिर्फ आर्थिक साम्राज्यवाद की साजिशों के सिर फोङकर नहीं बचा जा सकता। कारण और भी हैं।
समूची राजनीति पर सवाल
एक व्यक्ति की राजनीति के विरोधाभासों से इतर भारत के पूरे राजनैतिक परिदृश्य पर निगाह डालिए। दल कोई भी हो, लोगों की निगाह में अभी तो समूची राजनीति का ही चरित्र संदिग्घ है। इसी राजनैतिक चरित्र के चलते कभी दंगे को आरोपियों की सूची में एक साल के बच्चे का नाम दर्ज करने की भी घटना संभव हुई। एक तरफ संविधान के रखवालों के प्रति यह अविश्वास है, तो दूसरी ओर दंगे के दागियों को सम्मानित करना, सत्ता का नया चरित्र बनकर उभरा है। एक रुपया तनख्वाह लेने वाली मुख्यमंत्री की संपत्ति का पांच साल में बढकर 33 गुना हो जाने को विश्वासघात की किस श्रेणी में रखें ? चित्र सिर्फ ये नहीं हैं, भारतीय राजनैतिक चित्र-प्रदर्शनी ऐसे चित्रों से भरी पङी है। संविधान के प्रति दृढ आस्था का यह लोप हतप्रभ भी करता है और दुखी भी।
लोकतंत्र में नागरिकों की उम्मीदें जनसेवकों व जनप्रतिनिधियों पर टिकी होती हैं। प्रधानमंत्री अपने को भले ही प्रधान सेवक कहते हों, लेकिन हकीकत यही है कि हमारे जनसेवकों व जनप्रतिनिधियो ने जनजीवन से कटकर अपना एक ऐसा अलग रौबदाब व दायरा बना लिया है कि जैसे वे औरों की तरह के हांड-मास के न होकर कुछ और हों। इसके लिए वे प्रचार का हर हथकण्डा अपना रहे हैं। दूसरी तरफ, प्रचार और विज्ञापन की नई संचार संस्कृति ने हमारे जनप्रतिनिधियों जमीनी हकीकत व संवाद से काट दिया है। सत्ता के प्रति लोकास्था शून्य होने की यह एक बङी वजह है। मतदान प्रतिशत गवाह है कि जनता का एक वर्ग अभी भी सत्ता के प्रति ””कोउ नृप होए, हमैं का हानि” का उदासीन भाव ग्रहण किए हुए है। किसी भी लोकतंत्र की जीवंतता के लिए इससे अधिक खतरनाक बात कोई और नहीं हो सकती।
हमें याद दिलाना होगा कि संस्था चाहे राजनैतिक हो या कोई और… संविधान, सत्ता के आचरण व शक्तियों के निर्धारण करने का शस्त्र हुआ करता है। जो राष्ट्र जितना प्रगतिशील होता है, उसका संविधान भी उतना ही प्रगतिशील होता है। उसका रंग-रूप भी तद्नुसार बदलता रहता है। क्या हम भारत के संविधान को प्रगतिशील की श्रेणी में रख सकते हैं ? भारत का संविधान, आज भी ब्रितानी हुकूमत की प्रतिच्छाया क्यों लगता है ?? हमारे संविधान की यह दुर्दशा क्यों है ? यह विचारणीय प्रश्न है।
दरअसल, भारतीय लोकतंत्र आज ऐसे विचित्र दौर से गुजर रहा है, जब यहां लगभग और हर क्षेत्र में तो विशेष शिक्षण-प्रशिक्षण-योग्यता की जरूरत है, राजनीति में प्रवेश के लिए किसी प्रकार की शिक्षा-दीक्षा, योग्यता, विचारधारा अथवा अनुशासन की जरूरत नहीं रह गई है। भारतीय राजनीति के पतन की इससे अधिक पराकाष्ठा और क्या हो सकती है कि हमारे माननीय/माननीया जिस संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं; जो विधानसभा/संसद विधान के निर्माण के लिए उत्तरदायी होती है, उनके विधायक/सांसद ही कभी संविधान पढने की जरूरत नहीं समझते। और तो और वे जिस पार्टी के सदस्य होते हैं, जिन आदर्शों या व्यक्तित्वों का गुणगान करते नहीं थकते, ज्यादातर उनके विचारों या लिखे-पढे से ही परिचित नहीं होते। इसीलिए हमारे राजनेता व राजनैतिक कार्यकर्ता न तो संविधान की पालना के प्रति और ना ही अपने दलों के प्रेरकों के संदेशों के अनुकरण में कोई रुचि रखते हैं। समझ सकते हैं कि क्या कारण हैं कि पार्टियां भिन्न होने के बावजूद हम कार्यकर्ताओं व राजनेताओं के चरित्र में बहुत भिन्नता नहीं पाते।
व्यापक दुष्प्रभाव के दौर में हम
जे पी मूवमेंट हो, अन्ना आंदोलन, शाहीन बाग या फिर किसान आंदोलन… चेतना तो लौट-लौटकर दस्तक देती ही है। तीनो विवादित कृषि क़ानूनों की जड़ें बहुत लंबी हैं। इनके खिलाफ जारी किसान आंदोलन, असल में वैश्विक महाशक्तियों द्वारा भारत को अपने आर्थिक साम्राज्यवाद की गिरफ्त में ले लेने की लालसा के विरुद्ध उठा धुंआ ही है। यदि हम इसके भीतर की आग से आलोकित हुए होते तो बङे वैचारिक परिवर्तन का सबब बन गया होता। इसके निहितार्थ इतने सीमित होकर न रह जाते, जितने अभी हैं। सरकार और बाज़ार अनुशासन को भुला चुके हैं। जनता भी विषय के पक्ष-विपक्ष में होने की बजाय, व्यक्ति अथवा दलों के दल-दल में खडे़ होकर घटनाक्रमों का पक्ष-विपक्ष तय कर रही है। ये लक्षण हैं कि हम कलमजीवी ही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर प्रधान, पंच और गांव के आखिरी आदमी तक राजनीति के चारित्रिक गिरावट के दुष्प्रभाव की चपेट में हैं। यही वजह है कि इस दौर में आचार संहिताएं टूट रही हों; सिर्फ इतना नहीं; बल्कि आचार सहिताओं को बेमतलब मान लिया गया है।
जे पी ने इस बारे में कहा था – ”अज्ञात युगों से ऐसे राजनीतिज्ञ होते चले आयें हैं, जिन्होने यह प्रचारित किया है कि राजनीति में आचार नाम की कोई चीज नहीं है। पुराने युगों में यह अनैतिकवाद… राजनीति का यह खेल करने वाले, फिर भी एक छोटे से वर्ग से बाहर अपना दुष्प्रभाव नहीं फैला सके थे। अधिसंख्य लोग राज्य के नेताओं और मंत्रियों के आचरणों से दूषित होने से बचे रहते थे। परंतु सर्वाधिकारवाद का उदय हो जाने से यह अनैतिकतावाद विस्तार के साथ लागू होने लगा है। यह ऐसा सर्वाधिकारवाद है, जिसके भीतर नाजीवाद-फासीवाद और स्तालिनवाद सभी शामिल है। आज समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसकी चपेट में आ गया है।”
हालांकि, भारत अभी आर्थिक विषमता और असंतुलन ऐसे चरम पर नहीं पहुंचे हैं कि समझ और समझौते के सभी द्वार बंद हो गये हों। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समाज और सत्ता के बीच जो समझ और समझौता विकसित होता दिख रहा है, उसकी नींव भी अनैतिकता की नींव पर ही टिकी हैं – ”तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हे खैरात दूंगा।” इससे बुरा और क्या हो सकता है कि कमोबेश यही रवैया, लोकतंत्र के चारों स्तम्भों का एक-दूसरे के लिए होता जा रहा है।
भारत जैसे लोकतंत्र में चुनाव का मतलब बीते पांच वर्षों के कार्यों के आकलन तथा अगले पांच वर्षों के सपने को सामने रखकर निर्णय करना होना चाहिए। किंतु उत्त्र प्रदेश के एक विधानसभा चुनाव में एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने इसे युद्ध की संज्ञा देते हुए कहा था – ’’प्रेम और युद्ध की कोई आचार संहिता नहीं होती।’’ नजरिया सचमुच इस स्तर तक गिर गया है। असम, पश्चिम बंगाल के चुनाव प्रचार का आकलन कीजिए।
जनप्रतिनिधि बनने का मतलब जनप्रतिनिधित्व नहीं, राजभोग समझ लिया गया है। जनता भी वोट का बटन दबाते वक्त यदि तमाम नैतिकताओं व उत्तरदायित्वों को ताक पर रखकर जाति, धर्म और निजी लोभ-लालच के दायरे को प्राथमिकता पर रखती है। भले ही हमारी जेबों में छेद बढ़ते जा रहे हों; हम अपना वोट देने के लिए सांप्रदायिक कुर्सी का ही चुनाव कर रहे हैं। उम्मीदवार से ज्यादा अक्सर पार्टियां ही प्राथमिक हो गईं हैं। इस नजरिए का ही नतीजा है कि कितनी ही भौतिक, आर्थिक व अध्यात्मिक अनैतिकताओं हों; हमने मान लिया है कि इतना तो चलता है जी। हमारे इस बदले हुए नज़रिए का ही परिणाम है कि आज सत्ता अनुशासन के सारी आचार संहितायें नष्ट करने में नेताओं को कोई संकोच नहीं है। यह बात कङवी जरूर है; लेकिन हम अपने जेहन में झांककर देखें कि क्या आज का सच यही नहीं है ?
इतिहास गवाह है कि जब-जब सत्तायें गिरावट के ऐसे दौर में पहुंची हैं, हमेशा वैचारिक शक्तियों ने ही डोर संभालकर सत्ता की पतंग को अनुशासित करने का उत्तरदायित्व निभाया है। इसके लिए वह दंडित, प्रताङित व निर्वासित तक किया जाता रहा है। दलाईलामा, नेल्सन मंडेला व आंग सू ची से लेकर दुनिया के कितने ही उदाहरण अंगुलियों पर गिनाये जा सकते हैं। अतीत में सत्ता को अनुशासित करने की भूमिका में कभी गुरु बृहस्पति और शुक्राचार्य का गुरुभाव, कभी भीष्म का राजधर्म, कभी अयोध्या का लोकानुशासन, कभी कौटिल्य का दुर्भेद राजकवच, कभी माक्र्स-एंगेल्स का कम्युनिस्ट पार्टी घोषणापत्र…. तो कभी गांधी-विनोबा का राजनीतिक नैतिकतावाद दिखाई देता रहा है। आजाद भारत में यही भूमिका राममनोहर लोहिया के मुखर समाजवादी विचारों और जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने निभाई।
स्वानुशासन, तभी सुशासन
‘राजसत्ता का अनुशासन’ नामक एक पुस्तक ने ठीक ही लिखा है कि नैतिक गिरावट के इस दौर में पुनः उत्कर्ष का रास्ता अध्यात्म और भौतिक… दोनो माध्यम से हासिल किया जा सकता है। किंतु यहां न भूलने लायक व्यवहार यही है कि सत्ता को अनुशासित तो वही कर सकता है, जो कि खुद अनुशासित हो; स्वानुशासित यानी अपने ऊपर खुद के राज की परिभाषा पर जांचा-परखा खरा स्वराजी। इस हिसाब से लोकतंत्र के चारों स्तंभों को अनुशासित करने वालों को स्वानुशासित तो होना ही पडे़गा। क्या हम-आप हैं ?
यदि हैं तो आइए, सक्रिय हों कि सतत् सामुदायिक संवाद के पारदर्शी मंच फिर से जीवित हों। इसके लिए नतीजे की परवाह किए बगैर वे जुटें, जिनके प्रति अभी भी लोकास्था जीवित है; जिनसे छले जाने का भय किसी को नहीं है। बगैर झंडा-बैनर के हर गांव-कस्बे में ऐसे व्यक्तित्व आज भी मौजूद है; जो लोक को आगे रखते हुए स्वयं पीछे रहकर दायित्व निर्वाह करते हैं। गङबङ वहां होती है, जहां व्यक्ति या बैनर आगे और लोक तथा लक्ष्य पीछे छूट जाता है। राष्ट्रभक्त महाजनों को चाहिए कि वे ऐसे व्यक्तित्वों की तलाश कर उनके भामाशाह बन जायें।
रचना और सत्याग्रह साथ-साथ
जिस दिन ऐसे व्यक्तित्व छोटे-छोटे समुदायों को उनके भीतर की विचार और व्यवहार की नैतिकता से भर देंगे, उस दिन भारत पुनः उत्कर्ष की राह पकङ लेगा। तब तक देर न हो जाये, देश में दौलत पैदा करने वाले संसाधन व सत्ता मंे सुस्थिरता पैदा करने वाली लोकास्था पूरी तरह लुट न जाये, इसके लिए बुद्धिजीवी वर्ग की कलम, कैमरा, कम्पयूटर व वाणी को औजार बनकर सत्याग्रह करने रहना है। ”जब तोप मुकाबिल हो, तो कलम संभालो” या कहिए कि जब तोप मुकाबिल हो, तो कलम-कम्प्यूटर-कैमरे में ढेर सारे रचना-बीज भर लो और जरूरत पङने पर सत्याग्रह की ढेर सारी बारूद। रचना और सत्याग्रह साथ-साथ चलें। यही अतीत की सीख भी है और सुंदर भविष्य की नींव भी।
भूले नहीं कि आज नहीं तो कल यह होगा ही। क्यों होगा ? क्योंकि बाज़ारों और सरकारों के गै़र-अनुशासित रवैयों के प्रति बेचैनी कमोबेश पूरी दुनिया में हैं। ये बेचैनियां अभी भले ही अलग-अलग दिख रही हों; आने वाले कल में एकजुट होगी ही। यह तय है। यह भी तय है कि यह एकजुटता एक दिन रंग भी लायेगी। अब आपको-हमें तय सिर्फ यह करना है कि इस रंग को आते-जाते देखते रहें या रंग लाने में अपनी भूमिका तलाश कर उसकी पूर्ति में जुट जायें। आकलन यह भी करना है कि अंधेरा क्यों हुआ ? रोशनी किधर से आयेगी ? दीया… दियासलाई कौन बनेगा ? तेल कौन और बाती कौन ??
अरुण तिवारी
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