Saturday, November 23, 2024
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सिखों और हिंदुओं को बाँटने की वो साजिश जो अंग्रेजों ने रची

आप जो यह चित्र देख रहे हैं,वो सन 1908 में लिया गया अमृतसर के हरमंदिर साहिब का है। वो हरमंदिर साहिब जिसे ईसाइयों व वामपंथियों ने गोल्डन टेंपल कहना शुरू किया। और ये नाम इतिहास में इस तरह से अंकित कर दिया गया है कि अब बिरलै ही कोई हरमंदिर साहिब कहता है,अधिकांश लोग तो पवित्र मंदिर को “गोल्डन टेम्पल” ही कहते हैं।

अब यह चित्र देखकर आपके मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यहां हिन्दू सन्यासी ध्यान कैसे कर रहे हैं? क्योंकि स्थान तो ये सिखों का है! चलिए तनिक इतिहास के कुछ पन्ने पलटते हैं और इस प्रश्न का जवाब खोजते हैं। साथ ही ये भी जानते हैं कि कैसे षड्यंत्र रचकर,दो धर्मो के सांझी संस्कृति के बीच में खाई पैदा कर दी गई।

सिख धर्म के गुरु के नाम*
पहले गुरु गुरुनानक देव थे!
दूसरे गुरु हुए गुरु अंगददेव!
तीसरे गुरु हुए गुरु अमरदास!
चौथे गुरु हुए गुरु रामदास!
पंचम गुरु थे गुरु अर्जनदेव!

छठवें गुरु हुए गुरु हरगोविंद!
सातवें गुरु थे गुरु हर राय!
आठवें गुरु हुए गुरु हरकिशन!
नौवें गुरु थे गुरु तेगबहादुर!
दशवें गुरु हुए गुरु गोविंद सिंह!

अब आपने देखा कि सभी गुरुओं के नाम में राम, अर्जुन, गोविंद (कृष्ण), हर(महादेव) हैं। जो कि सिख एवं सनातन धर्म के जुड़ाव को दर्शाती है। फिर दोनों धर्म कैसे अलग हुए। फिर जब क्रूर मुगल शासक औरँगजेब ने कश्मीर के पंडितों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा,तो कश्मीरी पंडितों ने गुरू तेगबहादुर जी के पास जाकर मदद के लिए गुहार लगाई। तब गुरु तेगबहादुर जी ने कहा कि जाओ और औरंगजेब से कहना यदि हमारे गुरु तेगबहादुर जी इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेते हैं,तो हम भी अपना धर्म त्यागकर इस्लाम धर्म अपना लेंगे।

यह बात कश्मीरी पंडितों ने औरंगजेब तक पहुंचा दी। तब क्रूर औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर जी को दिल्ली बुलाकर मुसलमान बनने के लिए दवाब डाला। बहुत यातनाएं दी,उनके सामने उनके शिष्यों को मार दिया लेकिन गुरु जी ने इस्लाम धर्म अपनाने से अस्वीकार कर दिया। और ऐसा करने पर उन्हें यातना देकर शहीद कर दिया गया। अब प्रश्न यह है कि यदि सिक्ख, हिन्दू से अलग हैं,तो फिर कश्मीरी पंडितों के लिए गुरु तेगबहादुर ने अपने प्राण न्यौछावर क्यों कर दिए ? गुरु गोविन्द सिंह का प्रिय शिष्य बंदा बहादुर (लक्ष्मण दास) भारद्वाज गौत्र का ब्राम्हण था,जिसने गुरु गोविन्द सिंह जी के सानिध्य में आकर सिख धर्म अपनाया और इसके बाद पंजाब में मुगलों की सेना को नाकों चने चबवा दिए थे! हमें पढ़ने मिलता है कि कैसे कृष्णदत्त जैसे ब्राह्मण ने गुरु के सम्मान के लिए अपने सम्पूर्ण परिवार को कुर्बान कर दिया था। राजा रणजीत सिंह कांगड़ा की ज्वालामुखी देवी के भक्त थे,उन्होंने ही देवी मंदिर का पुर्ननिर्माण कराया था।इसके अलावा उन्होंने कई खंडित हो चुके हिन्दू मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया था। आज भी सिख धर्मावलंबी सनातन धर्म के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं।

अब प्रश्न यह उठता है कि सिक्ख कब,क्यों व कैसे हिन्दुओं से अलग कर दिए गए ?

शुरुआत हुई 1857 की क्रांति के आसपास, जब हिन्दू-सिक्ख एकता से डरे ईसाइयों (अंग्रेजों ) ने सांझी संस्कृति को तोड़ने की साज़िश रची! वर्ष 1875 में स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज का गठन किया, जिसका केंद्र तत्कालीन पंजाब का लाहौर था। जो सिक्खों का प्रमुख क्षेत्र था। वो स्वामी दयानंद थे जिन्होंने सबसे पहले स्वराज्य की अवधारणा दी। जब देश का नाम हिंदुस्तान तो ईसाइयों (अंग्रेजों) का राज क्यों? स्वामी दयानंद के इन विचारों से पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों की बाढ़ आ गयी। बढ़-चढ़कर युवाओं ने आंदोलन में भाग लिया। लाला हरदयाल, लाला लाजपत राय, सोहन सिंह, भगतसिंह के चाचा अजीत सिंह जैसे क्रांन्तिकारी नेता आर्य समाजी थे। अतः इस सबसे बौखलाए ईसाई मिशनरियों(अंग्रेजों) ने अभियान चलाया कि सिक्ख व हिन्दू अलग हैं।ताकि पंजाब में क्रांतिकारी आंदोलन को कमजोर किया जा सके। इसके लिए कुछ अंग्रेज़ समर्थक सिक्खों ने एक साजिश के तहत अभियान चलाया कि सिक्ख हिन्दू नहीं हैं और अलग धर्म का दर्जा देने की मांग उठने लगी (जैसे हाल ही में कर्नाटक के कुछ ईसाई बने लिंगायत समुदाय के लोगों ने हिन्दू धर्म से अलग करने की मांग उठाई थी)।

ईसाई मिशनरियों (अंग्रेजों) को सिक्ख एवं हिंदुओं को अलग करने का मौका मिल चुका था। अंग्रेज़ों ने 1922 में गुरुद्वारा एक्ट पारित कर सिक्खों को हिन्दूओं से अलग कर उन्हें अलग धर्म का घोषित कर दिया। आजादी के बाद भी भारत के विखंडन की जिम्मेदार कांग्रेस पार्टी ने इसे बनाये रखा और इंदिरा गांधी के दौर में तो हिन्दू और सिक्खों के बीच गहरी खाई खोद दी गई। जबकि सच्चाई ये है कि हिन्दू एवं सिक्खों का खून एक है! आज भी पंजाब में ऐसे परिवार हैं,जिनमें बड़ा पुत्र केसधारी सिख है और अन्य मोने अर्थात हिन्दू। गुरु गोविन्द सिंह ने जब 1699 में खालसा (पवित्र) पंथ का गठन किया था और कहा था कि मैं चारों वर्ण के लोगों को सिंह बना दूँगा! “देश, धर्म व संस्कृति की रक्षा प्राण देकर ही नहीं,प्राण लेकर भी की जाती है।” सिक्खों के मूल दर्शन का प्रतीक इक ओमकार,सतनाम,श्री वाहेगुरु। अर्थात् परमात्मा एक ही और उसका नाम ॐ है,यही एक सत्य नाम है।परमात्मा ही सब गुरुओं का गुरु है। यही सनातन धर्म का भी सिद्धांत है।

टिप्पणी : आपने देखा कि इतनी सारी समानताएं होते हुए भी कैसे अंग्रेज़ों द्वारा षड्यंत्र करके सिक्खों एवं हिंदुओ को अलग कर दिया गया ताकि भारतभूमि पर ईसाइयों का कब्ज़ा हो सके। और इसमें साथ दिया था कुछ विश्वासघाती लोगों ने। इतिहास पुनः खुद को दोहराता है और आज फिर वैसा ही षड्यंत्र करके हिन्दू एवं सिक्खों के बीच दरार पैदा की जा रही है,बस फर्क इतना है कि इस बार ईसाइयों के साथ इस्लामिक कट्टरपंथी भी सिक्खों को बरगलाने में लग गए हैं।यही कारण है कि हमें योगराज सिंह जैसे दलाल प्रवृत्ति के लोगों के बयान सुनने को मिल रहे हैं। जिन्हें न धर्म से कोई मतलब है न संस्कृति से,वो तो आतंकवाद समर्थक सोच का प्रोपेगैंडा करने में लगे हैं। किंतु ये हमारा दायित्व है कि कुछ विकृत मानसिकता के लोगों के जाल में न फंसे साथ ही सिक्ख एवं सनातन धर्म की सांझी संस्कृति पर आंच न आने दें। वरना कुछ वर्षों के बाद वामपंथी एवं इस्लाम प्रेमी लेखक 1984 सिक्ख विरोधी दंगो को परिपेक्ष्य में रखकर ये भी लिख देंगे कि वो हिन्दू ही थे जिन्होंने सिक्खों पर अत्याचार किया था। जबकि सच्चाई तो कुछ और ही,जबकि सच्चाई तो कुछ और ही है। जिसपर किसी अन्य दिन चर्चा करेंगे। आज इसी बात पर लेख समाप्त करते हैं कि हमें ये कभी नहीं भूलना है कि “हमारी एकता ही हमारी ताकत है”।

साभार – https://t.me/PrashasakSamitiOfficial से

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