Saturday, November 23, 2024
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डॉ. एस जयशंकर के नेतृत्व में भारतीय विदेश नीति का स्वर्णिम युग

19-20 नवंबर, 2022 को भारत में तीसरे दो दिवसीय “नो मनी फॉर टेरर” के मंत्रिपरिषदीय सम्मलेन हुआ जिसमें 75 देशों के 450 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। गृहमंत्री अमित शाह ने अपने भाषण में कहा की भारत ‘नो मनी फॉर टेरर’ संस्था का स्थायी सचिवालय स्थापित करने के लिए भी तैयार है। विदेश मंत्री डॉ जयशंकर ने आतंकवाद से निपटने के लिए “अविभेदित और अविभाजित” दृष्टिकोण अपनाने की सलाह देते हुए राष्ट्रों से राजनीतिक विभाजन से ऊपर उठने का आग्रह किया। उन्होंने कुछ देशों द्वारा आतंकवाद को राज्य-शिल्प (स्टेट क्राफ्ट) के रूप में पोषित करने का आरोप भी लगाया। ऐसे में भारत ने दुनिया के सामने आतंकवाद निरोधी लड़ाई में विश्व का अगुआ बनने की दिशा में एक और निर्णायक कदम बढ़ा लिया है। भारत के ऊर्जावान एवं मुखर विदेश नीति ने सबका ध्यान आकर्षित किया है। आइये विदेश मंत्री डॉक्टर जयशंकर के विचारों के आलोक में भारत की बदलती विदेश नीति का अवलोकन करते हैं।

75 वर्षों का सिंहावलोकन:

अपने 75 वर्षों का सिंहावलोकन करें तो हम यह पाते हैं कि यह पूरी यात्रा इतनी आसान भी नहीं रही है। एक लंबी इस्लामी-ब्रिटिश परतंत्रता के बाद जब देश आजाद हुआ तो पूरी दुनिया ने इसके विफल होने की भविष्यवाणियां की थी। भारत ने अपने जिजीविषा एवं संघर्ष के बल पर आज एक ऐसा मुकाम हासिल किया है कि संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा काउंसिल का स्थाई सदस्य ना होते हुए भी आज दुनिया के सभी सभी स्थाई एवं अस्थाई सदस्य भारत के विचारों अथवा पक्ष को जानने के लिए लालायित रहते हैं।

वैश्विक स्तर पर यदि हम अपने 75 वर्षों की विदेश नीति पर विचार करें तो पाते हैं कि दुनिया के अन्य देशों के द्वारा खड़े किए गए समस्याएं वास्तव में भारत के लिए मुख्य बाधाएं नहीं थी अपितु भारत के द्वारा स्वयं से बनाई गई कई वैचारिक हठधर्मितायें थी जिसके कारण भारत अपने महत्व के साथ विश्व मंच पर नहीं आ पा रहा था।

9 अक्टूबर 2022 को भारतीय विदेश सेवा दिवस के दिन विदेश मंत्री डॉक्टर जयशंकर ने अपने ऐतिहासिक उद्बोधन में कहा कि आने वाले समय में भारतीय राजनयिक भारत के वैश्विक पहचान एवं हितों को और अधिक मजबूती से विश्व मंच पर रखते हुए दिखेंगे। ऐसे भारतीय राजनयिक सन 2047 तक भारत के बड़े लक्ष्यों की पूर्ति करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेंगे। इस वक्तव्य से आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि कितने जल्दी एक भारत ने सॉफ्ट स्टेट की पहचान को छोड़कर एक मजबूत एवं स्पष्ट हितों वाले देश के रूप में अपनी पहचान को स्थापित कर लिया है।

भारत के विदेश मंत्री एवं वर्तमान में भारत की वर्तमान विदेश नीति के नायक श्री एस. जयशंकर की पुस्तक “द इंडिया वे- स्ट्रैटेजीज़ फॉर एन अनसरटेन वर्ल्ड” भारत के विदेश नीति की एक बड़ी ही सुंदर यात्रा कराती है। इस पुस्तक में उन्होंने भारत के वर्तमान एवं भविष्य नीतियों के विमर्श के साथ भारत की कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक नीतियों पर बने रहने की भी सलाह देते हुए मिलते हैं।

डॉ. एस जयशंकर इतिहास की तीन सबसे बड़ी भारतीय भूलों का जिक्र करते हुए पहला, विभाजन की विभीषिका को, दूसरा देरी से किए गए आर्थिक सुधार एवं तीसरा देरी से किए गए परमाणु कार्यक्रम का क्रियान्वयन के बारे में बताते हैं। डॉ. एस जयशंकर भारत के राजनयिक यात्रा को अनुभवों के द्वारा समटते हुए बताते हैं की कैसे भारत अतीत में किए गए गलतियों का सुधार वर्तमान में करते हुए इसके दुष्प्रभावों को भविष्य में लगभग शून्य कर सकते हैं। आजादी के बाद भारत की विदेश नीति के विकास को डॉ. जयशंकर 6 मुख्य हिस्सों में बांटते हैं जो उस समय तात्कालिक रणनीतिक प्रक्रिया के दौरान विकसित हुआ।

भारत की विदेश नीति का पहला चरण 1947 में देश के आजादी के साथ प्रारंभ होकर 1962 तक चलता है। डॉ. जयशंकर इसे आशापूर्ण गुटनिरपेक्षता का दौर मानते हैं जिसमें कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जन्मे हुए शीत युद्ध के कालखंड मैं दो शक्तिशाली देशों के बीच बड़ी दुनिया में भारत के सामने मुख्य चुनौती के रूप में उसकी संप्रभुता की रक्षा, अपने अर्थ तंत्र को मजबूत करना, एक राष्ट्र के रूप में अपने गरिमा को बनाए रखना तथा एशिया व अफ्रीका महाद्वीप के नए स्वतंत्र हुए देशों में एक अगुआ की भूमिका मैं स्वयं को सार्थक सिद्ध करने के रूप में चार महत्वपूर्ण बिंदु थे। 1962 के भारत चीन युद्ध के साथ ही गुटनिरपेक्षता के इस आशावादी सिद्धांत का एक निराशाजनक अंत हुआ।

सन 1962 से 1971 तक भारत की विदेश नीति का दूसरा दौर चला जिसे हम यथार्थवाद एवं सुधारों का दौर कह सकते हैं। 1964 में भारत ने की रक्षा एग्रीमेंट अमेरिका के साथ साइन किया। 1962 के चीन आक्रमण ने भारत की राजनीति को देश की सुरक्षा राजनीति एवं आर्थिक संसाधनों पर विशेष रूप से बल देने वाली नीतियों की तरफ मोड़ा। तमाम राजनैतिक स्थिरता एवं क्षीण अर्थव्यवस्था के साथ जैसे-जैसे भारत ने इस दौर को पार किया।

इसके बाद तीसरा दौर प्रारंभ होता है 1971 से जो 20 वर्ष के लंबे कालखंड यानी 1991 तक चला। इस दौर में भारत का प्रारंभिक ध्यान अपने क्षेत्रीय संसाधनों के सहेजने पर था। इसका प्रारंभ पाकिस्तान के साथ युद्ध एवं बांग्लादेश के निर्माण के साथ हुआ परंतु दुर्भाग्य से इसका अंत श्रीलंका में भारतीय शांति सेना की कार्यवाही के एक दुखद अध्याय के साथ हुआ। यह वही दौर है जिसमें चीन पाकिस्तान एवं अमेरिका के गठजोड़ ने पूरी क्षेत्रीय स्थिरता को प्रभावित किया एवं भारत की संप्रभुता पर भी खतरा उत्पन्न हुआ ऐसे में भारत को सोवियत रूस के पक्ष में जाकर अपने समीकरणों को साधना पड़ा।

परंतु सोवियत संघ के विघटन तथा 1991 में पैदा हुए आर्थिक संकट के साथ ही इस तीसरे दौर का अंत हुआ एवं भारत को अपनी विदेश नीति के साथ-साथ घरेलू नीतियों को भी गंभीरता से निरीक्षण करने एवं सार्थक सुधार करने की आवश्यकता महसूस हुई। देश की विदेश नीति का चौथा दौर 1991 से लेकर 1999 तक चला जिसमें रणनीतिक एवं कूटनीतिक नीतियों के साथ-साथ अब देश को आगे बढ़ने के लिए आर्थिक नीतियों का भी समावेशन करना पड़ा।

यह वह दौर था जो शीत युद्ध खत्म होने के बाद पूरी तरह से एक ध्रुवीय या अमेरिका आधारित बन गया था। जिसमें भारत ने अपनी विदेश नीति को न केवल परिवर्तित किया बल्कि इसमें एक क्रांतिकारी परिवर्तन ले आया। इस दौर में भारत ने आर्थिक एवं कूटनीतिक क्षेत्रों में अपने आप को बहुत ही तेजी से स्थापित किया, इसी क्रम में अमेरिका एवं इजरायल के साथ भारत के रिश्ते बहुत तेजी से सुधरे। अमेरिका के साथ अपने संबंधों को सुधारने के क्रम में बड़ा खतरा मोल लेते हुए 1998 में भारत ने अपना दूसरा नाभिकीय परीक्षण किया। भारत को अमेरिका की इच्छा के विरुद्ध नाभिकीय परीक्षण करने का आत्मविश्वास तेजी से बढ़ती हुई देश की अर्थव्यवस्था के कारण मिला। इन 9 वर्षों में भारत की सुदृढ़ होते आर्थिक स्थिति के साथ-साथ नाभिकीय परीक्षण एवं कारगिल युद्ध में पाकिस्तान को धूल चटाने के कारण वैश्विक स्तर पर भारत का महत्व तो बड़ा ही साथ ही साथ भारत को व्यवहार पर विदेश नीति के परिवर्तन का लाभ भी स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा।

इसके बाद पांचवा भेज 2000 से 2013 तक कुल 13 वर्षों तक चला। इस दौर में भारत अमेरिका एवं चीन के बीच में शक्तियों के संतुलन का एक बेहद अहम किरदार बनकर उभरा। इस दौर में भारत की प्रासंगिकता पूरे विश्व में बहुत तेजी से बढ़ी। 2005 में एक ओर भारत अमेरिका के नाभिकीय सौदे से भारत ने अमेरिका के साथ संबंधों को बेहतर किया तो दूसरी ओर वृक्ष के मंच पर रूस एवं उभरते चीन के साथ व्यापारिक एवं जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रों में उल्लेखनीय साझेदारी किया। यह भारत के लिए संभावनाओं का वह दौर था जिसमें भारत का प्रभाव वैश्विक स्तर पर बढ़ता रहा।

परंतु भारत के विदेश नीति में अभूतपूर्व परिवर्तन तो तब आना प्रारंभ हुआ जब छठा दौर प्रारंभ हुआ एवं केंद्र में सन 2014 में मोदी की सरकार बनी। यह दौर ऊर्जावान कूटनीति एवं शक्तिशाली निर्णयों का है। जयशंकर के मुताबिक यह स्वर्णिम दौर भारत के लिए क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रारंभिक दौर है।

वर्तमान में भारत की विदेश नीति पांच प्रमुख बिंदुओं पर कार्य कर रही है।

इसमें पहला मुख्य बिंदु है यथार्थवाद। 1972 में पाकिस्तान को धूल चटाने के बाद भी शिमला एग्रीमेंट करते हुए यह सोचना पाकिस्तान सुधर जाएगा, भारत के लिए यह एक बड़ी भूल साबित हुई। समय के साथ पाकिस्तान एक और अधिक खतरनाक पड़ोसी देश के रूप में सिद्ध हुआ जिसने कश्मीर के विवाद को और अधिक गहरा दिया। वर्तमान की विदेश नीति पूरी तरह से यथार्थवादी है पर इसका उदाहरण हमें यूक्रेन संकट के दौरान रूस के साथ कच्चे तेल की खरीद जैसे निर्णयों में देखने को मिलता है।

वर्तमान विदेश नीति का दूसरा प्रमुख बिंदु है अर्थव्यवस्था संचालित कूटनीति। यदि हम 1945 के दौर को देखे तो दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं जैसे अमेरिका, चीन, जापान, सोवियत संघ ने वैश्विक परिदृश्य को अपने राष्ट्रीय विकास में प्रयोग किया। भारत ने यद्यपि उस दौर का सही प्रयोग नहीं किया परंतु वर्तमान में भारत की विदेश नीति आर्थिक लाभ हो के द्वारा ही सर्वाधिक प्रभावित हो रही है। भारत ने संरक्षण वादी बाजार एवं संकुचित आयात पद्धति को त्याग कर एक समावेशी वैश्वीकरण को स्वीकार किया है।

इस नई विदेश नीति का तीसरा महत्वपूर्ण बिंदु है बहु ध्रुवीय वैश्विक क्रम को स्वीकार करना। भारत के विदेश नीति की सुंदरता एवं सफलता हु इस रूप में देख सकते हैं कि उसने विरोधी समूहों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए एक वैश्विक साम्य स्थापित किया है जैसे शंघाई कॉरपोरेशन एवं क्वाड, RIC एवं JAI, ईरान एवं सऊदी अरब, इसराइल एवं फिलिस्तीन।

भारत, इतिहास के बुद्धिजीविता के बोझ को छोड़कर संभावनाओं एवं विकास के नीतियों पर आगे बढ़ते हुए सर्व समावेशी विदेश नीति की ओर आगे बढ़ रहा है। भारतीय विदेश नीति का चौथा बिंदु उचित जोखिम है। भारत अब अपनी पहचान हाथी की जगह शेर के रूप में बना रहा है। इतिहास का विमर्श करने पर यह स्वयं सिद्ध हो जाता है कि कम जोखिम वाले विदेश नीतियों ने हमेशा ही कम लाभ दिया है। ऐसे में भारत जबकि वैश्विक विकास की सीढ़ी पर आगे बढ़ना है तो जोखिम भरे कदम उठाना आवश्यक हो जाता है। इसका उदाहरण हमें धारा 370 के हटाने तथा उड़ी एवं पुलवामा स्ट्राइक में स्पष्ट दिखाई देता है।

वर्तमान विदेश नीति का जो पांचवा एवं अंतिम बिंदु है वैश्विक परिस्थितियों के अनुसार निर्णय लेना। वैश्वीकरण के परिदृश्य में एक अच्छी विदेश नीति उसे मानी जाती है जिसमें संभावनाओं, प्रतिस्पर्धाओं, जोखिमों एवं प्रतिफल की वैश्विक स्तर पर अच्छी समझ हो। किसी भी देश द्वारा घरेलू स्तर पर किसी विदेश नीति को गढ़ना आसान हो सकता है परंतु वैश्विक समझ के अभाव में बनाई गई नीतियां उस देश के लिए खतरा बन सकती हैं। 1947 में कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना, शीत युद्ध के दौरान चीन एवं रूस के बीच की दूरियों को सही समय पर भांपने में गलती करना, अक्साई चीन एवं अरुणाचल के मुद्दे पर चीन के इरादों को ना समझ पाना, अमेरिका एवं चीन के लिए पाकिस्तान की आवश्यकता को गंभीरता से न लेना भारत के विदेश नीति कि वैश्विक परिपक्वता को दर्शाता है।

कुल मिलाकर देश की आजादी के बाद से भारत की विदेश नीति के एक लंबे कालखंड को हिचकिचाहट का वह दौर कह सकते हैं जिसमें भारत ने अपनी ऊर्जा एवं संभावनाओं को बहुत कमतर रखते हुए विश्व मंच पर उसे सही रूप में रखने में असमर्थ रही थी। ऐसी गलतियों के कारण ही आजादी के बाद वैश्विक पटल पर भारत के साथ एक पक्षपाती एवं अवास्तविक रवैया बरकरार रहा। 2014 के बाद भारत ने अपने विदेश नीति को मोदी जी के दूरदर्शी नेतृत्व के साथ ही क्रांतिकारी रूप से परिवर्तित किया है। भारत के लिए सौभाग्य की बात यह है कि हमारी विदेश नीति उस दौर में संवर्धित हो रही है जबकि कोविड-19, वैश्विक व्यापार में कई नए ध्रुवों के जन्म के साथ ही अमेरिका एवं चीन के आर्थिक विकास की धीमी गति के कारण एक नए वैश्विक क्रम के निर्माण की प्रक्रिया चल रही है।

बदलता हुआ सदी का वैश्विक क्रम:

अमेरिका के वैश्वीकरण से वापस राष्ट्रीयता की तरफ आकर्षित होना, चीन के उत्कर्ष, ब्रेक्जिट के कारण यूरोपीय संघ पर संकट, वैश्विक अर्थव्यवस्था के भीतर बड़े परिवर्तन के साथ ही रूस, तुर्की एवं ईरान के द्वारा अपने गौरवशाली अतीत की वापसी के जो प्रयास किए जा रहे हैं। इसी के साथ तेजी से बदलती दुनिया में तकनीकी, संचार एवं व्यापार ने विश्व की महाशक्तियों एवं छोटे देशों की नीतियों के निर्धारण में अपनी महत्वपूर्ण जगह बना लिया है। संयुक्त राष्ट्र एवं विश्व व्यापार संगठन इस बदलते परिदृश्य में धीरे-धीरे अप्रासंगिक भी सिद्ध हो रहे हैं। ऐसे में पूरे विश्व के देशों एवं उनके नीतियों को समझते हुए, चीन आदि देशों से प्रतिस्पर्धा करते हुए भारत द्वारा अपने हितों को साधना एक बेहद जटिल प्रक्रिया है। तेजी से बदलते इस वैश्विक परिदृश्य में भारत के साझेदारों मुद्दों एवं संबंधों का तेजी से बदलना भी सर्वथा प्रासंगिक है साथ ही हर मुद्दे पर देश के हितों की रक्षा को सुनिश्चित किया जा सके यह भी संभव नहीं है। तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य में तेजी से निर्णय लेने वाली कूटनीति ही सफल मानी जाएगी।

2014 के बाद भारत की विदेश नीति में जो कायाकल्प हुआ उसमें एक क्रांतिकारी परिवर्तन डॉ. जयशंकर के साथ आया है। वर्तमान की भारतीय विदेश नीति अपने उच्चतम सामर्थ्य, तीव्र महत्वाकांक्षाओं एवं जिम्मेदारी की श्रेष्ठ भावनाओं के साथ विश्व मंच पर डटी हुई है। भारत आज गुटनिरपेक्षता जैसे अप्रासंगिक हो चुके नीति से आगे बढ़ते हुए बड़ी एवं मध्यम शक्तियों के साथ अभूतपूर्व साझेदारी कर रहा है। वर्तमान भारतीय विदेश नीति शक्ति संपन्न देशों को खुश करने की वजह है अब आंख में आंख मिलाकर साझेदारी एवं बराबरी की बात करता नजर आ रहा है। ब्रिक्स, क्वाड, आईटूयूटू जैसे संगठनों में भारत की सक्रियता उसे एक ऐसा कूटनीतिक मिलन बिंदु बनाती है जहां से विश्व कल्याण की नीतियों को प्रश्रय मिल सकता है। भारत अपनी विदेश नीति के साथ-साथ अपने इरादों वादों पर खरा उतर रहा है।

सांस्कृतिक कूटनीति:

कोरोनावायरस के दौरान भारत ने जिस प्रकार से एक नेतृत्वकर्ता की भांति स्वयं को दुनिया के दवाघर के रूप में सिद्ध करते हुए 65 मिलियन डोज दुनिया के शक्तिमान देशों से लेकर छोटे एवं गरीब देशों तक पहुंचाया है उसने निश्चय ही भारत की नए मिजाज की विदेश नीति को वैश्विक स्वीकार्यता दे दी है। भारत ने कोविड-19 महामारी के दौरान 100 से भी अधिक देशों में मानवता के आधार पर जो सहायता ए भेजी हैं उसने पूरे विश्व को यह एहसास दिलाया है कि विश्व में शांति मानवता एवं अहिंसा के लिए यदि कोई नेतृत्व कर सकता है तो वह अकेला देश भारत है।

भारतीय विदेश नीति ने जिस प्रकार से आतंकवाद के विरुद्ध शून्य सहनशीलता का कदम उठाया है उसे दुनिया ने उड़ी, पुलवामा के प्रत्युत्तर के साथ आर्टिकल 370 के उन्मूलन में भी देखा है। वर्तमान भारतीय विदेश नीति ने प्रवासी भारतीयों के सुरक्षा एवं संरक्षण का मुद्दा दुनिया के देशों के सामने रखा है वह भी प्रशंसनीय है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दुनिया के जिस भी देश में जाते हैं वहां पर भारतीय प्रवासियों से अवश्य मिलते हैं। अफगानिस्तान एवं यूक्रेन से अपने नागरिकों को सुरक्षित निकालकर देश वापस लाना भारत की बदलती विदेश नीति का एक सशक्त हस्ताक्षर है। चीन के साथ डोकलाम तथा गलवान जैसे मुद्दों को जिस कुशलता से भारत ने हल किया है वह यह साबित करता है कि भारत अपनी क्षेत्रीय अस्मिता के साथ किसी भी प्रकार का छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करेगा।

भारत ने चीन को सीधा संदेश दे दिया है कि आवश्यकता पड़ने पर भारत चीन के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही करने से भी पीछे नहीं हटेगा। वर्तमान के यूक्रेन विवाद में भारत की वास्तविक वैश्विक शक्ति एवं महत्व निखर कर सामने आई है। भारत दुनिया का एक अकेला ऐसा देश है जिसे इस विवाद में सभी पक्षों द्वारा लामबंद करने का प्रयास किया गया। यूक्रेन विवाद ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत दुनिया में एक अकेला वैश्विक स्वर बनकर उभरा है एवं उसके हितों एवं आवाज को किसी के द्वारा दबाया नहीं जा सकता है। भारत ने अपनी रणनीतिक स्वायत्तता को बरकरार रखते हुए रूस तथा पश्चिम के बीच एक समन्वय स्थापित करते हुए अपने हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर यह संदेश दिया है कि भारत की विदेश नीति के लिए अब उसके अपने हित सबसे महत्वपूर्ण है।

भारत के साथ सबसे प्रसन्नता की बात यह है कि हमारा देश विश्व मंच पर उच्च मानव मूल्यों के साथ एक जिम्मेदार महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। विदेश नीति के वर्तमान स्वर्णिम दौर हेतु मोदी-जयशंकर के मणिकांचन जुगलबंदी को धन्यवाद कहना चाहिए।

(लेखक स्तंभकार हैं व आईआईएम कलकत्ता एलुमनी में तकनीकी प्रबंधन सलाहकार हैं)

संपर्क : 875009172

 

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