यह आम कहावत है कि बनिया अर्थात् व्यापार करने वाला व्यक्ति कभी किसी का नहीं होता और यदि इस को कुछ मुफ्त में मिले और उस सामान को रखने के लिए उसके पास स्थान भी न हो तो भी वह उसे छोड़ता नहीं, इस के स्वार्थी व्यवहार के कारण इस से उत्तम कोई उदाहरण नहीं मिल सकते| यह ही कारण है कि चाहे देश का प्रश्न हो, चाहे धर्म का प्रश्न हो, बनिया वृत्ति रखने वाले समुदाय कहीं दिखाई नहीं देता| हाँ! कुछ लाला लाजपत राय तथा पंडित नरेंद्र जी जैसे गिने चुने लोगों को अपवाद रूप में छोड़ दें तो इनका देश तथा धर्म के लिए मिलने वाला सहयोग नगण्य ही रहा है| तो भी कुछ फूल होते हैं, जो स्वयं में सुगंध न होने पर भी इधर उधर उनकी सुगंध को पाकर ही न केवल स्वयं सुगन्धित हो जाते हैं अपितु दूसरे से पाई गई इस सुगंध को सब और बिखेरने का काम भी करते हैं| इस प्रकार कि सुगंध बिखेरने वाले महापुरुषों में हमारे कथानायक बलिदानी दिनेश चन्द्र गुप्त भी एक थे|
दिनेश चन्द्र गुप्त का समबन्ध बंगाल से था और यहीं पर ही उनका जन्म ६ दिसंबर १९११ में हुआ था| आपका जन्म स्थान बंगाल के मुंशीगंज जिले के गाँव जोशोगंज में हुआ था| यह जिला अब पूर्वी बंगाल अर्थात् पहले पूर्वी पाकिस्तान और अब बंगला देश का एक भाग है| बाल्यकाल से ही उनमें देश भक्ति की भावनाएं हलचल मचाती रहती थीं और वह देश के लिए कुछ करने की इच्छा रखते थे| उनके इस व्यवहार से उनके परिजन बेहद दु:खी रहते थे क्योंकि वह जिस जाति ( बनिया) से सम्बन्ध रखते थे, उस जाति में तो सिवाय स्वार्थ के और कुछ सिद्ध करने की परम्परा ही नहीं थी| उस काल का यह समुदाय तो वह कार्य ही करना पसंद करने वाले लोगों से भरा था, जो दो पैसे के लिए अपना ईमान तक बेचने को तैयार रहा करते थे| इस प्रकार के परिवार में यह हीरा पता नहीं किस प्रकार आ गया|
देश के लिए कुछ कर गुजरने की भावना उनकी और भी अधिक बालवती हो गई, जब उनका कुछ क्रांतिकारी दल के लोगों से संपर्क हुआ| इनके संपर्क में आने से उनके अन्दर बैठा देश प्रेम जाग उठा और वह सक्रिय रूप से देश की स्वाधीनता की इस लड़ाई के लिए क्रांतिकारी दल के सक्रीय सदस्य बन गए| वह अंग्रेज के भारतीय उपनिवेश वाद के विरोध में खुल कर आवाज बुलंद करने लगे और उन्होंने देश को स्वाधीन कराने के लिए दिन रात एक कर दिया|
बंगाल के कोलकाता में देश प्रेमी लोगों को अंग्रेज सरकार के अधिकारी बुरी तरह से परेशान कर रहे थे| देश प्रेम को अंग्रेज अपराध मानता था और इस अपराध में जो देशभक्त , आजादी के दीवाने क्रांतिवीर पकडे जाते, उन्हें तत्काल जेल के सींखचों के अन्दर बंद कर दिया जाता| उन्हें जेल में बंद कर के ही अंग्रेज शांत नहीं होता था अपितु जेल के अन्दर रहते हुए भी उन्हें भयंकर से भी भयंकरतम यातनाएं प्रतिदिन और प्रतिक्षण दी जातीं थीं| उन्हें हंटर से बुरी भाँति पीटा जाता, बर्फ पर लिटाया जाता गरमी की धूप में खडा किया जता और इसके अतिरिक्त भी जितने परकर की यातनाएं हो सकती हैं, वह सब उन्हें दीं जाती| क्रांतिवीर हंसते हंसते इन यातनाओं को सह रहे थे| आखिर थे तो मनुष्य ही जब बड़ी तेजी से हंटर उनके शरीर को आकर लगता तो एक बार तो चीख का निकलना स्वाभाविक ही होता है, किन्तु यह चीख उनकी कमजोरी नहीं होती थी आपितु इससे भी उनका साहस अत्यधिक बढ़ जाता था और वह और भी शांत होकर यह सब अत्याचार सहने को स्वयं को तैयार रखते थे| उन्होंने कभी देश के साथ धोखा नहीं किया और न ही अपने क्रांतिकारी दल की कोई भी गुप्त जानकारी अंग्रेज को दी| यह दारुण कष्ट तो उनके लिए फूलों के समान ही थे|
कलकत्ता की इस जेल में देश के दीवानों के साथ अमानवीय अत्याचार करने वाले यह अधिकारी अत्याचार करते हुए बहुत प्रसन्न होते थे| इस अधिकारी का नाम था इन्स्पेक्टर जनरल आफ प्रिजन मिस्टर एन एस सिप्सन| जिससे जैसे ही देश के लिए लड़ रहे क्रांतिकारी वीरों को जेल के अन्दर उनके बेकसूर साथियों पर किये जा रहे अमानुषिक व्यवहार का समाचार मिलता, वैसे वैसे ही उनके अन्दर जेल के इस अंग्रेज अधिकारी को समाप्त करने की भावना बलवती होती गई| एक दिन देश के दीवाने इन वीरों ने गुप्त रूप से इस अधिकारी का अंत करने कि योजना बना डाली|
अंग्रेज के इस अत्याचारी अधिकारी को समाप्त करने का अधिभारी क्रांतिकारी दल के सक्रीय और विश्वस्त युवा सदस्य दिनेश चन्द्र गुप्त, विनय बासु और बादल गुप्ता को सौंपा गया| यह काम कोई साधारण काम नहीं था| अत्यधिक सुरक्षा के बीच इस अंग्रेज अधिकारी तक पहुँच पाना कोई बच्चों का खेल नहीं था| किन्तु देश का दीवाना तो वही होता है, जो दुर्गम तथा काँटों से भरे मार्ग को भी सरलता से और हंसते हंसते हुए पार कर जावे| हुआ भी कुछ ऐसा ही| एक दिन अवसर पाकर अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने के लिए कोलकाता की राइटर्स बिल्डिंग में प्रवेश कर पाने में देशग के दीवानों का अह दल सफल हो गया| बस फिर क्या था वह सीधे उस अंग्रेज अत्याचारी और देश के दीवानों को अमानवीय अत्याचारों से प्रताड़ित करने वाले मिस्टर एन. एस. सिप्सन इन्स्पेक्टर जनरल आफ प्रिजन के सामने थे और सामने जाते ही कुछ भी समय नष्ट किये बिना इस धूर्त अंग्रेज अधिकारी को माँर गिराया|
यह क्रांतिवीर अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी को मार पाने में तो सफल हो गए किन्तु कुछ ही समय में यह पुलिस के हाथों में आ गए| अंग्रेज के अंधे कानून ने पूर्व नियोजित दंड की घोषणा करते हुए इन्हें फांसी की सजा सुना दी| इस सजा को सुनकर यह सब देश के वीर सैनिक हंसने लगे और कहने लगे क्या खूब, हम जो चाहते थे, वही हुआ| अब हम इस पुराने शरीर को छोड़कर कुछ ही समय में नया शरीर धारण करके एक बार फिर से इस देश में जन्म लेकर एक बार फिर से अत्याचारी अंग्रेजों को मारने के लिये दुनिया में आवेंगे| इस भावना को बलवती बनाते हुए हमारे वीर, निर्भीक देश की स्वाधीनता के लिए शस्त्र उठाने वाले गुप्ता जाति के यह महावीर ७ दिसंबर १९३१ को मात्र बीस वर्ष की आयु में फांसी पर झूल कर हमारे से सदा सदा के लिए विदा हुए|
हमारे कथानायक वीर क्रांतिकारी दिनेश चन्द्र गुप्त जी हमारे से विदा तो हो गए किन्तु उनकी याद आज भी हमारे हृदयों में उनके स्मारक स्वरूप जीवित रहते हए हमें निरंतर प्रेरणा दे रही है और कह रही है कि हे मेरे देश के लोगो! यह देश हमारा है| उठो! जागो! शस्त्र उठाओन और अंग्रेज को मार भगाओ| आज अंग्रेज तो चला गया किन्तु काले अंग्रेज को राजसत्ता सौंप गया जिस ने सत्तर वर्ष तक निरंतर देश के संसाधनों का दुरुपयोग किया और अब देश के लोगों को भड़का कर देश की स्वाधीनता को फिर से खतरे में डालने का कार्य कर रहे हैं| हमारा कर्तव्य है कि हम देश के लिए मरने वाले इन वीरों, बलिदानियों को स्मरण करें, इनसे मार्ग दर्शन लें और देश को एक बार फिर से आगे बढ़ाते हुए विश्व गुरु के सिंहासन पर बैठा दें|
डॉ. अशोक आर्य
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