प्राचीन भारत में आध्यात्मिक सत्यों को सांकेतिक कथाओ के माध्यम से सुरक्षित रखा जाता था ताकि उनका उपयोग अधिकारी पुरुष के अलावा कोई ना करे। कालांतर में यही कथाएँ विभिन्न परम्पराओ की जनक सिद्ध हुई और हमारी रहस्यमयी, विविधरंगी संस्कृति ने आकार ग्रहण किया। इसलिए यह संभव नहीं था कि कुम्भ व सिंहस्थ कुम्भ महापर्व जैसे आयोजनों के पीछे कोई कथा न हो। पुराणों में इसकी कथा है। चाहे आज इस कथा के पीछे के सत्य की कोई छाया भी हमारी जातीय स्मृति में शेष न हो, लेकिन कथा तो है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में हिमालय के समीप क्षीरोद नामक समुद्र तट पर देवताओं तथा दानवों ने एकत्र होकर फल प्राप्ति के लिए समुद्र-मंथन किया।
फलस्वरूप जो 14 रत्न प्राप्त हुए उनमे श्री रम्भा, विष, वारुणी, अमिय, शंख। गजराज, धन्वन्तरि, धनु, तरु, चन्द्रमा, मणि और बाजि इनमें से अमृत का कुम्भ अर्थात घड़ा सबसे अंत में निकला। उसकी अमर करने वाली शक्ति से देवताओं को यह चिंता हुई कि यदि दानवों ने इसका पान कर लिया तो दोनों में संघर्ष स्थायी हो जाएगा। इसलिए देवताओं ने इन्द्र के पुत्र जयंत को अमृत कलश को लेकर आकाश में उड़ जाने का संकेत किया। जयंत अतृत के कलश को लेकर आकाश में उड़ गया और दानव उसे छीनने के लिए उसके पीछे पड़ गये। इस प्रकार अमृत-कलश को लेकर देवताओं व दानवों में संघर्ष छिड़ गया। दोनों पक्षों में 12 दिन तक संघर्ष चला। इस दौरान दानवों ने जयंत को पकड़कर अमृत कलश पर अधिकार करना चाहा। छीना-झपटी में कुम्भ से अमृत की बूंदें छलक कर जिन स्थानों पर गिरीं, वे हैं प्रयाग, हरिद्वार, नासिक तथा उज्जैन। इन चारों स्थानों पर जिस-जिस समय अमृत गिरा उस समय सूर्य, चन्द्र, गुरू आदि ग्रह-नक्षत्रों तथा अन्य योगों की स्थिति भी उन्हीं स्थितियों के आने पर प्रत्येक स्थान पर यह कुम्भ पर्व मनाये जाने लगे।
कहते हैं कि कुम्भ की रक्षा के लिए चन्द्रमा, बृहस्पति ने दैत्यों से उसकी रक्षा की और सूर्य ने दानवों के भय से। अंत में विष्णु भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके घड़े को अपने हाथ में ले लिया और युक्ति से देवताओं को सब अमृत पिला दिया। पृथ्वी पर जिन स्थानों पर विभिन्न समयों में अमृत की बूंदे गिरी थीं उन स्थानों पर अमृत का पुण्य-लाभ उक्त अवसर पर स्नान करने से मोक्ष के रूप में प्राप्त होता है। इसी आस्था और धार्मिक विश्वास के आधार पर प्रयाग(इलाहाबाद), हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में भिन्न-भिन्न समयों पर प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ के मेले होते हैं। सिंह राशि में बृहस्पति के स्थित होने के कारण उज्जैन के कुम्भ को ‘सिंहस्थ कुम्भ महापर्व’ कहते हैं।
इसी प्रकार कुम्भ का धार्मिक महत्व तो स्पष्ट है। इनका संगठनात्मक और सामाजिक महत्व भी है। इन्हें द्वादशवर्षीय जन-सम्मेलन कहना अनुपयुक्त न होगा। बारह वर्षों के पश्चात् साधु-संत और महात्मा कुम्भ के बहाने उक्त नगरों में आते हैं। इससे आम लोगों को उनसे आध्यात्मिक सत्संग का लाभ उठाने का अवसर मिलता है। प्राचीन काल में साधु-संत नगरों से दूर गुफाओं और जंगलों में ही निवास करते थे। ऐसे ही पर्वों पर वे आम लोगों के बीच आते हैं।
भारत के चार कुम्भ पर्वों में उज्जैन का कुम्भ ‘सिंहस्थ कुम्भ महापर्व’ कहलाता है। यह नगरी अपनी विशिष्ट महानता के लिए भी प्रसिद्ध है। प्राचीन ग्रन्थों में कुरूक्षेत्र से गया को दस गुना, प्रयाग को दस गुना और गया को काशी से दस गुना पवित्र बताया गया है, लेकिन कुशस्थली अर्थात उज्जैन को गया से भी दस गुना पवित्र कहा गया है।
शिप्रा नदी ने उज्जैन के महत्व को और भी बढ़ा दिया है। वैशाख मास की पूर्णिमा को शिप्रा स्नान मोक्षदायक बताया गया है। उज्जैन में शिप्रा-स्नान का महत्व प्रति बारहवें वर्ष पड़ने वाले सिंहस्थ कुम्भ महापर्व तो और भी अधिक माना जाता है।