संजय पटेल जैसी शख्सियत के साथ रहना ऐसे ही है जैसे आदिवासियों के किसी इनसाईक्लोपीडिया या गूगल के साथ रहना हो। जिन आदिवासियों को अपने आसपास के जीवन से बाहर की दुनिया से कुछ लेना देना नहीं हो उन आदिवासियों के बीच संजय पटेल किसी लोकदेवता की तरह पूजे जाते हैं।
संजय पटेल को आप गूगल पर नहीं खोज सकते
संजय पटेल के बचपन के मित्र एवँ दुनिया की एक बड़ी इंश्योरेंस कंपनी https://www.sudlife.in/ के सीईओ गिरीश कुलकर्णी के लिए मुंबई से 150 किलोमीटर दूर की यह वनयात्रा किसी रोमांच से कम नहीं थी। गिरीश कुलकर्णी 40 साल बाद अपने सहपाठी संजय पटेल से मिलकर ऐसे ही खुश थे जैसे कुंभ मेले में बिछुड़ा भाई मिल गया हो। गिरीश जी चुन चुनकर अपने बचपन के मित्रों को याद कर रहे थे और संजय जी उनको फोन लगाकर बात करा रहे थे। गिरीश जी को ये जानकर हैरानी हुई कि मैं अपने संघर्ष से लेकर अपने कैरियर की इस ऊँचाई पर आकर कितना कुछ पीछे छोड़ आया। अपने एक एक मित्र से बात करके और बचपन में महाराष्ट्र के मालेगाँव की खुशनुमा स्मृतियों में खोकर गिरीश जी को ऐसा लगा मानों चालीस साल बाद यादों का कोई खजाना हाथ लग गया हो।
संजय पटेल हमें जव्हार में उनकी संस्था द्वारा संचालित आईटीआई में लेकर गए। फिर आदिवासी गाँव चिकनपाड़ा लेकर गए। यहाँ गाँव के लोगों को कंबल और कुछ नकद सहायता प्रदान की। चारों और पहाड़ों और जंगल से घिरा छोटा सा गाँव, जहाँ पहुँचते ही वनवासियों ने परंपरागत संगीत से स्वागत किया और हम धन्य हो गए।
संजय पटेल गाँव के लोगों को कुछ मुफ्त बाँटने की बजाय उन्हें आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। इस क्षेत्र में चीकू, सब्जियाँ और काजू जैसी चीजें उगाकर ये आदिवासी आत्मनिर्भर हो सकते हैं और साल भर में दो चार लाख की कमाई आराम से कर सकते हैं, लेकिन उन्हें मार्गदर्शन देने वाला और उनकी फसल को बाजार में बेचने वाला कोई नहीं। कुछ साल पहले संजय जी के प्रयासों से इस क्षेत्र में मोगरे के फूलों की खेती शुरु हुई। आज सैकड़ों आदिवासी मोगरा उगा रहे हैं और उनका मोगरा हाथोंहाथ मुंबई जाकर बिक रहा है। सरकारी स्कूल के एक शिक्षक ने इनके मोगरा को मुंबई लेजाकर बेचने का उपक्रम हाथ में लिया आज उनके पास अपनी गाड़ी है, और बढ़िया घर बना लिया है। मुंबई की महिलाएँ बालों में जो गजरा पहनकर पाँच सितारा पार्टियों से लेकर पारिवारिक उत्सवों में सबके आकर्षण का केंद्र बन जाती है वो गजरा इन्हीं मेहनतकश आदिवासियों के खून पसीने की मेहनत से महकता है।
संजय जी आदिवासी क्षेत्रों में आसन्न खतरे से भी सजग हैं और उनको पता है कि धूर्त मिशनरी किसी बाज की तरह इन वनवासियों पर झपटते हैं और मौका पाते ही उनके गले में क्रॉस डालकर उन्हें ईसाई बना देते हैं। पिछले सैकड़ो सालों की मिशनरियों के लगातार षड़यंत्र के बाद भी अपनी माटी, भूमि और अपनी संस्कृति के प्रति समर्पित इन भोले भाले वनवासियों को वे ईसाई नहीं बना पा रहे हैं।
उन्होंने इन वनवासियों की अपनी संस्कृति और अपने देवी-देवताओँ के प्रति आस्था को देखते हुए कंठी माला अभियान शुरु किया। इसके बढ़िया नतीजे भी सामने आ रहे हैं। आदिवासी शराब छोड़ रहे हैं और मेहनत करने से जी नहीं चुराते हैं। कंठी पहनने वालों को विठ्ठल-रुक्मिणी की मूर्ति दी जाती है और उसे पंढरपुर वारकरी यात्रा में लेजाने की व्यवस्था की जाती है। पंढरपुर में वारकरी बनकर यात्रा में जाना इन वनवासियों के लिए चारधाम यात्रा से बड़ा पुण्य होता है। श्री संजय पटेल आज जव्हार, मखोड़ा, विक्रमगढ़ क्षेत्र के सैकड़ों गाँवों के हजारों आदिवासी कंठी पहनकर और वारकरी यात्रा में शामिल होकर वैष्णव होने यानी शराब नहीं पीने की शपथ ले चुके हैं। गाँव की महिलाएँ अपने पति के दारु छोड़ने को किसी देवता का चमत्कार ही मानती है।
संजय जी महीने में पन्द्रह दिन देश भर में भ्रमण करते हैं और पन्द्रह दिन इन आदिवासी अंचलों में। इन पन्द्रह दिनों में वे लोगों से सीधे संवाद कर उन्हें समझाते हैं कि अपने छोटे से खेत से ही वे किस तरह की फसलों से, साग-सब्जियों से हर साल दो से तीन लाख रुपये कमा सकते हैं। वे अपने साथ जुड़े कार्यकर्ताओं को भी उत्साहित करते हैं, उनमें आत्मविश्वास जगाते हैं। इस क्षेत्र में कंबल से लेकर अनाज, चाँवल बाँटने के पीछे उनका यही उद्देश्य है कि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों के संपर्क में आएँ और उन्हें कुछ करने के लिए प्रेरित करें। अगर उनको किसी एक व्यक्ति में भी संभावना लगती है तो वो खुद उसके घर जाते हैं और घंटो उसके साथ बैठकर उसकी समस्या पर चर्चा कर उसे नई नई तरह की खेती के लिए प्रेरित करते हैं। हम जब संजय जी के साथ इस क्षेत्र में गए तो एक ऊंची पहाड़ी पर एक अकेले परिवार से मिलने गए, उसके साथ संवाद किया। ये घर नदी के किनारे है और नदी पहाडी की तलहटी पर दो किलोमीटर दूर। यहाँ आप छोटी छोटी बच्चियों और महिलाओं को सिर पर दो तीन बरतन रखे पानी भरने के लिए दो तीन किलोमीटर चलते हुए आसानी से देख सकते हैं। ‘सबका साथ सबका विकास’ यहीँ आकर दम तोड़ देता है।
कहने को तो गाँव गाँव में सरकारी मशीनरी का जादू है और करोड़ों रुपया विकास के नाम पर आता है मगर वो पैसा इन आदिवासियों तक नहीं पहुँचता, हाँ इस क्षेत्र के अभावग्रस्त आदिवासियों को और सरकारी अधिकरियों के बड़े बंगलों को देखकर समझा जा सकता है कि विकास की गंगा किस दिशा में बह रह है। स्व. दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो – यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ, मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा। बस आप कल्पना कीजिए कि नदियाँ कहाँ सूख रही है और पानी कहाँ रुका हुआ है।