जब प्रेस को चौथा खंभा बताया गया था तब उसका मकसद था प्रेस के जरिए विधायिका और कार्यपालिका को निरंकुश होने से बचाना। पर आज उलटा होता जा रहा है। कॉरपोरेट मीडिया अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए उस सच को दिखा रही है जो दरअसल घटा ही नहीं। अकसर बात का बतंगड़ बना देता है मीडिया। आपने क्या कहा और मीडिया के कारीगरों ने उसे क्या बता दिया, इन दोनों में जमीन-आसमान का अंतर होता है।
ज्यादा पीछे न जाएं हाल की घटनाओं को देखें तो हम पाते हैं कि मीडिया ने ऐसा भ्रम पैदा कर रखा है कि हकीकत सामने आ ही नहीं पाती है। कुछ दिन पहले यूपी के गौतमबुद्ध नगर जिले के कस्बे दादरी के निकट स्थित गांव बिसाहड़ा की घटना को ही ले एक व्यक्ति को कुछ लोगों ने मार दिया। संयोग से मरने वाला मुसलमान था और मारने वाले हिंदू राजपूत। उस गांव में दो-चार घर ही मुसलमानों के हैं और वे लोग सैकड़ों वर्षों से वहां रहते आए हैं। राजपूत वहां किसान थे और मुसलमान लोहार। मगर हाल के वर्षों में जब जमीनों का अधिग्रहण शुरू हुआ तो किसान खेती की जमीन बेच-बेच या तो व्यापारी बन गए अथवा निठल्ले ब्याज से खाने लगे पर आन-बान-शान वही रही। मगर दोनों ही समुदायों में तनाव नहीं हुआ। पर मीडिया ने लोहार परिवार के अखलाक की हत्या और उसके बेटे दानिश को घायल कर दिए जाने की बात को हिंदू-मुस्लिम तनाव से जोड़ दिया।
टीवी न्यूज चैनलों और दिल्ली के अंग्रेजी अखबारों ने इस घटना को ऐसा तूल दिया कि सामान्य अपराध की यह घटना अचानक हिंदू उग्रवादी की बानगी के तौर पर पेश कर दी गई। मजे की बात जब दो हफ्ते बाद उसी बिसाहड़ा में उन्हीं राजपूतों ने गांव में हकीम परिवार के यहां आई बारात की अगवानी की और एकदम मुस्लिम रीति-रिवाज का पालन करते हुए दान-दहेज दिया तो मीडिया ने रहस्यमय चुप साध ली। तब इस सौहार्द को कवर करने की फुरसत न तो टीवी मीडिया को हुई न वहीं अंग्रेजी के माहिर पत्रकार गांव पधारे तथा सोशल मीडिया के रणबांकुरों ने भी मौन धारण कर लिया।
इसका तो एक ही अर्थ निकाला जाएगा कि मीडिया का मतलब सिर्फ सनसनी फैलाना ही रह गया है। उस वक्त केंद्र सरकार के संस्कृति राज्य मंत्री और गौतमबुद्ध नगर के सांसद महेश शर्मा के बयान को इस तरह तूल दिया गया मानों उन्होंने कोई जानबूझ कर ऐसी बात कह दी जो हिंदुओं को माफ करती हो। उन्होंने एक सहज बात कही थी कि इस हत्याकांड की जांच होगी और दोषियों को सजा मिलेगी। पर उसे यूं पेश किया गया मानो महेश शर्मा ने आरोपियों को बरी कर दिया। अब जब रिपोर्ट आ रही हैं तो सबसे अहम आरोप खुद एक मुस्लिम संगठन ने ही लगाया है, उसके मुताबिक बिसाहड़ा की घटना के पीछे प्रेम प्रसंग था। तब इतने दिनों तक जिस तरह मीडिया उछल-कूद करता रहा इसकी जवाबदेही किसकी होगी।
अभी चार दिन पहले फरीदाबाद जिले के सुनपेड गांव में दो दलित बच्चों को जलाकर मार देने की घटना निंदनीय है पर मीडिया ने इस घटना की कवरेज करने की बजाय इस पर जोर दिया कि केंद्रीय मंत्री जनरल वीके सिंह ने दलित बच्चों को मारे जाने की तुलना कुत्ते के पिल्लों से कर दी। किसी ने भी यह नहीं सोचा कि जनरल वीके सिंह कोई अनपढ़, जाहिल या गंवार नहीं बल्कि पढ़े-लिखे, समझदार और संजीदा व्यक्ति हैं पर अपनी टीआरपी बढ़ाने की ललक में मीडिया ने ऐसी खबर चला दी जिस पर जनरल सिंह की सफाई तक नहीं सुनी गई। मीडिया खुद को एंटी इस्टैबिलिशमेंट या व्यवस्था विरोधी जताने के चक्कर में हास्यास्पद स्थितियां पैदा कर रहा है।
पहले अखबार घराने ऐसा करते थे पर तब संपादक जो अक्सर प्रौढ़ व समझदार होते थे ऐसी खबरों पर अंकुश लगाया करते थे लेकिन अब इलेक्ट्रानिक मीडिया के किशोरों और युवकों को पता ही नहीं होता कि टीआरपी बढ़ाने की ललक में वे संपूर्ण मीडिया जगत को जोकर बनाए डाल रहे हैं। मीडिया को अगर ऐसी हरकतों से न उबारा गया तो भविष्य में यह चौथा खंभा अपनी अहमियत खो देगा। ऊपर से आग में घी डाला फेसबुक, ट्विटर आदि सोशल मीडिया ने जिस पर किसी का अंकुश ही नहीं है और जो जिधर दिखा उधर ही भागना शुरू कर देता है। ऐसे में भला कैसे मीडिया की साख बचा पाएंगे।
(साभार: हरिभूमि से)