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देश के विज्ञान को एक नई ऊँचाई देने में लगे हैं ये कर्मयोगी वैज्ञानिक

भारत की नई पीढ़ी के वैज्ञानिक आज कई क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। हिपेटाइटिस-बी का इलाज भूंई आंवला के पौधे से ढूंढ लिया गया है। मानसून का पूर्वानुमान सही-सही लगा पाना संभव हुआ है। पुराने रबड़ के टायरों से निकले कार्बन के उपयोग से अपशिष्ट जल को उपचारित करने की बेहद सस्ती विधि तैयार हो रही है।

जब भी भारत के संदर्भ में विज्ञान की बात होती है तो शून्य, दशमलव से लेकर शल्य चिकित्सा, खगोलविज्ञान आदि विषयों में वराहमिहिर, सुश्रुत, ऋषि पाराशर, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट आदि की चर्चा होती है। बाद में इसी परंपरा को आगे बढ़ाया सर सी़ वी़ रामन, राजा रमन्ना, होमी जहांगीर भाभा, विक्रम साराभाई, डी़ एस. कोठारी, मेघनाथ साहा, सत्येंद्र नाथ बसु आदि ने। ज्ञान-विज्ञान की परंपरा कभी लुप्त नहीं होती और इस कथन को सच साबित कर रहे हैं आज के हमारे वैज्ञानिक। भारतीय वैज्ञानिकों ने दुनिया के सामने कई तथ्य रखे हैं चाहे डॉ़ सुब्बाराव द्वारा विटामिन-बी कॉम्पैलैक्स पर मानव सभ्यता के लिए किया गया कार्य या फिर डॉ़ एस़ पी़ त्यागराजन द्वारा हेपेटाइटिस-बी का आयुर्वेदिक इलाज ढूंढना और इसी कड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं आज की पीढ़ी के विज्ञान राही।

दुनिया के तमाम वैज्ञानिक बेसब्री से ‘गॉड पार्टिकल’ की खोज में लगे जिसके तमाम साक्ष्य सामने आ रहे हैं। दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग यानी सर्न (यूरोपियन ऑर्गनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च) का एलएचसी यानी लार्ज हैडरॉन कोलाइडर, जिसके जरिए एक नए पार्टिकल यानी कण की खोज कर ली गई है, जो हिग्स-बोसोन से मेल खाता है, इस खबर से पूरी दुनिया में रोमांच और हर्ष की लहर दौड़ गई। इस पार्टिकल को इसलिए भी ढूंढा जा रहा था, क्योंकि सभी भौतिकी के सिद्धांत कणों की भूमिका तो बता रहे थे, लेकिन पदार्थ में मास यानी द्रव्यमान कैसे आया इस पर एक खामोशी थी। प्रोफेसर पीटर हिग्स और भारत के सत्येंद्र नाथ बसु के नाम पर हिग्स-बोसोन पार्टिकल का नाम पड़ा है, जो पदार्थ या किसी भी कण को मास देने के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं।

भारतीय मूल के वैज्ञानिक डॉ़ बसु के नाम पर पड़े इस हिग्स-बोसोन पार्टिकल को ढूंढने में 100 से भी अधिक भारतीय वैज्ञानिकों का एक पूरा दल शामिल रहा। हिग्स-बोसोन की खोज में साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिजिक्स की प्रोफेसर सुनंदा बनर्जी, प्रोफेसर सात्यकि भट्टाचार्य, प्रोफेसर सुचंद्रा दत्ता, प्रो़ सुबीर सरकार और प्रो़ मनोज सरन के नाम से पूरा भारत और विश्व परिचित है। ऐसे बहुत से कर्मयोगी वैज्ञानिक हैं जिन्होंने विश्वस्तरीय काम किया है लेकिन शायद आप उनके नाम से परिचित न हों।

दिल्ली स्थित लाल बहादुर शास्त्री पादप जैव प्रौद्योगिकी केंद्र के प्रोफेसर एन.के़ सिंह एक ऐसे ही वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने टमाटर, चावल, अरहर और गेहूं के जीनोम की खोज में महती भूमिका निभाई है। प्रो़ सिंह ने तमाम दबावों और बाधाओं के बावजूद भारत की दुनिया को देन अरहर दाल का जिनोम खोजकर देशहित में एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। असल में, अरहर के जीनोम की खोज में एक विदेशी कंपनी और अन्य संस्थान भी लगे थे और अगर विदेशी कंपनी पहले जीनोम की खोज करती तो पेटेंट या कहें भारत की अरहर दाल पर उस कंपनी का एकाधिकार होता, लेकिन देशभक्त प्रो़ एन. के़ सिंह ने अपनी कर्मठ टीम के साथ ऐसा होने नहीं दिया और अरहर भारत की ही है। वर्तमान में गेहूं के जीनोम से लेकर कई और महत्वपूर्ण फसलों के जीन में छुपे राज़ जानने में प्रो़ एन. के़ सिंह की टीम लगी है।

एक आकलन के अनुसार देश की करीब चार फीसदी आबादी हेपेटाइटिस-बी के वायरस यानी विषाणु से ग्रस्त है। यानी करीब पांच करोड़ लोग अपने खून में हेपेटाइटिस-बी के वाइरस को लेकर घूम रहे हैं और दूसरों को भी संक्रमित करने में सक्षम हैं। हेपेटाइटिस-बी का टीका है लेकिन काफी महंगा है। ऐसे में पौधों के औषधीय गुणों पर विश्वास करने वाले, मद्रास विश्वविद्यालय के डॉ़ ए़ एल़ मुदरलियार इंस्टिट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल सांइसेज़, के सूक्ष्मजीवी विभाग के अध्यक्ष डॉ़ एस़ पी़ त्यागराजन ने फिलैंथस एमेरस (जिसे केरल में कीजार्नेली और उत्तर भारत में भुंई आंवला कहते हैं) पौधे से हेपेटाइटिस-बी का इलाज ढूंढ लिया है। अब, इस पौधे का पेटेंट भी मद्रास विश्वविद्यालय के पास है।

यहां एक रोचक वैज्ञानिक तथ्य है कि हर जगह मिलने वाले भूंई आंवला के पौधों में हिपेटाइटिस-बी के वाइरस को मारने की क्षमता नहीं है, बल्कि केरल में जो पौधा उगता है, उसमें मौजूद रसायन वाइरस को मारने में सक्षम है। असल में, जलवायु, मिट्टी, सस्य क्रियाओं आदि के अनुसार पौधों में औषधीय गुण आते हैं और विविध जलवायु और अन्य कारणों के चलते ही हर जगह उगने वाले पौधे में समान गुण नहीं होते। डॉ़ त्यागराजन की खोज आयुर्वेद को वैज्ञानिक रूप से स्थापित करने में भी मील का पत्थर साबित हुई।

पिछले कुछ वर्ष से ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा है जिससे बारिश का चक्र भी बिगड़ा है। देश की करीब 50 फीसदी कृषि भूमि असिंचित है और पूरी तरह वर्षा पर आधारित है। मानसून की सटीक भविष्यवाणी में पूणे स्थित राष्ट्रीय जलवायु केंद्र के 45 वर्षीय डी़ सिवानंद पै ने बेहद सार्थक कार्य किया है। पै ने मानसून के केरल पहंुचने के सटीक पूर्वानुमान के लिए स्टेटिस्टिकल मॉडल और पांच-श्रेणियों के पूर्वानुमान को विकसित किया है। इस कारण आज मानसून का पूर्वानुमान सही-सही लगा पाना संभव हुआ है। बारिश में हेर-फेर के अनुसार सरकारों को आकस्मिक योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने में सफलता मिल रही है। इस कारण मानूसन में कम बारिश होने के कारण फसल उत्पादन में कुछ खास कमी नहीं आई है। पै द्वारा किए गए मॉडल पूरी तरह भारतीय नवाचार का उदाहरण हैं।

दिमाग भी बड़े कमाल की चीज है। कहते हैं कि पूरा ब्रह्मांड भी इसी में समाया है। अब, ये तो पता नहीं पर एक रोचक बात है, हमारी दूधिया आकाशगंगा में करीब 100 अरब तारे बताए जाते हैं और हमारे मस्तिष्क में करीब 100 अरब न्यूरान्स यानी तंत्रिकोशिकाएं पाई जाती हैं। लेकिन इस दिमाग में उम्र बढ़ने के साथ, शायद रक्त की आपूर्ति में कमी आने के कारण कई विकार उत्पन्न हो जाते हैं, कई बार तो स्मृति ही चली जाती है। इन बुजुर्गों के जीवन में उम्मीद की नई किरण बन कर उभर रहा है, बेंगलुरु स्थित नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज के 48 वर्षीय तेजस्वी वैज्ञानिक डॉ़ उपिंदर एस़ भल्ला द्वारा किया जा रहा वैज्ञानिक शोध। डॉ़ भल्ला द्वारा किया जा रहा वैज्ञानिक शोध। जो भल्ला द्वारा किया रहा अनुसंधान मुख्यत: मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को समझने पर केंद्रित है। वे इस पर भी कार्य कर रहे हैं कि सूचनाएं, यादें बनने के दौरान दिमाग में क्या परिवर्तन आते हैं। समय के साथ दिमाग में होने वाले बदलावों का वे अभिचित्रण भी कर रहे हैं। डॉ़ भल्ला के इस कार्य से बुजुर्गों में तंत्रिका अध:पतन को समझने में मदद मिल रही है।

कई अन्य वैज्ञानिकों की तरह, कल्याण स्थित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ बायोमेडिकल जीनोमिक्स के 59 वर्षीय डॉ़ पार्था प्रीतम मजूमदार भी अपनी प्रयोगशाला में मानव जीवन के लिए कुछ खुशी के पल जुटाने में लगे हैं। डॉ़ मजूमदार कैंसर जीनोम शोध से जुड़े हैं। अभी कुछ समय पहले ही मानव का जीनोम पढ़ा गया है। यानी मानव के जीवन की किताब वैज्ञानिकों ने पढ़ ली है। बस ऐसे ही कैंसर जीनोम को पढ़ा जा रहा है और एक बार जीनोम पूरा पढ़ लिया गया तो कैंसर के इलाज के लिए बेहद कारगर उपाय खोजे जा सकेंगे। डॉ़ मजूमदार के अनुसंधान से किसी को प्रभावित होने से पहले ही कैंसर का पता लग सकेगा, जिससे व्यक्ति विशेष के अनुसार उपचार भी विकसित किया जा सकेगा।

आज ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें वैज्ञानिक अनुसंधान सिर्फ भारत में हो रहा है। चिकनगुनिया, जापानी बुखार जैसे रोगों को लेकर दुनिया के अन्य देशों में अधिक कार्य नहीं हो रहा है, लेकिन भारतीय वैज्ञानिक इन रोगों के साथ उन सभी रोगों के इलाज ढूंढने में जुटे हैं जो सिर्फ भारत जैसे देश और विकासशील व देशों की समस्या है।

प्रोफेसर एन.के़ सिंह
लाल बहादुर शास्त्री पादप जैवप्रौद्योगिकी केंद्र, दिल्ली
इन्होंने टमाटर, चावल, अरहर और गेहूं के जीनोम की खोज में महती भूमिका निभाई है। साथ ही अरहर दाल का जिनोम खोजकर देशहित में एक महत्वपूर्ण कार्य किया। इस दाल का पेटेंट भी भारत के पास है।

डॉ़ एस़ पी़ त्यागराजन
डॉ़ ए़ एल़ मुदलियार इंस्टिट्यूट ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल सांइसेज़, मद्रास
डॉ़ एस़ पी़ त्यागराजन ने फिलैंथस एमेरस (जिसे केरल में कीजार्नेली और उत्तर भारत में भुई आंवला कहते हैं) पौधे से हेपेटाइटिस-बी का इलाज ढूंढ लिया है। अब, इस पौधे का पेटेंट भी मद्रास विश्वविद्यालय के पास है।

डी़ सिवानंद पई
राष्ट्रीय जलवायु केंद्र, पुणे
पई ने मानसून के केरल पहंुचने के सटीक पूर्वानुमान के लिए स्टेटिस्टिकल मॉडल और पांच-श्रेणियों के पूर्वानुमान को विकसित किया है। इस कारण आज मानूसन का पूर्वानुमान सही-सही लगा पाना संभव हुआ है।

डॉ़ उपिंदर एस़ भल्ला
नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज, बेंगलुरू
डॉ़ भल्ला द्वारा किया जा रहा अनुसंधान मुख्यत: मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को समझने पर केंद्रित है। वे इस पर भी कार्य कर रहे हैं कि सूचनाएं, यादें बनने के दौरान दिमाग में क्या परिवर्तन आते हैं।

डॉ़ पार्था प्रीतम मजूमदार

नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ बायोमेडिकल जीनोमिक्स, कल्याण
डॉ़ मजूमदार कैंसर जीनोम शोध से जुड़े हैं। उनके अनुसंधान से किसी को प्रभावित होने से पहले ही कैंसर का पता लग सकेगा, जिससे व्यक्ति विशेष के अनुसार उपचार भी विकसित किया जा सकेगा।

सड़क पर वाहनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और उसी अनुपात में टायरों की संख्या में बढ़ती जा रही है। इसलिए इनका अधिकतर उपयोग भट्टियों में जलाने के लिए ईंधन के रूप में किया जाता है। इससे बने टायरों को जलाने से हवा में जहरीली गैसें फैलने के साथ ही काफी हानिकारक भारी तत्व भी वातावरण में घुल जाते हैं, जिससे स्वास्थ्य और प्रकृति का भयानक नुकसान होता है। लेकिन अब इन टायरों के निपटान और साथ ही गंदे पानी को साफ करके दोबारा उपयोग में लाने की नई क्रांतिकारी विधि पर रुड़की स्थित आईआईटी के 58 वर्षीय डॉ़ विनोद कुमार गुप्ता कार्य कर रहे हैं। पुराने रबड़ के टायरों से निकले कार्बन के उपयोग से अपशिष्ट जल को उपचारित करने की बेहद सस्ती विधि तैयार करने में जुटे हैं डॉ. गुप्ता। उम्मीद है कि डॉ. गुप्ता के शोध से सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में खराब टायर के निपटारे और अपशिष्ट पानी के उपचार के क्षेत्र में सार्थक बदलाव आ सकेगा।

भारत तेजी से ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रयासरत है। हरित ऊर्जा या कहें पर्यावरण हितैषी ऊर्जा की प्रौद्योगिकी को विकसित करने में देशभर के अनेक संस्थान कार्य कर रहे हैं। भारत सरकार ने लक्ष्य रखा है 1 मई, 2018 तक देश के हर गांव में बिजली होगी। अगर, भारत को विकासशील से विकसित देश होने का सपना सच करना है तो बिजली की उपलब्धता इसमें महत्वपूर्ण कारक है। पूरी दुनिया में नाभिकीय ऊर्जा, जिसे कई लोग परमाणु ऊर्जा भी कह देते हैं, की सुरक्षा को लेकर बड़ी बहस चल रही है। जापान के फुकूशिमा धमाके के बाद ऊर्जा के इस स्रोत को लेकर कई सवाल उठे हैं। और सवालों के बेहद प्रासंगिक वैज्ञानिक जवाब दे रहे हैं मुंबई स्थित भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के 59 वर्षीय डॉ़ रतन कुमार सिन्हा। डॉ़ सिन्हा ने ट्राम्बे स्थित भारत के सबसे बड़े नाभिकीय अनुसंधान रिएक्टर ध्रुव में कई अतिमहत्वूपर्ण घटक जोड़े हैं। डॉ़ सिन्हा ने थोरियम आधारित अत्याधुनिक हैवी वॉटर रिएक्टर विकसित किया है, जो घनी आबादी वाले इलाकों में लगाने पर भी पूरी तरह सुरक्षित है। डॉ़ सिन्हा थोरियम से यूरेनियम-233 अलग करने में जुटे हैं जिससे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के लिए ईंधन की समस्या का समाधान मिल सकेगा।

देश में हर वर्ष मलेरिया फालसिपेरम से करीब 50 करोड़ लोग ग्रसित होते हैं और उससे भी बड़े दु:ख की बात है कि हर वर्ष मलेरिया के इस प्रकार से करीब 10 लाख बच्चे मौत की नींद सो जाते हैं। मलेरिया का परजीवी बेहद जटिल है, क्योंकि ये लाल रक्त कोशिकाओं के अंदर रहकर संक्रमित करता है, इसलिए इसका टीका बनाना बेहद मुश्किल है। लेकिन दिल्ली स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजिनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी के 50 वर्षीय डॉ़ चेतन ई़ चिटनीस इस खतरनाक बीमारी से निपटने के लिए टीका विकसित करने में जुटे हैं। उम्मीद है कि जल्द ही डॉ़ चिटनीस मलेरिया फालसिपेरम का टीका विकसित कर लेंगे और कई जानें बचाने में कामयाब होंगे।

आंखें हमें दुनिया से जोड़ती हैं। देश में कॉर्निया यानी श्वेतपटल के नुकसान के कारण कई लोगों की आंखों की रोशनी चली जाती है। लेकिन हैदराबाद स्थित एल़ वी़ प्रसाद नेत्र संस्थान के 53 वर्षीय वीरेंद्र एस़ सांगवान ने श्वेतपटल को हुए नुकसान को ठीक करने और आंखों की रोशनी वापस लाने के लिए बेहद नई स्टेम-सेल थैरेपी को आधार बनाया है। डॉ़ प्रसाद के इस नवाचार से जलने या रासायनिक चोट के कारण अपनी देखने की क्षमता खो चुके करीब 20 लाख लोगों को ठीक करने की संभावना प्रबल हुई है। असल, में डॉ़ सांगवान स्वस्थ आंख के ऊतक से स्टैम-सेल अलग करते हैं और उनका वर्धन करके खराब हुई आंख में रोपित कर देते हैं। अभी तक डॉ़ सांगवान द्वारा विकसित नई स्टैम-सेल विधि की सफलता दर 76 फीसदी है।

इसके अलावा देश में कई अन्य क्षेत्र जैसे अधिक दक्ष सोलर सेल, नैनो टेक्नोलॉजी, जैव ईंधन, हाइड्रोजन फ्यूल, बायोटेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में कार्य किया जा रहा है। देश में कई वैज्ञानिक डॉ़ विक्रम साराभाई की तरह कॉस्मिक किरणों पर कार्य कर रहे हैं और ब्रह्मांड के कई रहस्यों की परतें खोल रहे हैं। भारत को दुनिया की डायबिटीज की राजधानी कहा जाने लगा है। इसके कई कारण हैं और शायद सबसे बड़ा कारण है जीवनशैली में आया बदलाव। डायबिटीज के कई उपचार आयुर्वेद में भी मौजूद हैं और इसके अलावा योग और कसरत भी काफी लाभकारी हैं। दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ इम्युनोलॉजी के निदेशक 63 वर्षीय डॉ़ अवधेश सुरोलिया इंसुलिन प्रोटीन के मुड़ने की क्रिया पर कार्य कर रहे हैं, जिससे डायबिटीज जैसी समस्या का एक टिकाऊ समाधान मिल सकेगा। आईआईटी, दिल्ली के शोधार्थियों ने एक ऐसा जल रहित मूत्रपात्र तैयार किया है जिसकी लागत भी बेहद कम है और रखरखाव का खर्च भी लगभग न के बराबर है।

अगर मानव शरीर की बात करें तो पूरे शरीर का करीब 25 से 35 फीसदी प्रोटीन कोलेजन होता है। शरीर के लगभग सभी अंगों, हिस्सों जैसे कॉर्निया, कार्टिलेज, रक्त वाहिकाओं, हड्डियों, दांतों आदि में कोलेजन पाया जाता है। शरीर में कई प्रकार के रोग दोषपूर्ण कोलेजन के कारण होते हैं जिनका कोई प्रभावी इलाज नहीं है। पुणे स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च के 58 वर्षीय वैज्ञानिक डॉ. कृष्णा एन. गणेश ने एक कृत्रिम, परिवर्तित कोलेजन बनाने में सफलता पा ली है जिससे कोलेजन की गड़बड़ी से निपटने में मदद मिलेगी।

हम यहां पर मुट्ठीभर वैज्ञानिकों के देश में जारी कार्यों पर एक नजर डाल सकें, लेकिन ये वैज्ञानिक कितने व्यापक क्षेत्र में शोधरत हैं ये जरूर ज्ञान-विज्ञान की जारी परंपरा का ही मूर्त रूप है। आज ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें वैज्ञानिक अनुसंधान सिर्फ भारत में हो रहा है। चिकनगुनिया, जापानी बुखार आदि रोगों को लेकर दुनिया के अन्य देशों में अधिक कार्य नहीं हो रहा है, लेकिन भारतीय वैज्ञानिक इन रोगों के साथ उन सभी रोगों के इलाज ढूंढने में जुटे हैं जो सिर्फ यहां और विकासशील व गरीब देशों की समस्या है। पूरी तरह भारतीय तकनीक से विकसित किया गया हमारा पीएसएलवी यानी पोलर सेटेलाइट लांच व्हीकल, आज दुनिया में चर्चा का विषय है, ठीक जैसे पूरा भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम। आज वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए अधिक से अधिक राशि उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। भारतीय संस्थानों, विश्वविद्यालयों आदि में जारी वैज्ञानिक शोध, जिसमें कृषि विज्ञान में किया गया अभूतपूर्व कार्य हमारे देश के विज्ञान की दिशा और दृष्टि को जाहिर करता है और निश्चित रूप से एक देश को विज्ञान अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रसर बनाए रखने में वैज्ञानिकों का सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक होना और अपने दायित्व के प्रति सतर्क रहना आवश्यक है, जिसमें देश के युवा वैज्ञानिक पूरे खरे उतरते नजर आ रहे हैं।

(लेखक विज्ञान के अध्येता हैं और उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं)

साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से