कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर को ले कर जितेंद्र पात्रो के प्रलेक प्रकाशन की झांसा कथा का ज़रा जायजा लीजिए। क्या कोई रचना टाइप कर देने से वह रचना टाइपिस्ट की हो जाती है ? या फिर किसी किताब का कुछ हिस्सा टाइप करवा देने से वह किताब प्रकाशक की हो जाती है ? मेरा मानना है कि बिलकुल नहीं। परंतु प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रो की बात से लगता है कि वह इसे ऐसा ही मानते हैं। वह लेखकों को बंधुआ मज़दूर मानते हैं। मुझे भी बंधुआ मज़दूर मानने की ग़लती कर बैठे हैं। लेकिन मैं उन के इस भ्रम को चकनाचूर कर देना चाहता हूं। कर रहा हूं। जितेंद्र पात्रो , आप से साफ़ कह रहा हूं , पहले भी कई बार लिखित और मौखिक कह चुका हूं कि कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर के लिए टाइप करने के लिए आप के पास जिस भी किसी लेखक की कोई 70 कहानी भेजी है , उस का इस्तेमाल आप किसी भी रुप में किसी भी संग्रह में इस्तेमाल नहीं करेंगे। आप ने मुझे बताया है और लिख कर बताया है कि ऐसा आप करने जा रहे हैं और कि सभी संबंधित लेखकों से आप ने अनुमति ले ली है। आप के ऐसा लिख कर कहने के बाद मैं ने भी संबंधित लेखकों या दिवंगत लेखकों के परिजनों से एक-एक कर बात की है। किसी एक ने भी आप को ऐसी कोई अनुमति नहीं दी है। दो लेखकों को छोड़ दें तो किसी लेखक के परिजन को तो आप जानते भी नहीं।
आप ?
अरे लखनऊ और गोरखपुर का अधिकांश लेखक समाज भी नहीं जानता कई दिवंगत लेखकों के परिजनों को। कैसे-कैसे मैं पहुंचा हूं , उन के परिजनों तक और कैसे तो उन की रचना प्राप्त की है , कितनों का सहयोग लिया है , मैं ही जानता हूं या भगवान जानता है। उत्तर प्रदेश , बिहार , मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ , पश्चिम बंगाल , कर्नाटक , महाराष्ट्र , गुजरात , जम्मू आदि के कई शहरों के संपर्क खंगाले हैं , लोगों से विनती की है। पतंग की तरह चक्कर काटे हैं , जैसे कोई भिखारी एक-एक दाना भिक्षा में पाता है वैसे ही एक-एक कहानी पाई है। तब कहीं जा कर कोई ढाई सौ से अधिक कहानियां इकट्ठी कर पाया हूं। यह एक ऐतिहासिक काम है। तीन सदी और पांच पीढ़ियों की कहानियां संकलित की हैं इस कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर में। कोई 6 हज़ार से अधिक पृष्ठ हो जाएंगे। लेकिन जितेंद्र पात्रो , आप झूठ बोलने के मास्टर हैं। झूठ के सौदागर हैं। पर आप की यह झूठ की मास्टरी और सौदागरी कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर में नहीं चलने वाली। नहीं चलने दूंगा। लेखकीय अस्मिता का तकाज़ा भी यही है। मेरी ही नहीं , तमाम लेखकों की लेखकीय अस्मिता इस झूठ को इज़ाज़त नहीं देती। बता देना चाहता हूं जितेंद्र पात्रो और उन के जैसे तमाम बेईमान प्रकाशकों को कि लेखक उन का बंधुआ मज़दूर नहीं है। और कि सभी लेखक , प्रकाशक के चारण नहीं होते। सभी लेखक प्रकाशक को पैसा दे कर किताब छपवाने वाले नहीं होते। सभी लेखक वह अफ़सर नहीं होते जो नंबर दो का एक करने-करवाने का टूल बनाते हैं , प्रकाशक को। तो जितेंद्र पात्रो आप अपने शेयर मार्केट के धंधे में दो और दो को मिला कर दो सौ करोड़ बनाइए। अफ़सरों के बीच अपनी दलाली भी ख़ूब कीजिए पर लेखकों का दोहन बंद कीजिए। पंद्रह-बीस किताबों का संस्करण छाप कर अपना कैटलॉग बड़ा बंद कीजिए। इस शॉर्टकट के बूते आप राजकमल और वाणी प्रकाशन जैसे प्रकाशकों का बाल भी बांका नहीं कर सकते। मज़ाक बन कर रह गए हैं आप प्रकाशन जगत में। यह तथ्य आप को नहीं मालूम तो अब से जान लीजिए।
कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर के सभी साझा लेखकों से विनम्र विनती है कि जितेंद्र पात्रो के इस लेखकीय अस्मिता पर प्रहार के ख़िलाफ़ एकजुट हों और रहें। सभी आदरणीय लेखकों से एक ईमानदार वादा भी करता हूं , दिवंगत लेखकों के आदरणीय परिजनों से भी वादा करता हूं कि कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर के सारे खंड इसी वर्ष 2022 में ससम्मान प्रकाशित करवाऊंगा। आप सब के अनमोल सहयोग और अपनी अकथ मेहनत को अकारथ नहीं जाने दूंगा। विचलित होने की तनिक भी ज़रुरत नहीं है। लेखक हैं तो पैसा भले न कमा सकें , सम्मान से , सीना तान कर खड़े तो हो ही सकते हैं। कृपया लेखकीय अस्मिता के लिए पूरी मज़बूती से खड़े रहिए। अपने साथ खड़े रहिए। मैं पूरी ताक़त और पूरी संवेदना के साथ आप के साथ खड़ा हूं। प्रकाशकों की मनमानी और फ़रेब के दिन अब बस विदा ही होने चाहते हैं। क्यों कि तमाम सरकारी ख़रीद बंद हो गई हैं। सो बड़े-बड़े प्रकाशकों की कमर टूट चुकी हैं। किताबों की दुकानों पर यह प्रकाशक किताब रखते नहीं। और कहते हैं कि किताब बिकती नहीं। किताब बिकती नहीं , राजा बाबू तो आप किताब छापने के धंधे में प्राण क्यों दे रहे हैं भला ! निर्मल वर्मा याद आते हैं। निर्मल जी ने अस्पताल के बेड से एक लेख में लिखा था कि मैं निजी तौर पर दिल्ली के कई हिंदी प्रकाशकों को जानता हूं। जिन के पास हिंदी की किताब छापने के अलावा कोई और व्यवसाय नहीं हैं। और यह प्रकाशक कहते हैं कि किताब बिकती नहीं। पर देखता हूं कि इन प्रकाशकों की कोठियां बड़ी होती जा रही हैं। कारें लंबी होती जा रही हैं और फ़ार्म हाऊस बढ़ते जा रहे हैं। और यह प्रकाशक कहते हैं कि किताब बिकती नहीं। तो यह सब कैसे और कहां से हो रहा है।
बहरहाल जो भी कोई मित्र इस कथा-लखनऊ के संपादक बन कर मेरे द्वारा संकलित की गई कहानियों का संपादक बन लेना चाहते हैं , उन्हें मेरी विनम्र सलाह है कि अगर उन के पास लेखकीय या पत्रकारीय रीढ़ शेष है तो उन्हें ख़ुद इस काम से लेखकों के हित में विरत हो जाना चाहिए। अगर रीढ़ , शेष है तो ! बाक़ी उन का विवेक है। या फिर अपनी चुनी हुई , अपने द्वारा खोजी गई कथाओं के साथ संकलन ले आएं , उन का स्वागत है। सैल्यूट है। पर मेरी मेहनत के दम पर , मेरी खोजी और प्राप्त की हुई कहानियों का संपादक बनना गुड बात नहीं है। हां , हो यह भी सकता है कि जितेंद्र पात्रो ख़ुद इस संकलन के संपादक बन कर उपस्थित हो जाएं। क्यों कि उन की इच्छा तो यह भी थी। जब कथा-लखनऊ पर काम करने लगा और काफी काम जब हो गया तो जितेंद्र पात्रो ने मुझ से अपनी यह इच्छा बताई थी कि संपादक आप रहिएगा और मैं सह-संपादक। मैं ने उन्हें तभी बता दिया था कि आप प्रकाशक हैं , आप वही रहिए। संपादक बनने का शौक़ मत पालिए। फिर वह अपने किसी रिसर्च वर्क का हवाला देने लगे कि उस के लिए ज़रुरी है। पर मैं ने उन्हें पूरी सख़्ती से मना कर दिया कि मेरे साथ यह नहीं हो पाएगा। मैं ने पहले ही देखा था , कुछ कथा-संकलनों पर उन का नाम बतौर सह-संपादक। तो मुझे बहुत बुरा लगा। फिर मेरे एक कथाकार मित्र ने अपने रचनाकार पिता की रचनावली संपादित की तो वहां भी जितेंद्र पात्रो का नाम बतौर सह-संपादक देखा। तो उन मित्र से पूछा मैं ने कि आप के पिता जी की रचनावली के संपादन में जितेंद्र पात्रो का क्या योगदान है। तो उन्हों ने बताया कि बिना मुझ से पूछे उन्हों ने अपना नाम जोड़ लिया है। मैं ने उन्हें बताया कि यह तो ग़लत बात है। आप को उन्हें इस ग़लत काम के लिए मना करना चाहिए। उन को मना कीजिए। रचनावली की पंद्रह-बीस कॉपी ही जितेंद्र पात्रो ने छापी थी। विमोचन के लिए। उस में भी प्रूफ़ की बेहिसाब अशुद्धियां। सह-संपादक से नाम हटाने की बात आ गई तो वह रचनावली आगे छापी ही नहीं। मित्र वह किताब मांगते ही रह गए , पर नहीं दी तो नहीं दी जितेंद्र पात्रो ने। बहुत सारे लोग जितेंद्र पात्रो को किताब दे कर झंख रहे हैं। वह किसी का फ़ोन नहीं उठाते। संदेश का जवाब नहीं देते। इस में भी कई लोग पैसा दिए बैठे हैं। ऐसा बहुत सारे लोग कहते हैं। प्रलेक प्रकाशन के वाट्सअप ग्रुप पर भी ऐसा कहते कई लोगों को देखा है। फ़ेसबुक पर भी। पर इतना सब होने के बाद भी छपास के मारे लेखक जहां भी कहीं अवसर पाते हैं टूट पड़ते हैं।
जितेंद्र पात्रो के प्रलेक प्रकाशन का यह एक बड़ा पहलू है कि वह ज़्यादातर किताबों की दस-बीस प्रति या हद से हद सौ या पचास प्रतियों का ही संस्करण छापते हैं। और लेखक लोग पैसा दे कर छपवा रहे हैं। जिस ने जितना पैसा दिया , उस की उतनी किताब छप जाती है। अमेज़न पर लिंक दे देते हैं , लेखक बंधु खुश हो जाते हैं। मैं ने प्रलेक से छपने वाले अपने उपन्यासों का अमेज़न लिंक दो महीने पहले फ़ेसबुक पर पोस्ट किया था। कई लोगों के फ़ोन आए मेरे पास कि अमेज़न पर तो यह उपन्यास है ही नहीं। संबंधित लोगों को जितेंद्र पात्रो का नंबर दिया कि इस बाबत इन से बात कीजिए। लोगों ने बात भी की। पर अमेज़न पर कोई किताब नहीं मिली। तो क्या मेरा सारा उपन्यास बिक गया ? फिर तो अप्रैल आ गया है , जितेंद्र पात्रो को मुझे अच्छी ख़ासी रायल्टी देनी चाहिए। रायल्टी ? अरे मैं ने सौ किताब मांगी थी। दो-दो , पांच-पांच कर के कुल तीस किताब दे कर अभी तक चुप हैं। अब क्या देंगे भला ! अगर पचास किताब ही छापी होगी तो क्या लेखक , क्या अमेज़न ? सब धान बाइस पसेरी। आप का तो कैटलॉग खड़ा हो गया सौ , दो सौ किताबों का। लेखक भी पांच किताब पा कर ख़ुश कि मेरी किताब छप गई।
बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रकाशन जगत में अब वालीवुड की तरह नंबर दो का एक करने का खेल भी घुस गया है। फ़िल्म चले न चले प्रोड्यूसर कमा लेता है। नंबर दो का एक कर के। पुस्तकों के प्रकाशन में भी अब यह खेल शुरु हो गया है। नंबर दो के एक का। किताब बिके न बिके प्रकाशक मालामाल। पुस्तक मेला लगाने वाला मालामाल। इस तरह इन लोगों के मालामाल होने में लेखक भी अब सिर्फ़ और सिर्फ़ माल हो गया है। पैसा दे कर लेखक किताब छपवाए तो प्रकाशक मालामाल। नंबर दो का एक कर के भी मालामाल। लखनऊ में कुछ अफसरों को मैं निजी तौर पर जानता हूं कि वह भोजपुरी फ़िल्मों के प्रोड्यूसर हैं। फ़िल्म कब बनती है , कब लगती है , कब उतरती है , कोई नहीं जानता। पर फ़िल्म इतना चलती है कि नंबर दो से नंबर एक वाली तिजोरी भर देती है। पहले के पुस्तक मेले जब लगते थे तो अख़बारों में ख़बर छपती थी कि इतने करोड़ की किताबें बिकीं। जब कई साल से ऐसा होने लगा तो अचानक इनकम टैक्स जागा। जांच-पड़ताल करने लगा। फिर ऐसी ख़बरें छपवानी बंद कर दी पुस्तक मेला आयोजकों ने। अभी लखनऊ में मार्च , 2022 के आख़िरी हफ़्ते में जो पुस्तक मेला लगा तो पता चला स्टाल वाले रो रहे थे कि होटल के खाने का भी खर्च नहीं निकल पा रहा। लेकिन जब मेला खत्म हुआ तो अखबारों में ख़बर छपी , 25 लाख से अधिक किताब बिकीं। बताइए कि पुस्तक मेले में लोगों से ज़्यादा कुत्ते घूम रहे थे पर किताबें लाखों में बिकीं।
आप जितेंद्र पात्रो के प्रलेक प्रकाशन का कैटलॉग उठा कर देख लीजिए। ज़्यादातर वृद्ध लेखकों या लेखिकाओं के नाम पर एक शिनाख़्त वाली सीरीज मिलेगी। शिनाख़्त भी क्या है। दो-चार समीक्षा टाइप लेख और कुछ फुटकर रचनाएं। या फिर तमाम अफ़सरों की किताब या फिर पैसा दे कर कुछ अनाम लेखकों , लेखिकाओं की किताब। तो जितेंद्र पात्रो प्रकाशन के नाम पर कुछ और कर रहे हैं। मुख्य व्यवसाय इन का कुछ और है। प्रकाशन इन का फुल टाइम जॉब नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे राहुल गांधी फुल टाइम पॉलिटिशियन नहीं हैं। उन का काम कुछ और है। जैसे कि 14 अप्रैल , 2022 को किसी अफ़सर की किताब का भी विमोचन जितेंद्र पात्रो लखनऊ में करवाने वाले हैं। विमोचन मुख्य मंत्री से करवाएंगे। ऐसा वह ख़ुद एक बातचीत में मुझ से कह गए हैं। उसी विमोचन गंगा में कथा-लखनऊ को भी नहला देना चाहते हैं। जो शायद ही मुमकिन हो। कम से कम मैं ऐसा होने से रोकूंगा ज़रुर। इस अनैतिक काम को नहीं होने दूंगा। अपनी क़लम की ताक़त पर मुझे पूरा भरोसा है। अपने साथी लेखकों के नैतिक सहयोग पर पूरा भरोसा है।
मई , 2021 में जितेंद्र पात्रो ने मुझ से इस बारे में बात की। कोरोना का क़हर था। उन्हों ने कहा कि एक आई ए एस अफ़सर ने मुझ से कहा है कि लखनऊ के लिए कुछ करो। कथा-लखनऊ का काम यहीं से सूझा। तो मुझे लगा कि कोई अफ़सर कहे या चपरासी , मुझे क्या। कथा पर काम करना मुझे रोमांचकारी भी लगा। फिर कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर पर काम करना शुरु किया। दिन-रात का फ़र्क़ भूल गया। भिखारी बन कर , शोधार्थी बन कर , प्रेमी बन कर काम किया। मछुवारा बन गया। भिखारी बन गया। एक-एक कहानी खोजने के लिए। कई बार निराशा हाथ आई। पर मैं अनवरत लगा रहा। कहां-कहां नहीं बात की , किस-किस भंवर में नहीं फंसा। इतनी मेहनत , इतनी यातना तो बेटी का विवाह खोजने में भी नहीं की थी , नहीं झेली थी मैं ने। क्या-क्या नहीं भोगा लेकिन किसी तपस्वी की तरह कहानियां खोजता रहा। इतनी मेहनत में तो मैं दो-तीन उपन्यास लिख गया होता। जैसा कि मेरे कई मित्रों ने कोरोना काल में किया भी। लेकिन मैं तो कहानियां खोजने के नशे में मशगूल था। ऐसा नशा , ज़िंदगी में कभी हुआ नहीं। जो कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर के लिए कहानियां खोजने में हुआ। कहानियां खोजने का नशा तारी था मुझ पर। अभी भी नशा उतरा नहीं है। कुछ कहानियां खोजने में लगा हूं। जब तक कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर छप नहीं जाता , तब तक यह यात्रा जारी रहेगी। तलाश जारी रहेगी। ख़बरची हूं। अख़बार छपने तक ख़बर खोजने का पुराना अभ्यास है। जड़ तक पहुंचने की आदत है। और तो और पुराना लैपटॉप साथ नहीं दे रहा था तो नया लैपटॉप ख़रीद लिया , कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर के लिए।
कोशिश थी कि अक्टूबर , 2021 में लगने वाले पुस्तक मेले में कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर आ जाए। ज़्यादातर लेखकों से मैं ने कोशिश की , निवेदन किया कि वह लोग टाइप कहानी ही भेजें। लेकिन कोई 70 कहानियां बिना टाइप की हुई मिलीं। बहुत खोजने के बाद मिलीं। यह कहानियां प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रो को टाइप के लिए मेल करना शुरु किया। वह बताते थे कि बिजी बहुत रहता हूं। हरदम मेल देख नहीं पाता। मैं ने कहा , ऐसे तो फिर मैं काम नहीं कर पाऊंगा। फिर उन्हों ने एक वाट्सअप ग्रुप बनाया। जिस में तीन लोग थे। एक मैं , एक वह ख़ुद तीसरे , टाइपिस्ट कृष्ण कुमार। फिर भी कहानियों की टाइपिंग की गति मद्धम थी। बहुत मद्धम। मैं सुबह-शाम फ़ोन करता। इन दोनों को कि जल्दी कीजिए। लेकिन टाइपिस्ट अकसर फ़ोन नहीं उठाता। जितेंद्र पात्रो भी फ़ोन उठाने में परहेज करने लगे। मैं कहता , अच्छा जो कहानियां टाइप हो गई हैं , उन के प्रिंट भेजें। ताकि प्रूफ देखना शुरु कर दूं। पात्रो ने कहा , सब इकट्ठा भेज दूंगा। मैं कहानियां खोजता रहा , भेजता रहा। लेकिन पात्रो की व्यावसायिक व्यस्तताएं , जैसा कि वह बताते रहे , बढ़ती जा रही थीं। कभी-कभी वह बीमारी की बात भी करते। उन दिनों मैं बेटे के पास नोएडा में ही था। मई , 2021 से जनवरी , 2022 तक। बीच में कुछ दिनों के लिए मई , 2021 में लखनऊ आया पर जल्दी ही नोएडा चला गया। पात्रो कहते , घबराइए नहीं टाइपिस्ट आप के पास भेज दूंगा , सब रातो-रात हो जाएगा। मान लिया मैं ने। लेकिन जितेंद्र पात्रो तो जितेंद्र पात्रो। झूठ बोलने के सरदार। सब्ज़बाग़ दिखाने के माहिऱ खिलाड़ी। मैं भी चुप लगा गया।
इस के पहले भी मार्च , 2021 के लखनऊ मेले में जितेंद्र पात्रो मिले थे। दो बार घर भी आए थे। हम से किताबें मांगी थीं। हम ने कुछ किताबें दीं। जिन में दो किताब छापी। एक ग़ज़ल-संग्रह मुहब्बत का जहांपनाह , दूसरी तीन उपन्यासों की एक किताब दयानंद पांडेय के तीन चर्चित उपन्यास। और उपन्यास वाली किताब तो किताब देने के तीन दिन के अंदर छपवा कर मेले में मंगवा ली। बिना प्रूफ़ पढ़े। कवर तक पर ग़लतियां थीं। फ़ोन कर-कर के ठीक करवाता रहा। पर आज तक प्रूफ़ की अशुद्धियां नहीं ठीक हुईं तो नहीं हुईं। तिस पर जलवा यह कि मुंबई लौटते ही एक दिन जितेंद्र पात्रो का फ़ोन आया कि आप के उपन्यास का अनुवाद उड़िया और अंगरेजी में हो रहा है। मैं ने कहा , बिना मुझ से पूछे ? वह बोले मैं ही करवा रहा हूं। अपने ही लोग हैं। किताब पाठ्यक्रम में भी लगवाने की बात कर दी उन्हों ने। मैं ने उन्हें बताया कि अभी आप ने भी कोई अनुबंध नहीं किया है , कर लीजिए। बाक़ी किताबों का भी अनुबंध कर लीजिए। बोले , सब हो जाएगा , सर , सब हो जाएगा। मान लिया। वसीम बरेलवी का वह एक शेर है न :
वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से
मैं ऐतबार न करता तो और क्या करता।
तो वसीम बरेलवी के इस शेर की राह ठगा सा चलता रहा। जितेंद्र पात्रो की बात का सलीक़ा ही कुछ ऐसा है। तभी एक दिन जितेंद्र पात्रो का फ़ोन आया कि उड़ीसा की एक संस्था ने आप को पचास हज़ार रुपए का एक सम्मान घोषित किया है। मैं यह सुन कर हंसा और बोला , मुझ तो किसी ने इस बाबत बताया नहीं। जितेंद्र पात्रो ने कहा कि मैं तो आप को बता रहा हूं। फिर उन्हों ने बताया कि अपनी ही संस्था है। अपने ही लोग हैं। फिर मुझे वसीम बरेलवी का वह शेर याद आ गया। और एक दिन तो हद्द हो गई। जितेंद्र पात्रो कहने लगे कि , सर , भुवनेश्वर चलने के लिए बिजनेस क्लास के बजाय इकोनामी क्लास में तो चल लेंगे न। क्यों कि टिकट मुझे ही लेना होगा। मैं ने कहा , घबराइए नहीं। मैं इकोनामी क्लास में ही चलता हूं। बिजनेस क्लास की मेरी हैसियत नहीं है। वह ख़ुश हो गए। पता चला जितेंद्र पात्रो , कुछ और लेखकों को भी भुवनेश्वर में पुरस्कार का यह झांसा दे चुके थे। क्यों कि अपनी फ़ेसबुक वाल पर मिलने वाले इस पुरस्कार के बाबत लोगों ने पोस्ट डाल रखी थी। एक तो आई ए एस अलायड थे। मुझे वह पोस्ट देख कर हंसी आई। और फिर वसीम बरेलवी का वह शेर याद आ गया। सोचा कि अगर मैं जितेंद्र पात्रो की बातों पर भले ही ऐतबार न कर रहा था , पर सुन तो रहा ही था। पुरस्कार और अनुवाद के ऐसे झांसे जितेंद्र पात्रो के लिए अब आम बात हो गई है। लोग अब जितेंद्र पात्रो के प्रकाशन जगत के ज़न्नत की हक़ीक़त अच्छी तरह जानने लगे हैं। प्याज की परत की तरह उन के तमाम कारनामे खुलते जा रहे हैं। बहरहाल लौटते हैं कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर के जितेंद्र पात्रो के प्रलेक प्रकाशन की झांसा कथा पर और उस का जायजा लेते हैं।
अचानक कोरोना का कोहरा छंटने लगा और लगा कि दिल्ली में पुस्तक मेला लगेगा। तो जितेंद्र पात्रो अचानक सक्रिय हुए। कहने लगे आप जल्दी से सारी कहानियां भेज दीजिए। मैं ने साफ़ बता दिया कि जब तक कंपोज कहानियों के प्रिंट या यूनीकोड फांट में वर्ड फ़ाइल नहीं मिल जाते , तब तक कोई कहानी नहीं भेज सकता। उन से कहा कि कंपोज कहानी न सही , प्रिंट ही भेज दीजिए। क्यों कि टाइपिस्ट का टाइप किया हुआ बिना देखे , हम किताब फाइनल नहीं कर सकते। और इतनी बड़ी किताब में एक भी ग़लती हो गई तो मैं तो कहीं मुंह दिखाने लायक़ नहीं रह जाऊंगा। आप के साथ फ़ोन पर करेक्शन करवाने का मेरा पुराना अनुभव बहुत ख़राब है। जितेंद्र पात्रो ने कहा , सर मैं आप को मेल से भेजता हूं। पर रोज-रोज टोकने पर भी मेल नहीं मिली। बहुत टोकने पर एक रात कहानियों का पी डी एफ मेल पर मिला। यह पी डी एफ फ़ाइल भी खुलने के लिए एक्सेस मांग रही थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं ने तुरंत फोन किया जितेंद्र पात्रो को लेकिन उन का फ़ोन नहीं उठा। उन को वाट्सअप पर संदेश भेज कर पूछा , कि आप सचमुच सीरियस हैं , कथा-लखनऊ को ले कर ? थोड़ी देर बाद पात्रो का फ़ोन आया। घबराए हुए बोले , सर क्या हुआ ? मैंने उन्हें बताया कि एक तो आप ने पी डी एफ फ़ाइल भेजी है। वह भी खुल नहीं रही। एक्सेस मांग रही है। यह क्या है ? वह अचानक सारी तोहमत टाइपिस्ट पर लगाते हुए कहने लगे , बहुत बदमाश है। मैं ने उन्हें बताया कि मेल आप की मिली है , टाइपिस्ट की नहीं। तो वह बोले , मेल उसी की है , मैं ने आप को फॉरवर्ड कर दिया , बिना देखे। मैं ने उन्हें फिर बताया कि फार्वर्डेड मेल नहीं है। तो पात्रो फौरन पैतरा बदल गए , मेरे स्टाफ ने फिर अलग से मेल कर दिया होगा। खैर , देर रात हो चुकी थी सो दूसरे दिन मेल एक्सेस करवाने को अलाऊ किया जितेंद्र पात्रो ने। फ़ाइल खुली तो पता चला कि चौबीस कहानियां ही हैं। उस में भी कहानी किसी की , लेखक कोई और। यह सब देख कर मुझे गुस्सा आ गया। फ़ोन किया जितेंद्र पात्रो को कि चौबीस कहानियां ही हैं। बाक़ी कहानियां कहां हैं ? वह बोले , टाइप हो रही हैं। फिर मैं गुस्सा हुआ कि यह क्या बात हुई ? तो कहने लगे , जल्दी हो जाएगी टाइप आप टेंशन मत लीजिए सर। मैं ने पूछा कि कहानी किसी की और लेखक का नाम कोई और , यह क्या है ? यहां तक कि जिस की कहानी कभी भेजी ही नहीं , उस लेखक का नाम भी एक कहानी पर है। यह क्या है ? फिर सारा ठीकरा टाइपिस्ट पर फोड़ दिया , जितेंद्र पात्रो ने ।
कुछ दिन बाद जितेंद्र पात्रो ने मेल पर एक एग्रीमेंट भेजा। पी डी एफ में। अंगरेजी में। एग्रीमेंट देख कर फिर हंसी भी आई और गुस्सा भी आया। नवंबर महीने की स्पेलिंग देख कर तो और हंसी आई। उसी दिन जितेंद्र पात्रो के एक कर्मचारी शुक्ला जी का फ़ोन आया कि दस्तख़त कर दिया हो तो एग्रीमेंट लेने आ जाऊं। मैं ने उन्हें बताया कि दस्तख़त करने के लिए प्रिंट निकालना पड़ेगा। मेरे पास प्रिंटर नहीं है। बाज़ार जाना पड़ेगा। शुक्ला जी ने कहा कि मैं प्रिंट ले कर आ जाता हूं। आप दस्तख़त कर दीजिएगा। बार-बार पात्रो जी का फ़ोन आ रहा है। मैं ने शुक्ला जी से कहा कि अभी उस में कुछ करेक्शन करना होगा। पात्रो जी को मैं बता दूंगा , तब आप आइएगा। अभी मत आइए। फिर फोन कर जितेंद्र पात्रो से कहा कि यह क्या मजाक है ? एकतरफा एग्रीमेंट ? वह भी अंगरेजी में ? जितेंद्र पात्रो ने कहा कि एग्रीमेंट तो अंगरेजी में ही होता है सर , और ऐसे ही होता है। मैं ने बताया उन्हें कि विभिन्न प्रकाशनों से कोई पचास किताबें छप चुकी हैं। बहुत से एग्रीमेंट देखे हैं। खैर चलिए अंगरेजी में ही रहने दीजिए। कोई बात नहीं। पर यह एग्रीमेंट एकतरफा है। इसे ठीक कर दीजिए। सारे हित इस में प्रकाशक के ही हैं , लेखक के हित तो गायब हैं। उन्हें बताया कि ज़्यादा नहीं हर लेखक को किताब की लेखकीय दो प्रति और एक निश्चित मानदेय तय कर लिख दीजिए। फिर मेरा मानदेय भी दर्ज कर दीजिए। ऐसा एग्रीमेंट बना कर भेजिए। और उस के पहले टाइप कहानियों का प्रिंट या यूनीकोड में वार्ड फ़ाइल भेजिए। जितेंद्र पात्रो ने साफ़ कहा कि लेखकों को किताब की एक कॉपी भी नहीं दूंगा। न लेखक या आप को कोई मानदेय दे पाऊंगा। मेरा बहुत घाटा हो जाएगा। मैं ने उन से गुस्सा हो कर कहा , आप लेखक को क्या समझते हैं ? लेखक आप को कहानी भी दे और वह किताब भी ख़रीदे। यह तो नहीं हो पाएगा। उन्हें याद दिलाया कि काम शुरु होने के पहले तो मौखिक रुप से यह तय हुआ था। बल्कि मैं आप से कथा-लखनऊ और कथा-गोरखपुर के सारे खंडों के पचास सेट भी मांगे थे। मुफ्त। और कि सभी लेखकों के लिए लेखकीय प्रति और मानदेय की भी बात हुई थी। न्यूनतम एक हज़ार रुपए मानदेय की बात हुई थी प्रति कहानी। जितेंद्र पात्रो चुप रह गए। फिर कहने लगे ऐसा कुछ नहीं हुआ था। आप को मानदेय तो नहीं दे पाऊंगा। आप मान जाइए। मैं ने कहा , टाइपिस्ट को पैसा दिया ? काग़ज़ , छपाई और बाइंडिंग का भी देंगे ही ? मुझे क्यों नहीं ? वह बोले , अच्छा देखते हैं। मैं ने कहा कि सहयोगी लेखकों का ? कहने लगे मानदेय कहां दे पाऊंगा। मैं ने पूछा और लेखकीय प्रति ? वह बोले , लेखक ख़ुद खरीद लेगा। मैं ने कहा यह तो न हो पाएगा कि लेखक आप को कहानी भी दे और किताब भी ख़रीदे। लेखकीय प्रति भी एक कॉपी न मिले। मैं तो यह नहीं होने दूंगा। मैं ने कहा ज़्यादा से ज़्यादा यह कर सकता हूं कि आप मुझे मानदेय मत दीजिए। इस से ज़्यादा कुछ नहीं। बात ख़त्म हो गई। नवंबर में पता चला कि जितेंद्र पात्रो ने यह काम लखनऊ में एक कवि और पत्रकार के सिपुर्द कर दिया है। तो मैंने उन्हें 26 नवंबर को संदेश भेजा :
पता चला है कि आप ने कथा-लखनऊ का संपादन किसी और मित्र को सौंप दिया है। बहुत बधाई और शुभकामना। बस एक निवेदन है कि जो भी कहानियां मैं ने भेजी थीं, टाइप के लिए कृपया उन में से किसी कहानी का उपयोग उस में नहीं कीजिएगा।
अब जितेंद्र पात्रो का फ़ोन आया कि सर , आप नहीं कर रहे थे तो क्या करता। अब जो भी संपादक आएगा , क्या कहानी ले कर आएगा , वह ही जाने। मैं ने कहा कि वह तो ठीक है पर जो कहानियां मैं ने भेजी हैं , उन से कह दीजिएगा कि वह इन कहानियों को न लें। फिर वह दाएं-बाएं बोलने लगे। एक दिन बाद फिर फोन आया कि आप का बच्चा हूं सर , माफ़ कर दीजिए। यह प्रोजेक्ट आप ही करेंगे। मैं ने मदनलाल नागर की एक पेंटिंग पर कथा-लखनऊ का एक कवर बनवा कर कथा-लखनऊ की भूमिका सारी कहानियों और कहानीकारों के नाम फ़ेसबुक पर पोस्ट कर दिए। यह 30 नवंबर , 2021 की बात है। अलग बात है बाद में इस कथा-लखनऊ में कुछ कहानियां और भी जुड़ गईं। जुड़ती ही रहीं , निरंतर। लेकिन भूमिका जारी होते ही जितेंद्र पात्रो फिर भटकाने लगे। उन को लगा कि अब मैं इस का सार्वजनिक ऐलान कर के फंस गया हूं। अब तो मेरी लाचारी है। अचानक जितेंद्र पात्रो फिर सक्रिय हुए। 21 दिसंबर , 2021 को कथा-गोरखपुर की भूमिका और कहानियों और कहानीकारों की सूची फ़ेसबुक पर पोस्ट कर दी। बाद में फिर कुछ और कहानियां भी जुड़ीं। जैसे-जैसे दिल्ली पुस्तक मेला क़रीब आता गया जितेंद्र पात्रो सारी कहानियां भेजने पर जोर देते रहे। पर मैं अडिग था और कि फ़ोन पर , संदेश में भी कहता रहा कि जब तक एग्रीमेंट की शर्तें लेखकों के पक्ष में नहीं आ जातीं , कंपोज कहानियों की फ़ाइल या प्रिंट देखे बिना मैं सारी कहानियां तो क्या एक भी कहानियां नहीं भेजने वाला। क्यों कि झूठ भी अब जितेंद्र पात्रो सलीक़े से नहीं बेहूदगी से बोलने लगे थे। तो अब कोई ऐतबार नहीं रह गया था।
फिर एक दिन फोन आया जितेंद्र पात्रो का। कहने लगे कि दिल्ली पुस्तक मेले में किताब जैसे भी आए लानी है। रातो-रात सब फाइनल करवा दूंगा। आप सारी कहानियां भेज दीजिए। मैं ने फिर टाइप की हुई कहानियों के बाबत पूछा। वह बोले भिजवा रहा हूं। पर अब दिल्ली पुस्तक मेला स्थगित होने की ख़बर आने लगी। अंतत: दिल्ली पुस्तक मेला स्थगित हो गया। जितेंद्र पात्रो फिर सो गए। पर मैं पीछे पड़ा रहा। तो अब की 600 पेज की एक पी डी एफ मेल आई। लेकिन फिर वही-वही गलतियां। फोन पर जो भी करेक्शन बता सकता था , बता दिया था। पर कुछ करेक्शन हुआ , कुछ रह गया। यह कहने पर फिर सारा ठीकरा टाइपिस्ट पर। मैं ने कहा जितेंद्र पात्रो जी , ऐसे तो न हो पाएगा ! 5 जनवरी को उन्हें लिखा :
आप अपनी बात के पक्के नहीं हैं। मुझे नहीं लगता कि आप कथा-लखनऊ या कथा-गोरखपुर के लिए सीरियस हैं। या इसे पूरा भी कर पाएंगे। बहाने बहुत हैं आप के पास। एक नए प्रकाशक को ऐसे प्रसंग से बचना चाहिए। बात का पक्का होना, विश्वसनीय होना , प्रकाशन ही नहीं, किसी भी व्यवसाय के लिए बहुत आवश्यक होता है। आप को यह बात जान लेनी चाहिए। फ़ोन न उठाना भी आप की बड़ी बीमारी है। होता है कई बार कि आदमी फोन नहीं उठा पाता। पर बाद में कालबैक करता है। आप इस शिष्टाचार से भी परिचित नहीं हैं। खैर, आप अपनी इन बातों को अगर अपनी खासियत समझ रहे हैं तो यह आप की भूल है। अभी आप अनुभवहीन हैं, पुत्रवत हैं तो यह बातें दुहरा दी हैं। बाकी आप की अपनी सुविधा , अपनी दुविधा , अपना विवेक है। झूठ बोलना छोड़ कर स्पष्ट बात करने का अभ्यास कीजिए। आप के लिए शुभ होगा। प्रलेक के लिए भी। शुभचिंतक हूं, कह दे रहा हूं। सब लोग इस तरह से शायद आप से यह नहीं कह पाएंगे। लेकिन पीठ पीछे कहने लगे हैं। प्रसंगवश बताता चलूं कि कोई 70 कहानियां प्रलेक प्रकाशन के जितेंद्र पात्रो को टाइप के लिए भेजी हैं मैं ने। जिन में से कोई 60 कहानियों को टाइप करवा कर उन की पी डी एफ फ़ाइल भिजवाई हैं , जितेंद्र पात्रो ने। 10 कहानियां अभी और टाइप होनी हैं।
फिर वह कहने लगे , फ़ाइल पेज मेकर में है। मैं ने कहा , पेजमेकर ही भेज दीजिए। और जो बहुत डर है अपने कंपोज मैटर का तो प्रिंट भेज दीजिए। अब वह चाहते थे कि प्रिंट मैं निकलवा लूं। मैं ने कहा , किस ख़ुशी में ? वार्ड फ़ाइल में भेजने पर उन का कहना था , सारा फांट टूट जाएगा। मैं हंस कर रह गया। पहले भी कई बार वह ऐसा कह चुके थे। मैं ने उन से कहा कि , 600 पेज के फांट आप के टूट जा रहे हैं। और यहां कोई छ हज़ार से अधिक पेज कंपोज रखे हैं , उन के फांट नहीं टूटेंगे ? क्यों पहाड़ा पढ़ा रहे हैं ? फिर उन्हों ने पेज मेकर फ़ाइल भेजने की बात की। भेजी मेल पर लेकिन वह भी नहीं खुली। कुछ दिन बाद उन्हों ने बताया कि वह डिजाइनर फ़ाइल है। बात फिर खत्म हो गई। अब जब मार्च में लखनऊ में पुस्तक मेला लगने की बात आई तो जितेंद्र पात्रो को फिर कथा-लखनऊ की याद आई। वह फिर पीछे पड़े। मैं अब उन के किसी झूठ में आने से इंकार करने लगा। 8 मार्च , 2022 को जितेंद्र पात्रो का संदेश आया कि एटलीस्ट 2 खंड तो बना कर भेज दीजिए। तो मैं ने उन्हें बता दिया कि मुझे लगता है आप इस चैप्टर को क्लोज कर चुके हैं। क्लोज ही रहने दें। तो जितेंद्र पात्रो ने लिखा , हम ने तो क्लोज नहीं किया था। काम पर इनवेस्ट किया गया , आप को अनुबंध भेजा गया। तो मैं ने 8 मार्च , 2022 को ही उन्हें लिखा :
अविश्वास की दीवार निरंतर खड़ी की। कभी सहयोग नहीं किया। जान लड़ा दी इस काम पर मैं ने। दिन-रात एक कर दिया। अपनी प्रतिष्ठा, अपना अनुभव , अपना समय सर्वस्व दांव पर लगा दिया। और आप ने एक प्रिंट भेजने में, एक फाइल भेजने में कितना तो नाटक किया है। कितना तो अपमानित किया है।
लेखन और संपादन का काम अपमानित होने के लिए कभी नहीं किया। 600 पृष्ठ कंपोज करवा कर, जिस का मैटर भी मैं ने ही भेजा है , कितना तो जलील किया है।
600 पेज कंपोज भेजने में आप को पसीना आ गया। भूल गए कि मेरे पास अभी 6000 से अधिक पेज कंपोज रखे हैं। यह भी कहा कि मत भेजिए, कंपोज सिर्फ़ प्रिंट ही भेज दीजिए। पर आप हां-हां करते हुए घुमाते रहे। जनवरी में दिल्ली का मेला आया तो आप की नींद खुली। फिर मेला स्थगित हुआ तो नींद आ गई। अब लखनऊ का मेला आया है तो फिर नींद खुली है आज।
लेखकों को दो प्रति आप देना नहीं चाहते। कंपोज फ़ाईल के 600 पेज आप देना नहीं चाहते। प्रिंट आप देना नहीं चाहते। सारे खंड में एक साथ आप की दिलचस्पी नहीं है। सिर्फ़ अविश्वास की दीवार खड़ी करने का शौक है आप को।
खैर, यह आप की सुविधा और आप का विवेक है।
फिर जितेंद्र पात्रो ने माना कि लेखकों को दो प्रतियां दे दी जाएंगी। लेकिन मानदेय नहीं। एग्रीमेंट पर कुछ लिखने को तैयार नहीं। लेकिन अब मेरा जितेंद्र पात्रो के झूठ से जी भर गया था। मैं ने उन्हें लिखा :
तो फिर आप क्यों यह बार-बार कह रहे हैं कि मेरे कहने से कुछ किया। अरे, मैं ने आप के कहने से सब कुछ किया। अपना अनुभव , अध्ययन , और अपने सम्पर्कों का बेस्ट यूज किया। और आप 600 पेज की टाईपिंग का ऐसा कांटा बिछा बैठे अपने आसपास कि अब उस में से निकलना कठिन हो गया है। एक छोटी सी बात नहीं समझ पाए कि लेखक से प्रकाशक होता है। सिर्फ़ टाइपिंग से नहीं। लेकिन यह आप की अपनी चतुराई है। आप ही जानिए।
इस पर जितेंद्र पात्रो ने लिखा कि अब हम किताब ला रहे हैं। मैं ने उन्हें लिखा : आप किताब ला रहे हैं , अवश्य लाइए। मेरी शुभकामना। बात ख़त्म हो गई। अब 5 अप्रैल , 2022 को संदेश आया कि फला ने आप का इतना बड़ा काम कर दिया और आप मेरा नुकसान कर के बैठ गए। मैं ने उन्हें लिखा :
क्या हरदम बच्चों जैसी बात करते रहते हैं। मैं ने कोई नुकसान आप का नहीं किया। जो भी हुआ है , आप खुद जिम्मेदार हैं। आप की अतिशय होशियारी जिम्मेदार है। आप स्वतंत्र हैं और मैं भी। फला जी ने ज़रुर मेरी मदद की है। एक रूटीन काम था। फला ने टी डी एस काट कर जमा नहीं किया था। वह जमा करवा दिया। उन का हृदय से आभारी हूं। फला ने इस की सलाह दी थी। उन्हों ने ही आप को भी बताया होगा। फिर जितेंद्र पात्रो ने सूचना दी कि :
कथा लखनऊ मैं अब ला रहा हूँ।
हो सकता है CM साहब उसका लोकार्पण 14 तारिक को ही करेंगे।
मैंने उन्हें फिर बधाई दी और कहा कि आप ख़ूब तरक़्क़ी कीजिए। ख़ूब आगे बढ़िए। उन्हों ने शुक्रिया अदा किया। मैं ने उन्हें बताया कि :
आदमी हर चीज़ नहीं कर सकता। मैं जो भी करना चाहता हूं, ठीक-ठीक ढंग से करना चाहता हूं।
आप में मुझ में यह एक बुनियादी फ़र्क़ है। रहेगा।
फिर शायद 5 अप्रैल को एक कविता लिखी जितेंद्र पात्रो ने जिसे फेसबुक पर पोस्ट की। कागज़ के मालिक ने कहा, “तू है बंधुआ मजदूर हमारा। इस कविता को जितेंद्र पात्रो ने फेसबुक पर जब पोस्ट किया तो तमाम प्रकाशनार्थी , यश: प्रार्थी लेखक इस कविता पर लहालोट हो कर बिछ गए। इन लेखकों को इस कविता का पाठ करते समय काग़ज़ की जगह प्रकाशक रख कर करना चाहिए। लेखकों को अपनी स्थिति शायद समझ आ जाए। खैर कल यानी 6 अप्रैल को यह कविता कोट करते हुए जितेंद्र पात्रो को मैं ने संदेश भेजा :
आप को आप की इस कविता की सौगंध कि आप टाइप करने के लिए भेजी गई 60 कहानियों में से कोई भी कहानी कृपया कहीं किसी भी कथा-संकलन में उपयोग नहीं करेंगे। इतना मान तो मेरी बात का , मेरे निवेदन का रखेंगे ही आप , ऐसा मेरा विश्वास है। जितेंद्र पात्रो समझ गए कि अब उन के सारे झूठ की कलई उतर गई है तो साफ़ लिख दिया :
आदरणीय सर,
जब आपने मेरी किसी भी बात का मान नहीं रखा तो आप मुझसे क्यों कोई उम्मीद रख रहे हैं?
आगे कई बातें और लिखते हुए लिखा जितेंद्र पात्रो ने :
ऑलमोस्ट सारे लेखकों से बात हो चुकी है,
चीफ साहब से अप्रूवल भी आ चुका है।
चीफ साहब का मतलब जहां तक मैं समझ सका हूं , जितेंद्र पात्रो का आशय चीफ मिनिस्टर से है। तो क्या मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ किसी ऐसी किताब का विमोचन करेंगे ? जो इस तरह का फ्राड करने वाला प्रकाशक लेखकों की बिना अनुमति के किताब छाप रहा हो। जिस के प्रकाशन की सारी करतूत झूठ और फ्राड पर टिकी हो। फ़िलहाल जितेंद्र पात्रो की वह कविता मुलाहिज़ा हो , जिसे फ़ेसबुक पर उन्हों ने पोस्ट की है। बस काग़ज़ की जगह प्रकाशन रख कर पढ़ें। तब जितेंद्र पात्रो इस कविता में क्या कहना चाह रहे हैं , क्यों कह रहे हैं , शायद लेखक , कवि , पत्रकार समझ सकें। शायद न भी समझें। यह लोग ख़ुद तय कर लें तो बेहतर ! साथ ही जिन टाइप हुई कहानियों की सूची उन्हों ने मेल पर भेजी है , वह भी। एग्रीमेंट की पी डी एफ जो उन्हों ने भेजी है , उसे भी देखें। कहानीकारों और कहानियों की सूची भी।
●कागज़ के मालिक ने कहा, “तू है बंधुआ मजदूर हमारा।”●
लड़ाई वह नहीं जो तुम समझ रहे हो,
लड़ाई उस विचारधारा के खिलाफ है,
जिसे तुम जानते हुए भी अनजान बन रहे हो।
चीज तुम्हारी, हक तुम्हारा,
कागज़ का मालिक कहे, ●”तुम बंधुआ मजदूर हमारा !”●
कलम तुम्हारी दिल तुम्हारा,
भावनाएं तुम्हारी ज़मीर तुम्हारा,
जब तुम उतरो कागज के पन्नों पर,
कागज का मालिक कहे, “तुम बंधुआ मजदूर हमारा!””
जीवन तुम्हारा, उसकी गाथा तुम्हारी,
जो तुमने पन्नों पर उतारी बात जीवन की,
हम जैसों ने कहा तुम हो हमारी,
फिर कागज का मालिक कहे, “तुम बंधुआ मजदूर हमारा!”
तुम लड़े हर उस क्षण से जहां संघर्ष था,
कलम थामा तुमने नए दिन के लिए,
सोचा तुमने कुछ तो बदलेगा,
जो अपनी बात लिखूं कोई तो समझेगा !!
यह भी बताओ मेरे प्रिय लेखक
जो तुम कलम थामे, हमने संघर्ष करना सिख लिया,
जो तुम्हारे साथ हुआ अन्याय,
तुमने खुद के कलम को क्यों गिरा दिया?
कह दो मेरे यार तुम मिथ्या लिखते हो,
बता दो दुनिया को तुम झूठ लिखते हो,
अन्याय से तुम लड़ नहीं सकते,
और हमको झूठे लड़ना सिखाते हो ?
जो है तेरी बातों में सच्चाई तो,
लड़ जा उस अन्याय के खिलाफ़,
लड़ जा उस डर और आतंक के खिलाफ,
लड़ जा उस तानाशाह के खिलाफ,
यह न सोच तेरे साथ कौन खड़ा है,
यह भी सोच तेरे लिए कौन-कौन लड़ा है !!
मेरे प्यारे लेखक तू कितना मजबूर है,
तानाशाह पर विश्वास कर,
तूने खुद के हाथों काटी अपनी कलाई,
इसमें तेरा क्या कसूर है ?
विश्वास कर तूने कागज पर सब कुछ उतार दिया
कागज के मालिक ने कहा, “तू हमारा बंधुआ मजदूर है।”
तू सोचता है कलम से तुझे रोटी मिलेगी !!
नासमझ है तू नादान है तू,
जो तूने अपने आप को पन्नों पर उतारा,
कागज़ के मालिक ने कहा, “तू है बंधुआ मजदूर हमारा।”
सुन मेरे लेखक,
लड़ जा, उस हद तक गुजर जा,
तो तूने कागज पर लिखा है ।
विवश होकर न मर, तूने साहित्य को जिंदा रखा है।
तेरे आंसुओं की भाषा तानाशाह समझ न पाएगा,
वो गिरगिट की तरह तेरे घर तक आएगा,
और कहेगा मैं कागज का मालिक हूं …
प्यारे लेखक फिर तू “बंधुआ मजदूर” ही कहलाएगा।
जब तक तेरी आवाज़,
दिल्ली से होकर लंदन अमरीका वालों तक ना जाएगी,
वो तुझे कलमकार न मानेंगे।
जिंदा है तू पर पाषाण ही कहलाएगा,
प्यारे लेखक तू “बंधुआ मजदूर” ही कहलाएगा।
प्यारे लेखक ….
तू क्रांति की बात करना छोड़ दे,
अपनी कलम को तोड़ दे,
जो तू खुद के लिए नहीं लड़ सकता,
तो साहित्य की डगर ही छोड़ दे।
तेरी बुजदिली के कारण,
लोग तेरा साथ देना छोड़ देंगे।
जो आज तूने अपनी आवाज खुद दबा दी,
तेरे चाहने वाले तुझ से मुंह मोड़ लेंगे।
फिर तू बंधुआ था और बंधुआ मजदूर ही कहलाएगा।
साहित्य में हमने निराला से लेकर दुष्यंत तक को देखा है,
जिसने शिक्षा मंत्री की कुर्सी उठाकर फेंक दी,
साहित्य में उसकी अमिट रेखा है।
जो तू अपने लिए कुछ न कर सका,
तो कागज़ का मालिक कल को कहेगा,
लेखक बुजदिल है बुजदिल ही रहेगा,
तू कागज के मालिक का बंधुआ मजदूर ही कहलाएगा।
कागज का मालिक कहेगा,
“प्यारे लेखक तू मेरा बंधुआ था और बंधुआ ही रहेगा।”
प्यारे लेखक, “तू बंधुआ मजदूर ही कहलाएगा।”
~ Jitendra पत्रों
कथा-लखनऊ की कहानियां
1. रानी केतकी की कहानी ● इंशा अली खां इंशा
2. शतरंज के खिलाड़ी ● प्रेमचंद
3. दुखवा मैं कासे कहूं ● आचार्य चतुरसेन शास्त्री
4. मुंडमाल ● शिवपूजन सहाय
5. मेला घुमनी ● अली अब्बास हुसैनी
6. लिली ● सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
7. अवगुंठन ● सुमित्रानंदन पंत
8. दो बाँके ● भगवतीचरण वर्मा
9. रेल की रात ● इलाचंद्र जोशी
10. चित्र का शीर्षक ● यशपाल
11. इफ़्तारी ● रशीद जहां
12. दुलारी ● सज्जाद ज़हीर
13. भक्तिन ● महादेवी वर्मा
14. तंत्र-मंत्र ● हजारी प्रसाद द्विवेदी
15. आखिरी कोशिश ● हयातुल्ला अंसारी
16. मुग़ल बच्चा ● इस्मत चुगताई
17. आदमी: जाना-अनजाना ● अमृतलाल नागर
18. गंगा-लाभ ● गंगा प्रसाद मिश्र
19. नमक़ ● रज़िया सज्जाद ज़हीर
20. मूर्ख बालक ● स्वरूप कुमारी बक्शी
21. हिरनी ● चंद्रकिरण सौनरेक्सा
22. एक शहरी पाकिस्तान का ● रामलाल
23. करिये छिमा ● शिवानी
24. खण्डिता ● ठाकुर प्रसाद सिंह
25. मौत के मुंह में ●बशेषर प्रदीप
26. इस उम्र में ● श्रीलाल शुक्ल
27. पतझड़ की आवाज़ ● कुर्रतुल एन हैदर
28. तिल-तंदुल ● शांति देवबाला
29. हज़ारों साल लंबी रात ● रतन सिंह
30. आकारों के आसपास ● कुँवर नारायण
31. कुत्ते ● कृष्ण नारायण कक्कड़
32. सेब ● रघुवीर सहाय
33. आशीर्वचन ● शेखर जोशी
34. सवा नेजे पर सूरज ● आबिद सुहैल
35. मुठभेड़ ● मुद्राराक्षस
36. गवाह ● वीर राजा
37. सिल्वर वेडिंग ● मनोहर श्याम जोशी
38. कांटा ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव
39. नक़द भुगतान ● इक़बाल मज़ीद
40. संक्रमण ● कामतानाथ
41. महबूबा ● विलायत ज़ाफ़री
42. रिटायर्ड अफ़सर ● अवध नारायण मुद्गल
43. भँवर ● डॉ0 ऊषा चौधरी
44. पराया चांद ● योगेश प्रवीन
45. यकीन ● सुषमा श्रीवास्तव
46. सब्जेक्ट ● मुहम्मद ताहिर
47. ढोर ● अचला नागर
48. वह न हो सकी …..परम ● गोपाल उपाध्याय
49. मैं एक बौना मानव ● महेश चंद्र द्विवेदी
50. अपना परिवार ● डॉ. रामकठिन सिंह
51. मोहपाश ● उषा सक्सेना
52. पहला प्यार ● प्रदीप पंत
53. मठ ● अनिल सिनहा
54. बीता हुआ कल ● शारदा लाल
55. छिले हुए कंधे ● विजयेंद्र कुमार
56. छज्जूराम दिनमणि ● मोहन थपलियाल
57. नायक ● उर्मिल कुमार थपलियाल
58. मैं सावित्री नहीं हूं ● इंदु शुक्ला
59. भगोड़ा ● आनंद स्वरूप वर्मा
60. नन्हा गाइड ● शीला मिश्रा
61. दूसरी बार न्याय ● सुमति लाल सक्सेना
62. कर्णफूल ● उषा अवस्थी
63. उजली सुबह का अंजाम ● आइशा सिद्दीक़ी
64. एक और मां ● विद्या बिंदु सिंह
65. ये घर ये लोग ● नसीम साकेती
66. लल्लू लाल कौ रुपैया ● विभांशु दिव्याल
67. शांतिधाम ● नीरजा द्विवेदी
68. मुन्नी ● ज्ञानेंद्र शर्मा
69. भगतन ● परवीन तल्हा
70. अरे तुम ! ● मंजुलता तिवारी
71. खंडहरों का साम्राज्य ● सुशील कुमार सिंह
72. ताई की बुनाई ● दीपक शर्मा
73. अपने विरुद्ध ● नवनीत मिश्र
74. अभिनेत्री ● विनोद भारद्वाज
75. कन्यादान ● शशि जैन
76. मुरदाघर ● उषा यादव
77. सुनवाई ● डा0 सबीहा अनवर
78. चक्रव्यूह ● उषा सिनहा
79. शिकार ● शक़ील सिद्दीक़ी
80. भरतनाट्यम ● शिवमूर्ति
81. गुरु ● आई बी सिंह
82. मुस्कान ● डाक्टर निर्मला सिंह ‘ निर्मल ‘
83. भैया साहब का अहाता ● बंधु कुशावर्ती
84. तेरे सुर और मेरे गीत ● डा0 मंजु शुक्ल
85. डॉक्टर लारेंजो ● योगीन्द्र द्विवेदी
86. नन्दू जिज्जी ● हरिचरन प्रकाश
87. विलोपन ● शैलेंद्र सागर
88. प्रजेंटेबिल ● डा0 निशा गहलौत
89. बदलाव के रंग ● डॉ अर्चना प्रकाश
90. अनोखी प्रेम कहानी ● निरुपमा मेहरोत्रा
91. आरण्या ● राकेश तिवारी
92. अंबिका ● सुधा शुक्ला
93. आऊंगा एक बार फिर ● सुधा आदेश
94. उस की दीवाली ● पूर्णिमा वर्मन
95. उस के हिस्से का समय ● प्रताप दीक्षित
96. बाघैन ● नवीन जोशी
97. पिल्ले ● सुधाकर अदीब
98. जीवन में घुन ● प्रतिमा भाटिया
99. पुलिस वाला ● प्रेमेंद्र श्रीवास्तव
100. पीठ पीछे की दुनिया ● नीलम चतुर्वेदी
101. अम्मी ● स्नेह लता
102. हारूंगी नहीं मैं ● अर्चना श्रीवास्तव
103. खोल ● अशोक चंद्र
104. गजाधर पाण्डे़ जिंदा हैं ? ● अखिलेश श्रीवास्तव चमन
105. पुनः ● राजा सिंह
106. सॉरी पापा ● राजेन्द्र वर्मा
107. गुड्डा भइया ● सुषमा गुप्ता
108. समय बे-समय ● देवेंद्र
109. एक जीनियस की विवादास्पद मौत ● दयानंद पांडेय
110. सिगेरां वाली ● राजवंत राज
111. फिरोज़ मंज़िल की रोमिला ● राजेश्वर वशिष्ठ
112. ललिया भौजी ● नमिता सचान सुंदर
113. रोटी का टुकड़ा ● अलका प्रमोद
114. बुत जागेंगे ● रिज़वाना सैफ
115. बिट्टो, अन्नू, राधा, बाबूजी और जाड़े के एक दिन की अधूरी कहानी ● कात्यायनी
116. मोतियाबिंद ● बी.आर.विप्लवी
117. मिलन ● संजीव जायसवाल ‘संजय’
118. चेक बाउंस ● रंजना गुप्ता
119. काका का लोन ● नीरजा हेमेंद्र
120. कहानी के अन्दर की कहानी ● डॉ अनिल मिश्र
121. तूफानी के बाद दुनिया ● सुभाष चन्द्र कुशवाहा
122. प्रतिध्वनि ● नीलम राकेश
123. पतली गली की ऐश्वर्या ● रश्मि बड़थ्वाल
124. अग्निगर्भा ● दिव्या शुक्ला
125. चिरई क जियरा उदास ● प्रज्ञा पांडेय
126. जहरा ● मोहसिन खान
127. हम होंगे कामयाब ● निवेदिताश्री
128. डबरे का पानी ● उषा राय
129. स्वप्नछंद ● गौतम चटर्जी
130. और बस रेत ● रजनी गुप्त
131. आंगन के उस पार ● कुमकुम शर्मा
132. कबाड़ ● आलोक कुमार दुबे
133. चुंबकत्व ● शिशिर सिंह
134. सीक्रेट पार्टनर ● मीनू खरे
135. जीवन-सखी ● रेखा तनवीर पंकज
136. उफ़ उन की अदा ● आभा काला
137. दिद्दा अम्मू ● अनुजा
138. शोहरत की किरचें ● तरुण निशांत
139. मुस्तरी बेग़म ● शशि कांडपाल
140. कमल का पत्ता ● महेन्द्र भीष्म
141. शेष भाग आगामी अंक में ● राम नगीना मौर्य
142. शहादत ● मनसा पांडेय
143. किस्मत तेरे ढंग निराले ● सियाराम पांडेय ‘शांत ’
144. राजनीति ● पूनम तिवारी
145. अधूरा सपना ● रश्मिशील
146. पेइंग गेस्ट ● अमिता दुबे
147. धीरज ● प्रदीप कुमार शुक्ल
148. अम्मा ● इला सिंह
149. दूसरी भग्गो ● विनीता शुक्ला
150. वरासत ● दीपक श्रीवास्तव
151. दंगा भेजियो मौला ! ●अनिल यादव
152. क्या नाम दूँ ..! ● अजयश्री
153. श्यामली ● ज्योत्सना सिंह
154. विजेता ● अरुण सिंह
155. हार गया फौजी बेटा ● प्रदीप श्रीवास्तव
156. जॉब कार्ड ● दयाशंकर शुक्ल सागर
157. बॉडी मसाज ● वीणा वत्सल सिंह
158. ओ री राधा… ● सविता शर्मा नागर
159. तितलियों का शोर ● हरिओम
160. ढाल ● शालिनी सिंह
161. वैदेही की शक्तिपूजा ● रोशन प्रेमयोगी
162. मौत ज़िंदगी ● नीलेश मिसरा
163. लबड़थी ● शेषनाथ पांडेय
164. धुरी ● कामना सिंह
165. मृत्युभोज ● बालेंदु द्विवेदी
166. बेचन मामा ● सीमा मधुरिमा
167. बारिश के बाद ● डॉ सुरभि सिंह
168. पत्थर का कीड़ा ● डॉ अहमद अयाज़
169. नइहर के नेवता ● रचना त्रिपाठी
170. ग्रीन डॉट ● रिफ़त शाहीन
171. बद्धनवा नाऊ के लउंडा सलमनवा ● फ़रज़ाना महदी
कथा-गोरखपुर की कहानियां
1. मंत्र ● प्रेमचंद
2. उस की मां ● पांडेय बेचन शर्मा उग्र
3. झगड़ा , सुलह और फिर झगड़ा ● श्रीपत राय
4. पुण्य का काम ●सुधाबिंदु त्रिपाठी
5. लाल कुर्ती ● हरिशंकर श्रीवास्तव
6. सीमा ● रामदरश मिश्र
7. डिप्टी कलक्टरी ● अमरकांत
8. एक चोर की कहानी ●श्रीलाल शुक्ल
9. साक्षात्कार ● ज ला श्रीवास्तव
10. अंतिम फ़ैसला ● हृदय विकास पांडेय
11. पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी
12. मां ● डाक्टर माहेश्वर
13. मलबा ● भगवान सिंह
14. तीन टांगों वाली कुर्सी ● हरिहर सिंह
15. पेड़ ● देवेंद्र कुमार
16. हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर ●श्रीकृष्ण श्रीवास्तव
17. सपने का सच ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव
18. दस्तक ● रामलखन सिंह
19. दोनों ● परमानंद श्रीवास्तव
20. इतिहास-बोध ●विश्वजीत
21. सब्ज़ क़ालीन ● एम कोठियावी राही
22. सौभाग्यवती भव ● इंदिरा राय
23. टूटता हुआ भय ● बादशाह हुसैन रिज़वी
24. पतिव्रता कौन ● रामदेव शुक्ल
25. वहां भी ● लालबहादुर वर्मा
26. डायरी ● विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
27. काला हंस ● शालिग्राम शुक्ल
28. मद्धिम रोशनियों के बीच ● आनंद स्वरूप वर्मा
29. इधर या उधर ● महेंद्र प्रताप
30. यह तो कोई खेल नहीं हुआ ● नवनीत मिश्र
31. आख़िरी रास्ता ● डाक्टर गोपाल लाल श्रीवास्तव
32. जन्म-दिन ●कृष्णचंद्र लाल
33. कचरापेटी ●रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी
34. अपने भीतर का अंधेरा ● तड़ित कुमार
35. गुब्बारे ● राजाराम चौधरी
36. पति-पत्नी और वो ● कलीमुल हक़
37. सपना सा सच ● नंदलाल सिंह
38. इंतज़ार ● कृष्ण बिहारी
39. तकिए ● शची मिश्र
40. उदाहरण ● अनिरुद्ध
41. देह – दुकान ● मदन मोहन
42. जीवन-प्रवाह ● प्रेमशीला शुक्ल
43. रात के खिलाफ़ ● अरविंद कुमार
44. रुको अहिल्या ● अर्चना श्रीवास्तव
45. भूख ● श्रीराम त्रिपाठी
46. अंधेरी सुरंग ● रवि राय
47. हम बिस्तर ●अशरफ़ अली
48. भगोड़े ● देवेंद्र आर्य
49. घोड़े वाले बाऊ साहब ● दयानंद पांडेय
50. खौफ़ ● लाल बहादुर
51. बीमारी ● कात्यायनी
52. काली रोशनी ● विमल झा
53. भालो मानुस ● बी.आर.विप्लवी
54. जाने-अनजाने ● कुसुम बुढ़लाकोटी
55. ब्रह्मफांस ● वशिष्ठ अनूप
56. सुनो मधु मालती ● नीरजा माधव
57. पत्नी वही जो पति मन भावे ●अमित कुमार मल्ल
58. बटन-रोज़ ● मीनू खरे
59. शुभ घड़ी ● आसिफ़ सईद
60. डाक्टर बाबू ● रेणु फ्रांसिस
61. एक खून माफ़ ●रंजना जायसवाल
62. उड़न खटोला ●दिनेश श्रीनेत
63. कुमार साहब और हंसी ● राजशेखर त्रिपाठी
64. तर्पयामि ● शेष नाथ पाण्डेय
65. राग-अनुराग ● अमित कुमार
66. झब्बू ●उन्मेष कुमार सिन्हा
67. बाबू बनल रहें ● रचना त्रिपाठी
68. जाने कौन सी खिड़की खुली थी ●आशुतोष मिश्र
69. झूलनी का रंग साँचा ● राकेश दूबे
70. छत ● रिवेश प्रताप सिंह
71. चीख़ ● मोहन आनंद आज़ाद
72. तीसरी काया ● भानु प्रताप सिंह
73. पचई का दंगल ● अतुल शुक्ल
[ अभी और भी बहुत कुछ है। क्रमश: और भी तथ्य रखूंगा। इस भावना के साथ कि जितेंद्र पात्रो और प्रलेक प्रकाशन को प्रकृति सद्बुद्धि दे। ]
साभार https://sarokarnama.blogspot.com/2022/04/blog-post.html से