Saturday, November 23, 2024
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‘प्यासा’ के बनने की कहानी भी बताती है कि गुरु दत्त क्या थे और क्यों थे

‘प्यासा’ हिंदी सिनेमा की महानतम फिल्मों में से एक है. जब तक हमारा सिनेमा सांस लेता रहेगा, ‘प्यासा’ अमर रहेगी. जब-जहां दुनिया को ठुकराने वाले बेचैन नायक गढ़े जाएंगे, ‘प्यासा’ फिल्मकारों की पाठशाला बनेगी. जिन दिनों किसी से बांटी न जा सकने वाली गहरी उदासी जिस्म से लिपटेगी, और इस भौतिकवादी दुनिया की क्षणभंगुरता एकदम साफ नजर आएगी, तब ‘प्यासा’ ही होगी जो दर्शकों को सबसे ज्यादा याद आएगी.

सन् 1925 में आज ही के दिन जन्मे गुरु दत्त ने ‘कागज के फूल’ के असफल हो जाने के कुछ वर्ष बाद 39 साल की उम्र में अपनी जिंदगी ले ली थी. लेकिन उससे कुछ दो साल पहले आई ‘प्यासा’ (1957) को उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी दी थी. ‘बाजी’ और ‘आर पार’ जैसी मनोरंजक मसाला फिल्में बनाने वाला यह निर्देशक पहली बार एक संजीदा और सारगर्भित फिल्म बनाने निकला था जिसमें सुख कहीं नहीं था, बस दुख था जो इतना अनवरत बहा था कि फिल्म को सुखांत बनाने के लिए फाइनेंसरों को गुरु दत्त पर दबाव डालना पड़ा था.

रिलीज होने से पहले तक ‘प्यासा’, ऐसे कई और भी बदलावों तथा मुश्किलों से गुजरी थी.

शूटिंग के पहले दिन तक दिलीप कुमार का इंतजार किया गया था. गुरु दत्त उन्हें ही विजय नामक उस कवि के रूप से देखते थे जिसकी नज्में दुनिया स्वीकार नहीं कर रही थी और दुनिया को भी वो खुद गले नहीं लगा पा रहा था. दिलीप कुमार कुछ वक्त पहले ही ‘देवदास’ (1955) के किरदार से बाहर निकले थे और उन्हें यह गलतफहमी हो गई थी कि ‘प्यासा’ का विजय भी दूसरा देवदास है. इसलिए वे सेट पर नहीं आए और शूटिंग के पहले दिन ही गुरु दत्त ने स्वयं यह भूमिका निभाने का फैसला लिया.नसरीन मुन्नी कबीर की गुरु दत्त पर लिखी किताब ‘गुरुदत्त : हिंदी सिनेमा का एक कवि’ कई और भी बदलावों पर रोशनी डालती है. जैसे गुरु दत्त द्वारा लिखी ‘प्यासा’ की मौलिक कहानी में नायक विजय एक कवि नहीं बल्कि चित्रकार था. उनके दोस्त व ‘प्यासा’ के लेखक अबरार अल्वी ने जब इस कहानी को पटकथा का रूप दिया तब जाकर इस अमर किरदार को कवि-शायर बनाया गया. सोचकर देखिए, अगर ‘प्यासा’ में गुरु दत्त कवि की जगह चित्रकार होते, तब क्या साहिल के लिखे और मोहम्मद रफी के गाए ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए’, ‘तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-जिंदगी से हम’ और ‘जिन्हें नाज है हिंद पर’ जैसी कालजयी गीत इतने ही असरदार होते, जितने कि वे आज हैं, कल होंगे और हमेशा रहेंगे.
‘प्यासा’ गुरु दत्त की लिखी जिस कहानी पर आधारित है, वह उन्होंने अपने मुफलिसी के दौर में लिखी थी. गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाले गुरु दत्त 1946-47 में फिल्मों में संघर्ष कर रहे थे और बी ग्रेड की फिल्मों में छोटे-मोटे रोल करने के अलावा कुछ फिल्मों में सहायक निर्देशक का काम भी देखने लगे थे. लेकिन जब वे लगातार एक साल तक बेरोजगार रहे तो यह विचार उनके मन में घर कर गया कि कलाकारों को यह समाज वाजिब इज्जत नहीं देता. पैसों की किल्लत के बीच और जब उनकी मां को स्कूल में पढ़ाने के साथ-साथ ट्यूशन लेकर भी अकेले घर चलाना पड़ रहा था, गुरुदत्त ने ‘प्यासा’ का पहला ड्राफ्ट लिखा था. तब इसका नाम ‘कशमकश’ था. याद करिए, दस साल बाद बनी ‘प्यासा’ में भी एक गीत था –‘तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-जिंदगी से हम’!

 

गुरु दत्त को कई फिल्में शुरू कर बीच में ही डब्बाबंद कर देने की भी आदत थी. किस्मत से ‘प्यासा’ के साथ उन्होंने ऐसा नहीं किया, लेकिन जैसा कि वे कई दूसरी फिल्मों के साथ करते थे, इस फिल्म की भी कुछ तीन-चार रील शूट करने के बाद असंतुष्ट होने पर उन्होंने दोबारा पूरा हिस्सा शूट किया. जाने-माने कॉमेडियन और ‘प्यासा’ में नायक के चालबाज भाई बने महमूद, ‘गुरु दत्त : हिंदी सिनेमा का कवि’ में बताते हैं कि जब गुरु दत्त काम करते थे तो हमेशा हर किसी को सेट से बाहर निकाल देते थे. खुद जब अभिनय किया करते थे तो इतने सारे रीटेक लेते कि उनका नाम गिनीज बुक में दर्ज होना चाहिए!

 

‘प्यासा’ में किए अपने अभिनय से गुरु दत्त कभी संतुष्ट नहीं होते थे. वे अभिनय में दिलीप कुमार की तरह पारंगत भी नहीं थे, इसलिए लंबे इंटेंस दृश्यों को फिल्माने में बहुत समय लिया करते थे. ‘प्यासा’ के लेखक अबरार अल्वी इसी किताब में बताते हैं कि एक बार माला सिन्हा के साथ वाले एक लंबे संवाद की शूटिंग सुबह साढ़े नौ बजे से शुरू हुई और रात बारह बजे तक चलती ही रही. लेकिन न शॉट ओके हुआ न ही गुरु दत्त ने हार मानी. माला सिन्हा रीटेक पर रीटेक देकर थक गईं और कैमरे की जितनी भी रील यूनिट के पास थी, वो खत्म हो गई!

 

बावजूद इसके, ‘प्यासा’ में आप उनकी जगह किसी और की कल्पना नहीं कर सकते हैं. यह वो महान अभिनय था, जिसे ट्रेजेडी किंग दिलीप कुमार भी गुरु दत्त से बेहतर नहीं निभा सकते थे.

माला सिन्हा ने गुरु दत्त की प्रेमिका के जिस रोल को अंतत: फिल्म में निभाया, उसके लिए गुरु दत्त ने पहले मधुबाला को चुना था. इसी तरह अपने किरदार विजय के स्वार्थी दोस्त श्याम की भूमिका के लिए जॉनी वॉकर का चयन किया था. लेकिन जॉनी वॉकर पर कुछ सीन शूट करने के बाद उन्हें ख्याल आया कि दर्शक अपने पसंदीदा हास्य कलाकार को ऐसे नेगेटिव किरदार में कभी देखना पसंद नहीं करेंगे. इसलिए यह रोल उन्होंने श्याम कपूर नामक अभिनेता को दिया और इस तरह जॉनी वॉकर एक दूसरा किरदार बनकर ‘सर जो तेरा चकराए’ नामक कालजयी गीत का चेहरा बने.

 

‘प्यासा’ का अंत भी कई लोगों के दबाव में गुरु दत्त को बदलना पड़ा. गुरु दत्त अंत दुखद चाहते थे, जिसमें उनका किरदार गुजरे वक्त की प्रेमिका मीना (माला सिन्हा) से यह कहने के बाद कि उसे इस संसार में कहीं भी शांति नहीं मिलेगी इसलिए वो कहीं दूर चला जाएगा, कमरे से बाहर निकलता है और फिर किसी को नहीं पता चलता कि वो कहां गया. लेकिन वितरकों से लेकर ‘प्यासा’ के लेखक अबरार अल्वी तक चाहते थे कि अंत में नायक को खुशियां मिले और दुख से भरी फिल्म सुखांत को प्राप्त हो. अपने मौलिक अंत को बदलकर फिर गुरु दत्त ने उस अंत की रचना की जो अपने आप में महान है और जिसमें हताशा से घिरा नायक वेश्या गुलाब (वहीदा रहमान) से कहता है कि चलो, हम दोनों कहीं दूर चलें. और इस तरह दरवाजे के उस पार फैली रोशनी की तरफ जाते हुए नायक-नायिका पर ‘प्यासा’ खत्म होती है.

 

‘गुरु दत्त : हिंदी सिनेमा का कवि’ में नसरीन मुन्नी कबीर को अबरार अल्वी बताते हैं कि गुरु दत्त द्वारा सोचा गया यह उम्मीद भरा सुखांत भी उन्हें पसंद नहीं था. वे चाहते थे कि नायक समाज को छोड़कर भागे नहीं. लोगों के बीच रहकर ही उनका मुकाबला करे, क्योंकि वो जहां भी जाएगा उसे इसी तरह का समाज मिलेगा. लेकिन निर्देशक गुरु दत्त ने उनकी बात नहीं मानी और वही अंत फिल्म में रखा जो गुरु दत्त की नजर में सुखांत था. जिसमें नायक वहीदा रहमान से कहता है कि वो भी उसके साथ कहीं दूर चले, वहां जहां से उसे (नायक को) कहीं और दूर जाने की जरूरत न पड़े.

 

जब अबरार अल्वी ने उनसे पूछा कि ‘ऐसी जगह कहां है इस संसार में?’, तो हिंदी सिनेमा के सर्वकालिक महान निर्देशकों में से एक गुरु दत्त बोले – ‘मुझे ये अच्छा लगता है. यह सूर्यास्त है. वे हाथ में हाथ डालकर आगे बढ़ जाते हैं. यह दर्शकों की मनोभावना को तुष्ट करेगा.’

(नसरीन मुन्नी कबीर द्वारा लिखी ‘गुरु दत्त : हिंदी सिनेमा का एक कवि’ प्रभात प्रकाशन से 2013 में प्रकाशित हुई है)

साभार- https://satyagrah.scroll.in/ से

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