उत्तर प्रदेश का चुनावी समर अपने उफान पर है, 11 फरवरी 2017 को पहले चरण का मतदान होना है। इसलिए उत्तर प्रदेश की सभी प्रमुख पार्टियां अपने-अपने प्रचार को धार देने में लगी हैं और भाजपा और सपा जैसी दिग्गज पार्टियों ने अपने घोषणा पत्र में लोक लुभावने वायदे कर लोगों को लुभाने का दांव चला है। किसी पार्टी ने प्रेशर कुकर देने का वायदा किया है तो कोई पार्टी लैपटॉप देगी। सभी पार्टियां अपने लोकलुभावने वायदों से जनता को अपने मायाजाल में फंसाना चाहती हैं। लेकिन कोई भी पार्टी बेरोजगारी दूर करने का रोडमैप पेश नहीं कर पायी है। इस चुनावी माहौल में कई न्यूज एजेंसियां और न्यूज चैनल तरह-तरह के चुनावी सर्वेक्षण पेश कर रहे हैं।
किसी सर्वेक्षण में भाजपा की सरकार बनती हुई दिख रही है तो किसी में सपा और कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनती हुई दिख रही है। पता नहीं ये चैनल और एजेंसियां किस आधार पर सर्वेक्षण कर रही हैं, और हर सर्वेक्षण में अलग-अलग रिजल्ट दिखाए जा रहे हैं। कोई सर्वेक्षण प्रदेश में पूर्व बहुमत की सरकार बनाता दिख रहा है तो कोई त्रिशंकु विधानसभा के आसार बता रहा है। इस चुनाव में बड़ी-बड़ी पार्टियों से सबसे ज्यादा टिकट पाने में दल-बदलुओं ने बाजी मारी है। और सभी पार्टियों ने अपने पुराने अनुभवी कार्यकर्ताओं को टिकट न देकर जातिगत समीकरण को ध्यान रखकर दूसरी पार्टियों से आये हुए लोगों पर भरोसा जताया है। इससे सपा, भाजपा, बसपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों में आंतरिक कलह भी बड़े पैमाने पर हो रही है। उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनाव में परिवारवाद भी पूरी तरह से हावी है। पहले परिवारवाद और भाई-भतीजावाद के आरोप सिर्फ समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और रालोद पर लगते थे, लेकिन इस बार परिवारवाद से भाजपा और बसपा जैसी पार्टियां भी अछूती नहीं रही है। हर पार्टी ने अपने-अपने बड़े़े नेताओं के पुत्र-पुत्रियों पर भरोसा जताया है।
कहने को सभी पार्टियां चुनाव विकास पर लड़ने की बात कर रही हैं। लेकिन असल में चुनाव जातिगत समीकरणों और भाई-भतीजावाद पर लड़ा जा रहा है। कोई भी पार्टी सरकार आने पर अपने घोषणा-पत्र को शत-प्रतिशत लागू नहीं कर पाती है। इस चुनाव में सपा और कांग्रेस के गठबंधन पर भी नजरें रहेंगी। इस गठबंधन से सपा और कांग्रेस के अन्दर का डर भी दिख रहा है। सपा और कांग्रेस को लग रहा था कि अगर वो अकेले-अकेले चुनाव लड़ेंगे तो, मुस्लिम मत कई जगह विभाजित हो सकता है। जिसका सीधा-सीधा फायदा भाजपा को होगा। इसलिए दोनों पार्टियां अकेले-अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठाना चाहती थीं। इसके लिए राहुल गाँधी के नेतृत्व में 27 साल यूपी बेहाल का नारा देने वाली कांग्रेस पार्टी ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की जूनियर पार्टी भी बनना स्वीकार कर लिया। अब सवाल यह उठता है कि जो राहुल गाँधी गठबंधन पूर्व समाजवादी पार्टी को पानी पी-पीकर कोस रहे थे और 27 साल यूपी बेहाल का नारा दे रहे थे अब वो जनता के बीच इसका क्या जवाब देंगे। और सपा और कांग्रेस गठबंधन की तरफ से ‘यूपी को यह साथ पसंद है’ का नारा दिया गया है। अब देखना होगा कि ‘यूपी को इनका कितना साथ पसन्द है।
इस गठबंधन के होने के बाद कांग्रेस और सपा के बड़े नेता कांग्रेस और सपा गठबंधन की सरकार बनने के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं, लेकिन यह भविष्य के गर्भ में है। इस गठबंधन के होने के बाद बसपा और भाजपा जैसी पार्टियों ने अपनी-अपनी रणनीतियों में बदलाव किया है। गठबंधन होने के तुरंत बाद ही बसपा प्रमुख मायावती ने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए अखिलेश यादव द्वारा दुत्कारे जाने वाले अंसारी बंधुओं को अपनी पार्टी में शामिल कर उनकी कौमी एकता दल का बसपा में विलय करा लिया। कहने को मायावती ने खुद ही कुछ साल पहले अंसारी बंधुओं को उनकी आपराधिक छवि के कारण बसपा से निकाला था। लेकिन राजनीति में फायदे के लिए सब कुछ चलता है। सपा और कांग्रेस गठबंधन से पार पाने के लिए भाजपा ने भी अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए दूसरी पार्टी से आये हुए दल बदलुओं को खूब टिकट दिए हैं। और भाजपा ने हिन्दू वोटों के ध््राुवीकरण के लिए अपने घोषणा-पत्र में राम मंदिर निर्माण की संवैधानिक दायरे में प्रतिबद्धता जाहिर की है। और तीन तलाक के मुद्दे पर भी भाजपा ने अपने घोषणा-पत्र में मुस्लिम महिलाओं से राय लेकर सुप्रीम कोर्ट में पैरवी करने की बात की है। सबसे ज्यादा साख इन विधानसभा चुनावों में भाजपा की दांव लगी है। क्योंकि भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में 73 सीट जीतकर एक रिकॉर्ड कायम किया था। और भाजपा 300 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर पहले स्थान पर रही थी। लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में भाजपा पिछले 14 सालों से वनवास भोग रही है। इसलिए भाजपा के लिए 2014 के लोकसभा चुनावों के प्रदर्शन को दोहराने की चुनौती होगी।
अब देखने वाली बात होगी कि भाजपा चुनाव में अपने घोषणा पत्र के बल पर कितनी सीटें जीत पाती है। अजित सिंह की रालोद की बात की जाए तो उसने अधिकतर उन लोगों को उम्मीदवार बनाया जिसको दूसरी पार्टी से टिकट नहीं मिल पायी है। जिन विधायकों और पूर्व विधायकों की दूसरे दलों में टिकट काटी गयीं, उन लोगों ने रालोद में शामिल होकर टिकट पा ली। देखने वाली बात होगी की अजित सिंह की रालोद इन दल-बदलुओं के बल पर कितनी सीटें जीत पाती है। इस विधानसभा चुनाव में सभी दल बात तो विकास की कर रहे हैं, लेकिन सभी पार्टियों की रणनीतियों से देखकर तो यही लगता है कि मुद्दे साम्प्रदायिकता, जातिवाद और भाई- भतीजावाद ही रहने वाले हैं। अब देखना ये होगा कि 2017 के विधानसभा चुनावों में कौन सी पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाती है। या फिर उत्तर प्रदेश त्रिशंकु विधानसभा की तरफ बढ़ेगा।
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