1946 की तरह बहुत पहले 1929 में भी नेहरू “ईवीएम मशीन हैक” कर कांग्रेस अध्यक्ष बने थे !!! पूरा सच जानिये…
कांग्रेस के मक्कार और झूठे इतिहासकारों ने फिर आधा सच बताया है… ये तो बता दिया कि “29 दिसम्बर 1929 को लाहौर कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया”… लेकिन ये नहीं बताया कि गांधी ने किसका हक मारकर नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया था… गांधी ने सरदार पटेल का हक मार कर ये कार्य किया था… जी हां… सरदार पटेल का हक मारकर…
ये तो सभी को मालूम है कि 1946 में कैसे गांधी ने नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया था, जबकि बहुमत सरदार पटेल के पास था और इस तरह नेहरू भारत के पहले “एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर” बन गये थे… लेकिन ये बहुत कम लोग जानते हैं कि 1929 में भी गांधी ने यही किया था… लेकिन ये बात कांग्रेस के पाखंडी इतिहासकार गोल कर गये… अब आप पूरा सच सुनिये… तो हुआ यूं था कि –
1929 में मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष थे और वो चाहते थे कि उनके प्यारे जवाहर उनके बाद अध्यक्ष बनें… गांधी भी चाहते थे कि उनके चेले जवाहर के ये ताज मिले लेकिन कांग्रेस संगठन की पसंद तब भी सरदार पटेल ही थे… नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अपनी पुस्तक ‘द इंडियन स्ट्रगल’ के पेज नंबर 169 पर जो लिखा है उसे ध्यान से पढ़िये, वो लिखते हैं –
“कांग्रेस के संगठनों के अंदर ये आम सहमति थी कि यह सम्मान सरदार पटेल को दिया जाना चाहिए।”
हालांकि अध्यक्ष पद के लिये कांग्रेस के कई संगठनों की पहली पसंद गांधी थे… इसीलिये जब सुझाव मांगे गये तो कांग्रेस की 10 प्रांतीय समितियों ने गांधी के नाम का प्रस्ताव रखा… 5 ने सरदार पटेल का नाम आगे किया और सिर्फ 3 कमेटियों ने जवाहरलाल नेहरू के नाम पर सहमति दिखाई… गांधी ने अपना नाम वापस ले लिया… जाहिर हैं अब 5 वोटों के साथ सरदार पटेल आगे थे… हक उनका बनता था… लेकिन तभी गांधी और नेहरू ने कर दिया सरदार पटेल के साथ खेला…
उस दौर में नेहरू के दो कट्टर भक्त होते थे – नरेंद्र देव और बालकृष्ण शर्मा… इन दोनों ने नेहरू के इशारे पर सरदार पटेल के खिलाफ कुत्सित अभियान छेड़ दिया… इस घटना से सरदार पटेल इतने आहत हुए कि पूरे 19 साल बाद 1948 में उन्होंने इन दोनों को “जवाहरलाल के शिकारी कुत्ते” कहा था… जी हां, सही पढ़ा “शिकारी कुत्ते”… (स्रोत –’Patel: A life’ by Rajmohan Gandhi)
उधर गांधी सरदार पटेल के पीछे पड़े हुए थे कि वो नेहरू के पक्ष में अपना नाम वापस ले लें… लेकिन सरदार पटेल आसानी से नहीं मान रहे थे… बाद में 28 जनवरी 1939 को नेहरू के चेले और पटेल के विरोधी नरेंद्र देव ने बॉम्बे क्रॉनिकल को दिये एक इंटरव्यू में कहा था “नेहरू के पक्ष में सरदार पटेल को मनाना गांधी के लिये कठिन हो रहा था।”
जैसे 1946 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव महत्वपूर्ण था क्योंकि अध्यक्ष ही अंतरिम सरकार का मुखिया बनने वाला था ठीक उसी तरह 1929 में भी अध्यक्ष पद का चुनाव महत्वपूर्ण था क्योंकि जो नया अध्यक्ष बनता वो “पूर्ण स्वराज” की घोषणा करता… खैर गांधी की जिद के आगे सरदार पटेल झुक गये नेहरू पहली बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने… यानी 1946 के पहले भी 1929 में ईवीएम की हेराफेरी हो गई थी।
गांधी के इस अन्यायपूर्ण व्यवहार से सरदार पटेल कितना आहत हुए, इसका वर्णन करते हुए गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी अपनी पुस्तक ‘Patel: A life’ के पेज नंबर 183 में लिखते हैं कि –
“जवाहरलाल नेहरू का समर्थन ‘शिकारी कुत्ते’ करें, ये बात तो समझ में आती है लेकिन गांधीजी जवाहर को चुने ये सरदार पटेल के लिये असहनीय था। वहीं मोतीलाल नेहरू ये सोचकर खुश हो रहे थे कि पिता की विरासत पुत्र को मिल रही है। वहीं जवाहरलाल की माताजी स्वरुपरानी तो बेहद रोमांचित थीं। ये बात सरदार पटेल को बहुत खटक रही थी।”
वहीं माइकल ब्रेचर ने अपनी मशहूर पुस्तक “Nehru: A Political Biography” में पेज नंबर 142 पर लिखा है कि – “राजा (मोतीलाल नेहरू) ने अपना सिंहासन और राजदंड अपने योग्य वारिस (जवाहरलाल नेहरू) को सौंपा” … ध्यान रहे 1959 में प्रकाशित इस पुस्तक को American Historical Association ने Watumull prize दिया था।
वहीं वामपंथी इतिहासकार और राष्ट्रपति राधाकृष्णन के बेटे एस. गोपाल अपनी मशहूर पुस्तक Jawaharlal Nehru: A Biography के पेज नंबर 126 पर लिखते हैं कि – मोतीलाल नेहरू अपने बेटे जवाहर को अध्यक्ष बनते देखना चाहते थे इसलिए 1927 से ही वो इस बात के लिये गांधीजी के पीछे पड़े थे।
अब सवाल उठता है कि गांधी ने तब पटेल के बदले नेहरू को क्यों चुना… कारण वहीं 1946 वाला… मुस्लिम तुष्टिकरण… महान पत्रकार दुर्गादास अपनी मशहूर पुस्तक India: From Curzon to Nehru and After के पेज नंबर 134 पर लिखते हैं –
“दिसंबर 1928 में जिन्ना ने कांग्रेस छोड़ दी थी। इसके बाद बहुत से मुसलमान कांग्रेस से अलग होने लगे थे। उन्हें (मुसलमानों को) आकर्षित करने में सरदार पटेल की तुलना में नेहरू ज्यादा सक्षम थे।”
वहीं माइकल ब्रेचर “Nehru: A Political Biography” में पेज नंबर 137 पर लिखते हैं कि ऐसा कर के गांधी को लगा कि जवाहरलाल नेहरू को वामपंथी झुकाव से विमुख किया जा सकेगा। वरिष्ठ वामपंथी नेता और केरल के मुख्यमंत्री नंबूदरीपाद ने भी इसकी पुष्टि की है।
अब सबसे महत्वपूर्ण बयान आचार्य कृपलानी का… 1929 में हुई इस धोखेबाज़ी पर उन्होंने अपनी आत्मकथा My Times: An Autobiography के पेज नंबर 236 पर लिखा है –
“गांधीजी ने जवाहरलाल का चयन राजनैतिक आकलन की वजह से नहीं बल्कि व्यक्तिगत संबंधों से प्रेरित होकर किया था। एक चरवाहे की तरह गांधीजी सीधी चलने वाली भेड़ों की बजाय भटकी हुई भेड़ (नेहरू) को पकड़ने के लिये दौड़े।”
लेखक के.एल. पंजाबी अपनी पुस्तक The Indomitable Sardar के पेज नंबर 202 पर लिखते हैं कि – “सरदार पटेल ने कहा था कि गांधीजी अपने दो बेटों (पटेल और नेहरू) में से एक के प्रति (नेहरू के लिये) ज्यादा पक्षपाती थे।”
कुल मिलाकर आप 1929 की इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को भारतीय राजनीति में परिवारवाद या वंशवाद की शुरुआत मान सकते हैं… और हां, गांधी परिवार की मॉडस आपरेंडी आजतक यही है…
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ऐतिहासिक व राजनीतिक घटनाक्रमों पर शोध कर इतिहास के कई झूठों का पर्दाफाश किया हैः संप्रति दूरदर्शन में सीनियर कंसल्टिंग एडिटर हैं )