महापुरुष या स्वतंत्रता सेनानी किसी जाति, प्रांत या मज़हब के नहीं होते। वे सबके होते हैं और सब उनके। उन पर गौरव-बोध रखना स्वाभाविक है। परंतु महापुरुषों या स्वतंत्रता सेनानियों को वर्गों या खाँचों में बाँटना अनुचित चलन है। यह उनके व्यक्तित्व एवं विचारों को संकीर्णता में आबद्ध करना है, उन्हें छोटा करना है। बल्कि यों कहना चाहिए कि राष्ट्रीय जीवन एवं चेतना को ऊर्जा एवं गति देने के बावजूद महापुरुष या स्वतंत्रता-सेनानी संपूर्ण मानव-जाति के होते हैं। और उनके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से किसी-न-किसी स्तर पर संपूर्ण मानव-जाति पाथेय एवं प्रेरणा ग्रहण करती है। हाँ, सार्वजनिक जीवन में प्रतीकों का विशेष महत्त्व होता है और यदि किसी राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन की पहल-प्रेरणा से विमर्श की दिशा राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक हो उठती हो तो यह अनुकरणीय एवं स्वागत योग्य बदलाव है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी एक ऐसे ही महापुरुष एवं भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। संपूर्ण विश्व में न्याय, समानता एवं स्वतंत्रता के पैरोकार एवं प्रशंसक उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं और करते रहेंगें। उनकी प्रतिभा एवं देशभक्ति, जीवटता एवं संघर्षशीलता, साहस एवं स्वाभिमान, स्वानुशासन एवं आत्मविश्वास, संगठन एवं नेतृत्व-कौशल, ध्येय एवं समर्पण सहसा विस्मित करने वाला है। जिस दौर में ऐसा माना जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का कभी सूर्यास्त नहीं होता, उस दौर में उसे खुली चुनौती देते हुए भारत को स्वतंत्र कराने का स्वप्न सँजोना, संकल्प लेना और कुछ अर्थों में उसे सच कर दिखाना- उस तेजस्वी व्यक्तित्व की महत्ता को उद्भासित करने के लिए पर्याप्त है। यह अकारण नहीं है कि वे आज भी युवाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। उनके द्वारा दिए गए नारे ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’, ‘दिल्ली चलो’, या ”जय हिंद”- प्रमाणित करते हैं कि वे युवाओं के मन और मिज़ाज की कितनी गहरी समझ रखते थे! ये नारे आज भी युवाओं की धमनियों में साहसिक उबाल लाते हैं, राष्ट्रभक्ति की अलख जगाते हैं, राष्ट्र की शिराओं में गति, ऊर्जा एवं उत्साह का संचार करते हैं। युवा-नब्ज़ पर इतनी गहरी पकड़ रखने, असाधारण शौर्य एवं पराक्रम दिखाने के कारण भारत सरकार द्वारा उनके जन्मदिन को पराक्रम दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा सर्वथा उपयुक्त ही है। निश्चित ही यह सुभाष पर केंद्रित विमर्श को नई दिशा प्रदान करेगा।
उनमें भारतवर्ष के प्रति एक गौरव-बोध था। पर वह गौरव-बोध किसी को छोटा समझने-जतलाने की पश्चिमी कुंठा या दंभ से ग्रसित नहीं था। प्रतिभा एवं सफलता किसी की बपौती नहीं होती। नस्लवादी श्रेष्ठता का दंभ रखनेवाले अंग्रेजों को सुभाष ने 1920 में आईसीएस (सिविल सेवा) की परीक्षा उत्तीर्ण करके साफ़ संदेश दिया कि भारतीय किसी से कमतर नहीं, पर प्रखर राष्ट्रप्रेम और 1919 में हुए नृशंस एवं जघन्य जलियाँवालाबाग-हत्याकांड के विरोध में उन्होंने अपनी उम्मीदवारी ठुकरा दी और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। असाधारण व्यक्तित्व, ओजस्वी वाणी, मौलिक-अभिनव चिंतन, दूरगामी दृष्टि के बल पर वे शीघ्र ही काँग्रेस एवं देश में लोकप्रिय हो गए।
उनकी लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि 1938 में वे सर्वसम्मति से काँग्रेस का अध्यक्ष तो मनोनीत हुए ही, साथ ही 1939 में उस समय के सर्वमान्य नेता महात्मा गाँधी के विरोध के बावजूद उनके घोषित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को मिले 1377 के मुकाबले 1578 वोट पाकर काँग्रेस-अध्यक्ष के लिए दुबारा चुन लिए गए, जिसे बाद में सार्वजनिक रूप से गाँधी ने अपनी नैतिक हार बताया। नतीज़न सुभाष को महज कुछ महीनों के भीतर ही काँग्रेस-अध्यक्ष के पद से त्यागपत्र देना पड़ा। पर आज के राजनेताओं के लिए यह सीखने वाली बात है कि गाँधी जी के विरोध के बावजूद नेताजी के मन में उनके प्रति कोई कटुता या दूरी नहीं घर करने पाई। 4 जून 1944 को सिंगापुर से एक रेडियो संदेश प्रसारित करते हुए सबसे पूर्व उन्होंने ही महात्मा गाँधी को ‘राष्ट्रपिता’ कहकर संबोधित किया था।
भले ही 1939 में उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया, जिसकी विरासत पर वामपंथी दावा करते हैं। पर सुभाष उनकी तरह राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता को अछूत नहीं मानते-बताते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि 1928 में कलकत्ता में आयोजित काँग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के समय उनकी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार की भेंटवार्त्ता हुई थी। और कहते हैं कि दोनों ने एक-दूसरे के विचारों को जाना-समझा-सराहा था। और वे खोखले नारों या सस्ती लोकप्रियता की सीमाओं को भी ख़ूब समझते थे। इन दिनों कतिपय दल एवं राजनेताओं द्वारा उद्योगपतियों को खलनायक घोषित करने का फैशन चल पड़ा है, जबकि उल्लेखनीय है कि सुभाष ने 1938 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का अध्यक्ष मनोनीत होने के ठीक बाद से ही भारत में ठोस एवं व्यापक औद्योगीकरण के लिए नीतियाँ गठित की थीं।
वे कुटीर उद्योग पर आधारित गाँधीवादी आर्थिक-दर्शन को युगानुकूल एवं आज की बहुविध आवश्यकताओं की पूर्त्ति में सहायक नहीं मानते थे। इसे लेकर गाँधी जी से उनकी मतभिन्नता थी। राष्ट्र के निर्माण में उद्योगपतियों की सकारात्मक भूमिका का उन्हें आभास था। कदाचित वे जानते थे कि ग़रीबी से जूझा जा सकता है, मेहनत कर उससे पार पाया जा सकता है, परंतु उसे राष्ट्रीय गौरव का विषय कदापि नहीं बनाया जा सकता। स्त्रियों को लेकर भी उनकी प्रगतिशील एवं आधुनिक सोच द्रष्टव्य है। आज़ाद हिंद फ़ौज में उन्होंने स्वतंत्र महिला रेजीमेंट का गठन किया था, जिसकी कमान कैप्टन लक्ष्मी सहगल के हाथों में थीं। इसे रानी झाँसी रेजीमेंट भी कहा जाता था। 1857 के प्रथम स्वाधीनता आंदोलन को चंद देसी रियासतों द्वारा अपना साम्राज्य बचाने का विद्रोह मात्र बताने वालों को उनके इस इतिहास-बोध से सीख लेनी चाहिए।
यह सर्वविदित है कि महान देशभक्त एवं क्रांतिकारी रास बिहारी बोस द्वारा गठित भारतीय स्वतंत्रता लीग को ही उन्होंने 1943 में आज़ाद हिंद फ़ौज का नाम देकर भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयासरत सबसे प्रभावी एवं सशक्त संगठनों में से एक बनाया। इसमें उन्होंने 45000 सैनिक शामिल किए, जो युद्धबंदियों के साथ-साथ दक्षिण-पूर्वी एशिया में बसे भारतीय थे। 21 अक्तूबर 1943 को उन्होंने सिंगापुर में स्वतंत्र भारत के अनंतिम सरकार के गठन की घोषणा की, जिसे तत्कालीन जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको, आयरलैंड सरकार ने मान्यता भी दी थी। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पर भारतीय झंडा फ़हराने के बाद वे वहीं नहीं रुके। जबरदस्त आत्मविश्वास एवं युद्धकौशल के बल पर 1944 के प्रारंभ में, कोहिमा समेत उत्तर-पूर्व के बड़े भूभाग को अंग्रेजों से मुक्त कराने में उन्होंने क़ामयाबी पाई। उनकी रहस्यमय एवं आकस्मिक मृत्यु आज भी हर देशभक्त भारतीयों के मन को कचोटती और व्यथित करती है। उनकी असमय हुई मृत्य से माँ भारती ने अपना सबसे होनहार लाल खो दिया। महापुरुषों का जीवन और दर्शन एक ऐसा दर्पण होता है जिसमें समाज और सरकार दोनों को अपना-अपना आकलन करना चाहिए और देखना चाहिए कि वे उनके द्वारा गढ़े गए निकष पर कितना खरा उतर पाए हैं?
प्रणय कुमार
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