Saturday, November 23, 2024
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2018 में प्रकाशित हिंदी की ये पाँच पुस्तकें ज़रुर पढ़ना चाहिए

हर साल हजारों किताबें प्रकाशित होती हैं. इनमें से कई महज लाइब्रेरी में रखे जाने के लिए अस्तित्व में आती हैं तो कई पाठकों तक पहुंचने के लिए. पढ़े जाने के इंतजार में रहने वाली हर किताब को पाठकों का प्यार मिले यह कोई जरूरी नहीं. हम यहां 2018 में प्रकाशित होने वाली उन पांच बेहतरीन हिंदी किताबों का जिक्र कर रहे हैं, जिन्हें पढ़ना पाठकों को सुखद लगेगा.

1.पागलखाना

आज के समय में बाज़ार मां-बाप से भी ज्यादा हमारे करीब हो गया है! यह पढ़ने-सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन गौर करेंगे तो पाएंगे कि हम जब भी पढ़ाई या नौकरी के लिए अपने मां-बाप, भाई-बहन,पत्नी या बच्चों से दूर जाते हैं; तब नई जगह में सबसे पहले बाज़ार ही हमारी सहायता और स्वागत करता है. भाषा, वर्ण, वर्ग, संस्कृति और संप्रदाय की सीमाओं के पार बाज़ार हर एक इंसान को दोनों बाहें खोलकर गले लगाता है. डॉ ज्ञान चतुर्वेदी का ‘पागलखाना’ बाज़ार की इस ताकत और इसके खतरनाक प्रभावों पर लिखा गया बेहद शानदार उपन्यास है.

यह उपन्यास बाज़ार का मानवीकरण करके उसकी भावनाओं, योजनाओं और चिंताओं से हमें बेहद सूक्ष्मता और रोचकता से परिचित कराता है. उपन्यास की खास बात यह भी है कि यहां नायक और खलनायक दोनों बाज़ार ही हैं. जिन उपनायकों यानी पागल इंसानों की कथा इस उपन्यास में बुनी गई है, उनके कोई नाम नहीं हैं. जाहिर है कि लेखक उन अनाम पात्रों से पूरे समाज के अलग-अलग तबकों का प्रतिनिधित्व करना चाहता है. बाज़ार के ऐसे गहरे, सूक्ष्म, गंभीर, चिंतनीय प्रभावों पर इतने विस्तृत और रोचक तरीके लिखा गया हिंदी का यह संभवतः पहला ही उपन्यास है.

बाज़ार की बढ़ती महिमा और प्रकोप दोनों के बखान के लिए ज्ञान चतुर्वेदी ने जिस कल्पना का सहारा लिया है, वह अदभुत है. ज्ञान जी के शब्दों में कहें तो, ‘जीवन को बाज़ार से बड़ा मानने वाले पागलों’ और अच्छे-बुरे सभी ‘कस्टमर्स’ के लिए यह एक शानदार पठनीय उपन्यास है.

2.एफ़्रो-एशियाई कहानियां

एक जैसी इंसानी फितरत, एक-सी ही समस्या, कशमकश, बेबसी, विडंबना और खुशी के कारण दुनियाभर की कहानियां किसी न किसी स्तर पर एक जैसी खुशबू और स्वाद देती हैं. नासिरा शर्मा का यह कहानी संग्रह सात एफ़्रो-एशियाई देशों के लेखक-लेखिकाओं की ऐसी ही बेहतरीन कहानियों का स्वाद हमें चखने को देता है.

यह बेहद उम्दा कहानी संकलन एक ही समय पर दुनिया के कई देशों के कहानीकारों और उनकी बेहतरीन कहानियों से हमें रूबरू कराता है. अलग-अलग मुल्कों की इन कहानियों को पढ़कर यह शिद्दत से अहसास होता है कि दुनियाभर में हंसी, आंसू, बेबसी, लाचारी, मोहब्बत, धोखे, घुटन, संत्रास और ऐसी सभी मानवीय संवेदनाओं के रंग एक ही हैं.

नासिरा शर्मा ने कई भाषाओं की कहानियों का बहुत ही शानदार अनुवाद किया है जिस कारण पाठकों को ये कहानियां अनुदित नहीं लगतीं. इस कहानी संग्रह की एक खासियत यह भी है कि यहां हमें कहानी से पहले उसके कहानीकार का खूबसूरत परिचय पढ़ने को मिलता है. संग्रह की ज्यादातर कहानियां भीतर तक उतरती हैं. पाठक कब किसी पात्र की उंगली थामे मिस्र, ईरान, इज़राइल, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और फिलिस्तीन जैसे देशों के गली-कूचों और आंगन में पहुंच जाएंगे उन्हें पता भी नहीं चलेगा. विश्व साहित्य में रूचि रखने वालों के लिए यह एक बेहतरीन कहानी संग्रह है.

3.पेपलो चमार

दलितों की तकलीफें, जरूरत, गुस्सा, आक्रोश आदि को अभिव्यक्त करने वाले भी कहीं न कहीं राजनीति या फिर गुटबंदी के शिकार हुए हैं. लेकिन उम्मेद गोठवाल का यह कविता संग्रह बिना किसी गुटबंदी में फंसे, दलितों की पीड़ाओं को व्यक्त करती बेहद मार्मिक, प्रभावी और सशक्त कविताएं हम तक पहुंचाता है.

उम्मेद गोठवाल की ये कविताएं जिस पीड़ा, संत्रास, टूटन या अपमान को तीव्रता से महसूस करने के बाद लिखी गई हैं, लगभग उसी स्तर की तकलीफ ये पाठकों को भी महसूस करवाने में सफल होती हैं. ये दलित जीवन के इतने मार्मिक चित्र खींचती हैं कि पढ़ने वाले के दिल में बहुत बार सिहरन पैदा हो जाए. एक तरफ ये कविताएं बेहद सादगी और भोलेपन से दलितों के नारकीय जीवन को परत-दर-परत उघाड़ती हैं. दूसरी तरफ उनमें जातिगत हीनता से निकलने और अपनी अस्मिता व आत्म सम्मान के लिए लड़ने और खड़े होने का जबरदस्त जज्बा भी पैदा करती हैं.

‘पेपलो चमार’ मूलतः राजस्थानी भाषा का पहला दलित काव्य-संग्रह है जो लेखक द्वारा हिन्दी में भी अनुदित किया गया है. संभवतः हिन्दी के दलित साहित्य में इतनी सशक्त कविताएं अभी तक सामने नहीं आई हैं. इस कविता संग्रह की लगभग सभी कविताएं पाठकों को द्रवित करती हैं, उद्वेलित करती हैं, गहरी टीस पैदा करती हैं और भीतर तक झिंझोड़ती हैं. दलितों की सदियों की पीड़ा को बेहद सूक्ष्मता से दर्ज करती ये बेहद संवेदी, सशक्त और सक्षम कविताएं हैं.

ये कविताएं न सिर्फ राजस्थानी बल्कि भारत की श्रेष्ठ दलित कविताओं में शामिल होने का प्रबल दावा पेश करने में समर्थ हैं. और हां, इन ‘दलित कविताओं’ में संवेदना की जबरदस्त ‘लय’ है, पेपलो का गढ़ा नया आकर्षक ‘शिल्प’ है, और ये ‘अनगढ़’ कतई नहीं हैं!

4. मदारीपुर जंक्शन

यह उपन्यास पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांवों में आज तक मौजूद दलित और सवर्ण संघर्ष की गवाही देता है. बालेन्दु द्विवेदी ने ‘मदारीपुर जंक्शन’ में जिस बेहद चुटीले और आत्मव्यंग्यात्मक अंदाज में निचली कही जाने वाली जातियों के संघर्ष की कथा कही है, वह बेहद सराहनीय और पठनीय प्रयास है.

 

 

आम तौर पर गांवों को शहरों की अपेक्षा शांत, राजनीतिक उठा-पटक से दूर और परस्पर सहयोगात्मक रवैये वाला माना जाता है. लेकिन असल में गांवों में रहने वाले जानते हैं कि वहां के जीवन में एक अलग ही किस्म की राजनीतिक और सामाजिक प्रतिद्वंदिता है. बालेन्दु ने बहुत ही हंसोड़ और व्यंग्यात्मक अंदाज में पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण जीवन का जीवंत चित्र खींचा है.

उपन्यास के पात्र अपनी अड़ंगेबाजी, पैंतरेबाजी, धोखेबाजी, मक्कारी, तीन-तिकड़म और खींच-तान में आकण्ठ डूबे हैं और जब-तब अपनी इन हरकतों और इनके प्रदर्शन पर खुलकर अट्टाहस करते हैं. इन सबके बहाने लेखक ने पूरे उपन्यास में सहज, लेकिन बेहद चुटीले और तीव्र हास्य के जो शानदार जलवे बिखेरे हैं वे इसे जबरदस्त पठनीय बनाकर छोड़ते हैं. बालेन्दु द्विवेदी में हर एक विद्रूपता, विसंगति पर हंसने-हंसाने और मदारी की तरह मजमेबाजी करने का जबरदस्त हुनर है. उपन्यास की गंवई भाषा की रवानी और ताजगी पाठकों को न सिर्फ प्रभावित करती है बल्कि अंत तक बांधे भी रखती है.

यह कहना गलत नहीं होगा कि बालेन्दु द्विवेदी का यह उपन्यास ‘रागदरबारी’ की एक दूसरी कड़ी के रूप में देखे जाने की काबिलियत रखता है. लेखक का यह पहला ही उपन्यास इन दो रसों के ढेर सारे कंटेनर लेकर मदारीपुर जंक्शन पर आपके इंतजार में खड़ा है. हिन्दी साहित्य के यात्रा प्रेमियों को एक बार मदारीपुर जंक्शन की यात्रा जरूर करनी चाहिए.

5.स्त्री शतक

अतीत के कुछ प्रमुख महिला पात्रों की चर्चा यह बताने के लिए तो अक्सर की जाती है कि हमारी प्राचीन सभ्यता में उनका कितना ऊंचा स्थान था. लेकिन हमारे धर्म, इतिहास, आख्यान या पुराण से जुड़े असंख्य स्त्री पात्रों की वेदना, उनके सवाल, टीस कभी हमारे सामने नहीं लाई गई. किसी भी शक्ल में नहीं. न तो उन स्त्री पात्रों पर आज तक स्त्रियों के नजरिये से कोई शोध हुआ है, न ही उन किताबों या पात्रों का पुनर्पाठ ही किसी ने किया है. पवन करण का यह अद्वितीय कविता संग्रह हमारे सामने धर्म, पुराण और आख्यान से जुड़े ऐसे ही 100 स्त्री पात्रों के दर्द, संत्रास, कचोट, परतंत्र व्यक्तित्व, सवाल और द्वंद्व को हमारे सामने बेहद सटीक और मार्मिक तरीके से लाने में सफल होता है.

 

 

पवन करण की कविताएं राजाओं की रानियों, बेटियों, पत्नियों, स्वर्ग की अपसराओं, गणिकाओं और वेश्याओं के भीतर के नासूर जैसे सवालों को आज सदियों बाद भी बड़ी मुस्तैदी से पकड़ती हैं. साथ ही वे उदाहरण-दर-उदाहरण उस दौर के पुरुषों, राजाओं और महर्षियों को भी अपराधी बना कटघरे में खड़ा करती जाती हैं. इन कविताओं का एक सशक्त पक्ष यह है कि स्त्रियों की वेदना और टीस में डूबकर ये इतनी विद्रोही हो जाती हैं कि देवताओं तक को उनकी औकात दिखाने से बाज नहीं आतीं!

इन स्त्री पात्रों की हताशा, पीड़ा, आक्रोश, सवाल, द्वंद, चीत्कार और वेदना से उपजे सवाल पुरुषों के दंभ और खोखले अभिमान पर चोट करके पूरे समाज को जबरदस्त अपराधबोध में डालते हैं. वहीं कवि का यह सराहनीय प्रयास खुद की (पुरुष साहित्य वर्ग) की प्रासंगिकता बचाए रखने की अंतिम कोशिश भी नजर आती है. ऐसा इसलिए, क्योंकि उन्हीं की एक पात्र कहती है – ‘अपनी कथाओं में आखिर / कितनी स्त्रियों का वध करेंगे आप / कथाओं में वधित स्त्रियां / जिस दिन खुद को बांचना / शुरू कर देंगी, कथाएं बांचना / छोड़ देंगी तुम्हारी’

कुल मिलाकर यह स्त्री-विमर्श की बेहद सशक्त कविताओं का एक दुर्लभ और संग्रहणीय कविता संग्रह है. पवन करण एक बार फिर अपने स्त्री-मन से चौंकाते हैं, चमत्कृत करते हैं, अभिभूत करते हैं, निशब्द करते हैं!

साभार- https://satyagrah.scroll.in/ से

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