देश और विदेश के मित्रों और प्रिय पाठकों ने मुझे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेनिव) के छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार के भाषण की क्लिप भेजी और मुझसे अनुरोध किया कि उस पर मैं अपनी राय दूं। उन्होंने यह भी पूछा कि क्या कन्हैया को मोदी के विकल्प के तौर पर खड़ा किया जा सकता है?
कन्हैया की गिरफ्तारी के वक्त मैंने लिखा था कि सरकार ने जनेवि में तिल का ताड़ बना दिया है। कुछ लड़कों की बचकाना हरकत को उन्होंने अनावश्यक तूल देकर देश और दुनिया में जबर्दस्त बदनामी मोल ले ली है। अफजल गुरु और कश्मीर के नारे कुछे लड़कों ने लगाकर अपनी मूर्खता का प्रदर्शन किया। सरकार ने उन पर देशद्रोह की धाराएं थोपकर और बड़ी मूर्खता का प्रदर्शन कर दिया। मैंने यह भी लिखा था कि कन्हैया जेल से छूटने के बाद यदि पार्टीबाजी से ऊपर उठ गया तो सचमुच वह हमारे वर्तमान नेताओं को खदेड़ सकता है। ‘बंडियां’ बदल-बदलकर बंडल मारनेवाले हमारे नेताओं से वह कहीं बेहतर भाषण देता है।
अब जमानत पर छूटने के बाद उसने जो भाषण दिया, उसे देश और विदेश में लाखों लोग सुन रहे हैं। मजे ले रहे हैं। मैंने भी सुना। कन्हैया के भाषण के सामने राहुल गांधी का भाषण पासंग भर भी नहीं होता है। यह भी ठीक है कि यदि जुबानी मुठभेड़ हो जाए तो कन्हैया मोदी को भी ढेर कर सकता है।
यह भी मैंने सुना कि कन्हैया ने संविधान और लोकतंत्र की बार-बार कसम खाई लेकिन बार-बार लेनिन, मनुवाद, आंबेडकर, जातीय आरक्षण और ‘आजादी’ की बात करना यह बताता है कि स्कूल आॅफ इंटरनेशनल स्टडीज का शोध-छात्र होने के बावजूद कन्हैया के पास अपना कोई मौलिक सोच नहीं है। वह मार्क्सवाद की बासी कढ़ी हिंदी की चमचमाती चम्मच से परोस रहा था। लोकतंत्र की जितनी जड़ें हिटलर और मुसोलिनी ने खोदी हैं, उससे ज्यादा लेनिन, स्तालिन और माओ ने खोदी हैं। यदि कन्हैया इन नेताओं के देश में पैदा हुआ होता तो उसके माता-पिता उसे अब तक ढूंढते ही रह जाते।
कन्हैया भाग्यशाली है कि इस भोंदू सरकार ने उसे इतना प्रचारित कर दिया लेकिन उसके इस दूसरे भाषण के संकेत साफ हैं कि वह छात्र-छात्राओं के बीच लच्छेदार बातें जरुर कर सकता है लेकिन उसके पास इतनी बौद्धिक क्षमता नहीं है कि वह देश के इस समय जैसे भी नेता हैं, उनका मुकाबला कर सके या देश को नई दिशा दिखा सके। यह दुखद ही है कि अन्ना आंदोलन और जनेवि उठा-पटक में से देश के लिए अभी तक कोई विकल्प नहीं उभरा।अपने सभी राजनीतिक दल एक-दूसरे का विरोध करते-करते एक-दूसरे के जैसे हो गए हैं। पता नहीं, कौनसा ऐसा जन-आंदोलन उठ खड़ा होगा कि वह भारत की इस पिटीपिटाई राजनीति का विकल्प बन सकेगा?