उदयपुर जिले का संपूर्ण क्षेत्र अरावली पहाड़ियों से घिरा होने से बरसात एवं सर्दियों में संपूर्ण जिला हरियाली चादर ओढ़ लेता है और प्राकृतिक नजारे सुंदर और मोहक हो जाते हैं। बरसात में उदयपुर के खिलते चित्ताकर्षक सौंदर्य को वही महसूस कर सकता है जो स्वयं इसका साक्षी हो।अरावली की सुरम्य पहाड़ियों के चरण पखारती झीलों के मध्य स्थित राजस्थान का कश्मीर कहा जाने वाला खूबसूरत उदयपुर शहर सुंदरता और प्राकृतिक परिवेश की वजह से इसे पूर्व का वेनिस एवं झीलों की नगरी आदि संज्ञाओं से विभूषित किया गया है।
अरावली पर्वत श्रृंखलाएं विश्व की सबसे प्राचीन पर्वतमालाएं उदयपुर जिले के धरातल का मुख्य भाग हैं। भूगोलवेत्ता प्रमोद कुमार सिंघल के अनुसार उदयपुर जिले में अरावली क्रम की शिष्ट चट्टानें और पूर्व केम्ब्रीयनकाॅल की अल्ट्राबेसिक शैल, निस एवं ग्रेनाईट चट्टानों की अधिकता है। कहीं-कहीं फाइज्लाइट्स और रूपान्तरित चट्टानें भी मिलती हैं। जिले में 4367.67 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में सघन वन मिलते हैं। पश्चिमी भाग में अरावली की प्रधानता है और पूर्व में बनास एवं सहायक नदियों का उपजाऊ मैदानी क्षेत्र है। दर्रो एवं नालों को हाथिया गुढ़ा की नाल, देसुरी की नाल, जामुनिया का नाला, केवड़ा की नाल, चीरवा घाटा, झरका घाटा, पानरवा की घाटी आदि नामों से पुकारा जाता है। अरावली के पर्वत श्रेणियों के मध्य स्थित पठारी भागों में गोगुन्दा, बाघपुरा, भोरट, गिरवा आदि प्रमुख हैं। पहाड़ी क्षेत्र को मगरा और पठारी अथवा मैदानी भाग को मेवाडमाल कहा जाता है। अरावली के जरगा, कुंभलगढ, मोेेेेबारा एवं सांवजी की टूंक आदि प्रमुख शिखर हैं। पहाड़ियां वन, वन्यजीव एवं खनिज सम्पदा से भरपूर हैं। जयसमन्द वन्यजीव अभयारण्य, सीतामाता अभयारण्य तथा सज्जनगढ़ अभयारण्य स्वछंद वन्यजीवों के लिए अपनी पहचान बनाते हैं। पहाड़ों के मध्य गांवों में सावन-भादों के महिनों में भील आदिवासियों की गवरी नृत्य नाटिका चालीस दिनों तक देखने को मिलती है। गौरी एवं शिव इसके प्रमुख पात्र होते हैं। गौरी के नाम पर इसका नाम गवरी पड़ा। होली पर गांव-गांव में भील लोग गैर नृत्य करते दिखाई देते हैं। मांडना एवं सांझी लोक कलाएं प्रचलित हैं।
उदयपुर की स्थापना महाराणा उदयसिंह ने 1559 ई. के आसपास की और उन्हीं के नाम पर उदयपुर शहर की स्थापना की गई। उदयपुर आज जिला मुख्यालय के साथ-साथ संभाग मुख्यालय नाम से जाना जाता है। उदयपुर पर्यटन मानचित्र पर विश्व पटल पर सर्वश्रेष्ठ अवकाश स्थल के रूप में पहचान बनाता हैं। पूरे वर्ष उदयपुर सैलानियों की चहल -पहल से आबाद रहता हैं।
सिटी पैलेस
ऊंची पहाड़ी पर पिछोल झील के तट पर स्थित राजस्थानी और मुगल वास्तुकला शैली में बना उदयपुर का राजमहल अपनी भव्यता, कलात्मकला एवं प्राचीन वस्तुओं के संग्रह के लिए विषेश रूप से पहचान बताता है और सबसे ज्यादा विजिट करने वाला पर्यटक आकर्षण है। पैलेस आंगनों, मंड पों, छतों , गलियारों ,कमरे,टाॅवरों, गुंब दों मेहराबों और उद्यानों का शानदार नमूना हैं। तीन धनुषाकार मुख्य त्रिपोलिया गेट देखते ही बनता है। सिटी पैलस में 11 शानदार महल हैं, जिन्हें विभिन्न शासकों द्वारा बनाया गया था, फिर भी वे एक दूसरे के समान दिखते हैं। अनूठी पेंटिंग, एंटीक फर्नीचर और उत्कृष्ट गिलास मिरर और सजावटी टाइलों की झलक के साथ इन महलों में किसी आश्चर्य से कम नहीं है। मनक महल (रूबी पैलेस) में क्रिस्टल और चीनी मिट्टी के बरतन के नमूनें हैं। भीम विलास में राधा-कृष्ण की वास्तविक जीवन कथाओं को चित्रित करने वाले लघु चित्रों का शानदार संग्रह दिखाया है। कृष्ण विलास’ महाराज के शाही जुलूस, त्योहारों और खेलों को चित्रित करने वाली लघु चित्रों के उल्लेखनीय अल्बम के लिए जाना जाता है। मोती महल (पर्ल पैलेस) को अपनी भव्य सजावट के लिए मनाया जाता है, जबकि शीश महल (दर्पण का पैलेस) अपने लुभावनी दर्पण काम के लिए जाना जाता है।
’चीनी चित्रशला’ अपने चीनी और डच सजावटी टाइलों के लिए प्रसिद्ध है। ’दिलखुश महल’ , भित्ति चित्रों और दिवार चित्रों के लिए जाना जाता है। बड़ा महल विदेशी उद्यान महल है जो 90 फुट ऊंची प्राकृतिक राॅक संरचना पर खड़ा होता है। अमर विलास’इस महल का सबसे ऊंचा स्थान है और फव्वारे, टावरों और छतों के साथ शानदार लटका हुआ उद्यान है। सिटी पैलेस में नाजुक दर्पण कार्य, संगमरमर का काम , भित्ति चित्र, दीवार चित्रकारी, चांदी का जड़ाऊ का काम अद्भुत है। सिटी पैलेस के जनाना महल के एक हिस्से को जिसे गार्डन होटल के रूप में परिवर्तित किया गया है के समीप पुरानी कारों का एक अच्छा विन्टेज कार म्यूजियम दर्शनीय है। यहां संग्रहित 22 प्राचीन दुर्लभ कारों को देखना आश्चर्य जैसा लगता है। महल के एक हिस्से में राजकीय संग्रहालय स्थापित है। समीप ही फतेह प्रकाश महल जो होटल में बदल दिया गया है में क्रिस्टल गेलरी दर्शनीय हैै।
जगदीश मन्दिर
सिटी पैलेस के उत्तर में 150 मीटर दूरी पर जगदीश चौंक में स्थित जगदीश मन्दिर इन्डो-आर्यन स्थापत्य कला का बेहतरीन नूमना है। भगवान विष्णु को समर्पित मंदिर का निर्माण उदयपुर के महाराणा जगतसिंह द्वारा 1651 ई. में करवाया गया था। बना है। धार्मिक आस्था से जुड़ा यह मन्दिर अपनी मूर्ति एवं स्थापत्य शिल्प कला की बारिक कारीगरी के कारण यहां आने वाले सैलानियों के लिए पर्यटन का एक प्रमुख धार्मिक स्थल भी है।
बत्त्तीस सीढ़ियों युक्त प्रवेश द्वार के सामने पत्थर के दो हाथी खड़ी मुद्रा में नजर आते हैं आकर्षक है। मुख्य मन्दिर के सामने गरूड़ प्रतिमा स्थापित है। मन्दिर की दीवारों एवं स्तम्भों पर कलात्मक मानवीय एवं पशु (विशेषकर हाथी) प्रतिमाएं बनाई गई हैं। शिखर में संगीतकारों, नर्तकों एवं घुड़सवारों की मूर्तियां सजी हैं। विशाल और शिखरबन्द मुख्य मन्दिर काफी दूर से नजर आता है, जिसकी ऊंचाई 79 फीट है।पंचायतन शैली में बने तिमंजिले मन्दिर के चारों कोनों में बाहर की ओर चार लघु मन्दिर शिव-पार्वती, गणेश, सूर्य तथा देवी को समर्पित हैं। उड़ीसा के पुरी में स्थित जगन्नाथ जी हर वर्ष रथयात्रा की तरह यहां भी हर वर्ष जगन्नाथराय जी की रथयात्रा का आयोजन किया जाता है। मन्दिर में फाल्गुन शुक्ल एकादशी के अवसर पर भव्य रूप से फागोत्सव मनाया जाता है। शहर में बोहरा गणेश जी मन्दिर की विशेष मानता हैं।
पिछोला झील
खूबसूरत पिछोला झील का निर्माण चौदहवीं शताब्दी में एक बंजारे द्वारा महाराणा लाखा के समय में कराया गया था। महाराणा उदयसिंह के समय में झील की पाल को ऊॅचा कराने के साथ झील के मध्य दो महलों जगमंदिर एवं जगनिवास का निर्माण भी कराया गया। जगमंदिर में कुछ समय के लिए शाहाजहाॅ ने शरण ली थी। जगनिवास को आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के लेक पैलेस होटल में बदल दिया गया है। झील उत्तर से दक्षिण तक करीब 4 .5 किलोमीटर चौड़ी और 10 से 15 फुट गहरी है। झील में सीसारमा नदी से पानी की आवक होती है। झील के तट पर बने घाट , मंदिर और बागोर की हवेली आकर्षण का केन्द्र हैं। बागोर की हवेली में संग्रहालय एवं सांय काल सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रमुख आकर्षण हैं। झील के गणगौरी घाट पर होली के बाद गणगौर पर्व पर पूरी भव्यता से आयोजित दो दिवसीय ’मेवाड़ उत्सव’ में बहुत बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक भी मौजूद रहते हैं। नावों में गणगौर की शोभा अत्यंत मनोहारी होती है। पिछोला झील का एक हिस्सा बड़ी पाल के रूप में दर्शनीय है।
फतहसागर झील
यह झील एक नहर के साथ पिछोला झील से जुड़़ी हुई है जिसे स्वरूपसागर कहा जाता है। फतहसागर झील की प्राकृतिक छटा अतुलनीय है। झील का निर्माण महाराणा फतेहसिंह के समय कराया गया। झील में पानी की आवक आहड़ नदी से होती है। झील पर बने बांध (पाल) की ऊंचाई 15.24 मीटर है। अच्छी बरसात के दिनों में यह झील पानी से लबालब भर जाती है और उस समय यहां का दृश्य दर्शनीय होता है। रात्रि में विद्युत रोशनी में नहाये फतहसागर झील की छटा भी अनोखा आनन्द प्रदान करती है। सर्दियों के कोहरे में झील का दृश्य अत्यंत मनोरम हो हिल स्टेशन का आभास कराता है।
नेहरू गार्डन
फतहसागर झील के मध्य 779 फुट लंबा तथा 292 फुट चौड़े नेहरू गार्डन तक नौकायन से जाते हैं। उद्यान के फव्वारे मैसूर के वृन्दावन गार्डन की तरह हैं। रात्रि में रंगबिरंगी बिजली से सजा गार्डन और झील के पानी में झिलमिलाती रंगबिरंगी किरणों से दृश्य अत्यन्त मनोहारी लगता है। झील के मध्य किनारे से कुछ दूर छोटे से टापू पर जेट फव्वारा भी लगाया गया है।
सौर वेधशाला
फतहसागर झील के मध्य एक टापू पर 1975 ईसवी में सौर वेधशाला की स्थापना अहमदाबाद स्थित वेधशाला की इकाई के रूप में की गई। वर्ष 1981 से इसे देश के अंतरिक्ष विभाग से जोड़ गया। अंतरिक्ष विभाग ने इसे भौतिक अनुसंधान शाला अहमदाबाद से जोड़ दिया। उदयपुर सौर वेधशाला का मुख्य उद्देश्य विभिन्न विधियों ओर प्रयोगों के माध्यम से सूर्य की संरचना, उसमें होने वाले परिवर्तन, गतिविधियां तथा इसका पृथ्वी एवं मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना है। सौर वेधशाला विभिन्न प्रकार की दूरबीनों, उपकरणों, अत्याधुनिक कैमरों तथा कम्प्यूटर आदि से सुसज्जित है। यहां सूर्य का बारीकी से अध्ययन करने के लिए देश की सबसे बड़ी दूरबीन (सौलर टेलीस्कोप) स्थापित की गई है। सूर्य-पृथ्वी के संबंध में गहन अनुसंधान हेतु इस वेधशाला की दूरबीनों द्वारा लिए गए चित्र अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। अनुसंधान हेतु यहां एक पुस्तकालय भी बनाया गया है।
प्रताप स्मारक-मोतीमगरी
फतहसागर झील के किनारे मोतीमगरी नामक ऐतिहासिक पहाड़ी को चार पार्कों में विभक्त किया जाकर एक पार्क का नाम महाराणा प्रताप पार्क रखा गया जहां प्रताप स्मारक का निर्माण किया गया है। यह प्राकृतिक वनस्पति एवं आकर्षक उद्यानों व फव्वारों से एक दर्शनीय स्थल बन गया है। यहां छोटे से उद्यान में महाराणा प्रताप के वफादार घोड़े चेतक पर सवार महारणा प्रताप की श्यामवर्णीय प्रतिमा एक ऊंचे चबूतरे पर बनायी गई है। प्रताप एवं चेतक घोड़े का शिल्प अत्यन्त दर्शनीय है। जिस चबूतरे पर यह प्रतिमा स्थापित है उसके चारों तरफ महाराणा प्रताप के जीवन से संबंधित घटनाओं को पाषाण में दर्शाया गया है। समीप ही एक दूरबीन लगायी गई है जिसमें न्यूनतम शुल्क से फतहसागर की छटा को निहारा जा सकता है।
दूसरे पार्क में हल्दीघाटी युद्ध के भील सेनानायक भीलू राजा की आदमकद प्रतिमा स्थापित की गई है जहां आदिवासी भील जीवन की झलकियां, सर्पगृह, मृगविहार, भीलों के मकान तथा एक कृत्रिम झील दर्शनीय हैं। भीलू राजा की प्रतिमा का अनावण 8 फरवरी 1989 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के कर-कमलों से किया गया।
तीसरा पार्क दानवीर भामाशाह के नाम पर विकसित कर भामाशाह की आदमकद प्रतिमा एक विशाल बुर्ज पर स्थापित की गई है। यहां कमल तलाई फव्वारा, कृत्रिम झरना तथा बर्फीली पहाड़ी के दृश्य बनाए गए हैं। इसी पार्क में बर्ड सेंक्चूरी भी स्थित है। एक अन्य पार्क हकीमखां सूरी के नाम से मुख्य प्रतिमा के बांई ओर नीचे पहाड़ी पर बनाया गया है। यहां जनाने महलों के खण्डर भी मिलते हैं। यहां जनाने महल के पूर्व की ओर एक ऊंची चट्टाना पर तोप के सामने महान योद्धा हकीमखां सूरी की प्रतिमा स्थापित की गई है एवं एक सुंदर बगीचा भी विकसित किया गया है। मोतीमगरी पहाड़ी पर इन प्रमुख दर्शनीय स्थलों के साथ-साथ वीर भवन हाॅल आॅफ हिरोज एवं अस्त्र-शस्त्र संग्रहालय भी बनाये गये हैं। पहाड़ी पर एक अन्य आकर्षण एवं ऐतिहासिक महत्व के ’’मोती महल’’ है। आज यह खंडहर के रूप में विद्यमान है। कहा जाता है महाराणा उदयसिंह ने उदयपुर नगर बसाने से पूर्व इसी पहाड़ी पर इन महलों का निर्माण कराया था।
नीमज माताजी मंदिर
फतहसागर झील की पाल को पार कर 850 मीटर की ऊंची नीमज पहाड़ी पर माता जी का मंदिर अरावली पर्वत श्रृंखला का धार्मिक पर्यटन स्थल हैं। मंदिर के गर्भगृह में नीमज माता की आदमकद प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा के समीप ही भैरूजी विराजमान है। गर्भगृह के बाहर सभा मण्डप में ठीक प्रतिमा के सामने देवी का वाहन सिंह जोड़े में त्रिशूल आदि के साथ स्थापित है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार के बाहर बांई ओर श्वेत पाषाण की गणपति प्रतिमा तथा दांईं ओर कामी व लाल रंग से सज्जित नागराज की प्रतिमा स्थापित है। चढ़ाई चढ़ने के बाद मुख्य मंदिर तक पहुंचने के लिए मंदिर से जुड़ी 61 सीढ़ियां पार करनी होती हैं।
शिल्पग्राम
फतहसागर झील के दूसरे किनारे पर उदयपुर से 6 किलोमीटर दूरी पर लोक कलाओं के संरक्षण के लिए 1989 ई. में पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र द्वारा शिल्पग्राम की स्थापना की गई। करीब 130 बीघा में निर्मित शिल्पग्राम में प्रदेशों की आदिम एवं लोक संस्कृति को दर्शाने वाली 26 पारंपरिक झौंपडियों का निर्माण किया गया हैं। आदिवासी समुदाय की जीवनशैली, रीति-रिवाज और जीवनयापन के तौर-तरीकों से परिचित हों व एक-दूसरे की कला के प्रति अनुराग बढ़े इस दृष्टि से यहां राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और गोवा राज्यों की कलात्मक झलक प्रस्तुत की गई है।
शिल्पग्राम का प्रमुख आकर्षण यहां का संग्रहालय है। इसमें ग्रामीण दस्तकारी व हस्तकलाओं का अच्छा संग्रह किया गया है। मिट्टी की कलात्मक कोठियां, वस्त्रों पर की गई कारीगरी, आदिवासियों में प्रचलित मुखौटे, अंलकृत लकड़ी एवं धातुओं की वस्तुएं, कठपुतली तथा खिलौने आदि विविध प्रकार की सामग्री यहां देखने को मिलती है। परिसर में नृत्य के लिये कई मंच बने हैं जहां कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। प्रति वर्ष दिसम्बर – जनवरी माह में यहां 10 दिवसीयअन्तर्राष्ट्रीय स्तर का शिल्प मेला आयोजित किया जाता है जिसे देखने के लिए देश-विदेश के सैलानी बड़ी संख्या में आते हैं। इस मेले में देशभर के शिल्पियों को उनकी कलाकृतियों के प्रदर्शन एवं विक्रय के लिए आमंत्रित किया जाता है।
सहेलियों की बाड़ी
सहेलियोंकी बाड़ी फतहसागर के एक किनारे पर शहर का अत्यन्त मनोरम एवं दर्शनीय पर्यटक स्थल है। सहेलियों की बाड़ी के उद्यान एवं आकर्षक फव्वारों का निर्माण महाराणा फतहसिंह द्वारा किया गया था। यहां का प्रमुख आकर्षण मार्बल पत्थर से बना स्वीमिंग पूल है जिसके चारों तरफ आकर्षक छतरियां एवं फव्वारे बनाये गये हैं। स्वीमींग पूल के मध्य एक ओर बड़ी आकर्षक छतरी है जिसके ऊपर चारों तरफ से फव्वारा चलता है एवं छतरी के मध्य एक खड़ी महिला प्रतिमा बनायी गई है। उद्यान में बने आकर्षक हाथियों की सूंड से तथा पक्षियों की चोंच से छूटने वाले फव्वारे रोमांचित करते हैं। हरियाली अमावस्या को फतहसागर की पाल पर दो दिवसीय मेले में एक दिन का मेला सहेलियों की बाड़ी में केवल महिलाओं के लिए आयोजित किया जाता हैं।
भारतीय लोक कला मण्डल
लेक कलाओं के प्रदर्शन व सरंक्षण की दृष्टि से देवीलाल सामर द्वारा 22 फरवरी 1952 को स्थापित इस संस्थान में लोक संस्कृति से संबंधित वस्त्र, गहने, वाद्य यंत्र, चित्र, कठपुतलियां आदि एक संग्रहालय में प्रदर्शित किए गए हैं। यहां परम्परागत कठपुतलियों पर शोध एवं प्रशिक्षण होता हैं। यहां के प्रशिक्षण केन्द्र में लोक नृत्य, लोक संगीत, लोक नाट्य व हस्तशिलप के नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था है। भवन में एक बिक्री काउण्टर स्थापित किया गया है जिसका उद्घाटन 20 नवम्बर 1993 को फिल्म नायिका जया बच्चन ने किया। कठपुतली कार्यशाला में प्रशिक्षण लेने के लिए न केवल देश के वरन दुनिया के कई देशों के कलाकार आते हैं। जनजाति अनुसंधान इंस्टीट्यूट (टी.आर.आई) में स्थापित जनजाति संग्रहालय आदिवासी जन जीवन को नजदीक से देखने का अवसर प्रदान करता है।
सुखाडिया सर्कल
इसके समीप ही स्थित सुखाड़िया सर्किल सांय से ही पर्यटकों की चहल पहल से आबाद हो जाता है। इसमें 42 फुट ऊंचा फव्वारा आकर्षण का केन्द्र है। फव्वारे के ऊपरी भाग में गेहूं की एक विशाल बाली बनाई गई है। सर्कल के एक कोने में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. मोहनलाल सुखाडिया की प्रतिमा लगाई गई है जिसके पास उद्यान में बच्चों के मनोरंजन के लिए खेल उपकरण लगाए गए हैं। सैलानी संध्या के समय सर्किल के पास सजे-धजे घोड़े व ऊंट सवारी का और झील में बोटिंग का आनंद लेते हैं।
गुलाबबाग
करीब 68 एकड़ भू-भाग पर विकसित गुलाबबाग का निर्माण महाराणा सज्जनसिंह ने 1881 ईसवी में कराया था। उन्होंने यहां विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधे व फव्वारे लगवाए। सिंचाई के लिए पिछोला झील से नाले के माध्यम से पानी की व्यवस्था की गई। उद्यान के चारों ओर परकोटा, सड़क एवं बगीचों का निर्माण कराकर बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया गया। इनके बाद महाराणा फतहसिंह के समय भी यहां आशापाला, सीता, ओक चंदन, रबर प्लान्ट, नीम, चमेली, बाॅटलपाम, बरगद आदि प्रजातियों के पेड़ लगवाए तथा फर्न हाउस (ग्रीन हाउस) का निर्माण करवाया। उद्यान में रंग-बिरंगे गुलाब लगाने के लिए गुलाबबाड़ी बनाई गई और इसी के कारण इस उद्यान का नाम गुलाबबाग के रूप में पहचाना जाने लगा। उद्यान के मुख्य प्रवेश द्वार पर दो सिंह प्रतिमाएं बनी हैं। यहां बच्चों के मनोरंजन के लिए एक टाॅयट्रेन संचालित की जाती है। उद्यान के मध्य ही एक अच्छा चिड़ियाघर बना है जहां विभिन्न किस्मों के जानवर और पक्षी देखे जा सकते हैं।
दूधतलाई-रोपवे
अरावली की चोटी माछला मगरा और पिछोला झील के मध्य दूधतलाई एक खूबसूरत स्थल है। इसके समीप पहाड़ी पर एक आकर्षक दीन दयाल उद्यान का विकास किया गया है। समीप से ही पहाड़ी के ऊपर बने प्राचीन किले के भग्नावशेषों व करणीमाता मंदिर को देखने के लिए करणी माता रोप-वे लिमिटेड द्वारा रोप-वे की सुविधा मुहैया कराई गई है। रोप-वे के माध्यम से करणी माता तक पहुंचने के दौरान उदयपुर का प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त मनोहारी लगता है।
सज्जनगढ़ दुर्ग
मेवाड़ महाराणा सज्जनसिंह ने अपने दस वर्षीय शासनकाल (सन् 1874-1884) में साहित्य, संगीत, कला, सस्कृति, धर्म और आध्यात्म आदि हर क्षेत्र में राज्य का चहुंमुखी विकास किया। सज्जनगढ़ का निर्माण भी उन्ही की देन है। यह दुर्ग उदयपुर से 3 किलोमीटर पश्चिम की ओर पिछोला झील से अम्बामाता होकर जाने वाले मार्ग पर बांसदरा पहाड़ी पर बनाया गया जो भूमितल से 1100 फीट तथा समुद्रतल से 3100 फीट की ऊंचाई लिये हुए है। उदयपुर में आने वाला हर पर्यटक सज्जनगढ़ को अपनी दृष्टि से न भी निहारना चाहे तब भी यह दुर्ग सबको अपनी ओर सहसा ही आकर्षित कर लेता है। यहां तक पहुंचने के लिए बड़ी ही सुन्दर घुमावदार पक्की सड़क बनी हुई है। वर्तमान में यह पुलिस का वायरलैस केन्द्र बनकर अपने अतीत के वैभव को समेटे है। यहां से सम्पूर्ण शहर का मनभावन नजारा अत्यंत मोहक दिखाई देता है।
सज्जनगढ़ बायोलोजिकल पार्क
गुलाब बाग स्थित चिड़ियाघर में वन्यजीवों के लिए सीमित स्थान होने से सज्जनगढ़ अभयारण्य की तलहटी से अभयारण्य सीमा से बाहर वन भूमि में 36 हेक्टेयर भूमि में बायोलोजिकल पार्क सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र बन गया है। यहाँ 24 एनक्लोजर बनाये गये हैं। बोरादा लैण्ड स्केप माॅडल पर निर्मित बेहतंरीन पार्क है। इसमें पर्यटकों के लिए आवश्यक समस्त सुविधाएं हंै। वन्यजीवों को प्राकृतिक आवास के लिए बड़े पैमाने पर वृक्ष लगाये गये हैं। यहाँ घड़ियाल, बाघ, हाइब्रिड लाॅयन, पेंथर, ऐशियाटिक लाॅयन, शतुर्मुग सहित 22 प्रजातियों के वन्यजीव पाये जाते हैं। यहाँ जयपुर, बेंगलूर (बेनरघाट) जूनागढ़, चेन्नई एवं रणथंभौर आदि स्थानों से वन्यजीव लाये गये हैं। पार्क में घूमने के लिए गोल्फ कार एवं साइकिलें उपलब्ध हैं। बच्चों के मंनोरंजन के उपकरण भी यहाँ लगाये गये हैं।
आहड़ संग्रहालय
उदयपुर रेलवे स्टेशन के निकट आहड़ नामक प्राचीननगर के खण्डर हैं जहां ईसा से लगभग दो हजार वर्ष पहले से लेकर ईसा के एक हजार साल बाद तक के अवशेष प्राप्त हुए हैं। माना जाता है यहां एक समृद्धशाली नगर था जो कालान्तर में ध्वस्त हो गया। यहां एक प्राचीन कुण्ड बना है जिसमें वर्ष भर श्रद्धालु स्नान करते हैं। कुण्ड के दक्षिण में शिवालय के सामने दूसरा कुण्ड व तिबारियां बनी हैं।
यहां के खण्डहरों में धूलकोट नामक ऊंचा टीला है जहां खुदाई करने पर बड़ी-बड़ी ईटें, मूर्तियां व प्राचीन सिक्के मिले हैं। यहां से खुदाई में चमकदार लालरंग के चिकने पात्र भी प्राप्त हुए हैं। ये पात्र काले, चकतेदार, सलेटी व भूरे रंगों के भी पाये गये हैं। सभी में किसी न किसी प्रकार का अलंकरण देखने को मिलता हैं कुछ पात्र अत्यन्त मजबूती लिये हुए हैं। मृदपात्रों में छोटे प्याले, कम गहरी थालियां तथा छोटे-ऊंचे-संकरे गर्दन के छोटे गोलपात्र मिले हैं। रसोई घर के काम में आने वाले कई पात्र मिले हैं। यहां से कई प्रकार के पाषाण उपकरण जिनका उपयोग चाकू अथवा अन्य प्रकार हथियारों के रूप में किया जाता था प्राप्त हुए हैं। मिट्टी के बने हुए बच्चों के खिलोने व पशु आकृति के पाये गये हैं। धूलकोट के टीले पर भवनों के अवशेष भी पाये गये हैं। यहां मुख्य उद्योग ताम्बा गलाना और उसके उपकरण बनाना रहा होगा, इस बात का पता यहां से मिले ताम्बे की कुल्हाड़ियों एवं अस्त्रों से चलता है। एक घर में ताम्बा गलाने की भट्टी भी मिली है। इसी कारण इस बस्ती को ताम्बावती के नाम से भी पुकारा गया। यहाँ स्थित आहड़ संग्रहालय में इन सब का प्रदर्शन दर्शनीय है।
महासतियां
आहड़ में अहाते से घिरा हुआ महाराणाओं का दाह स्थल है। इसे महासतियां भी कहा जाता है। महाराणा प्रताप के बाद राणाओं का अंत्येष्टि संस्कार यहीं पर किया गया। यहां महाराणा अमरसिंह प्रथम की छतरी सबसे पुरानी है। महाराणा अमरसिंह के साथ 10 रानियां, 9 सहेलियां सति हुई थी। अमरसिंह द्वितीय तथा संग्रामसिंह द्वितीय की छतरियां भव्यता लिए हुए हैं। इनमें भी महाराणाओं के साथ सति होने वाली स्त्रियों के स्मारक बने हुए हैं। इस स्थान पर अनेक छोटी-छोटी छतरियां भी बनी हुई हैं जिन पर शिलालेख लगे हैं। कुछ शिलालेख इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इन छतरियों की कारीगरी दर्शनीय है।
जयसमन्द झील
उदयपुर से 48 किमी. दूर चारों ओर पहाड़ों के बीच प्राकृतिक परिवेश की अनुपम छटा के बीच स्थित जयसमंद झील एशिया की दूसरी बड़ी कृत्रिम झील है जिसे 17वीं शताब्दी में महाराणा जयसिंह द्वारा बनाया गया था। इसके किनारे बने बांध की सीढ़ियों, छतरियों, हाथियों एवं नर्बदेश्वर मंदिर का स्थापत्य देखते ही बनता है। झील के मध्य वन एवं प्रकृति प्रेमी तथा पर्यटन विकास के लिए निरन्तर प्रयासरत प्रताप भण्डारी ने एक टापू पर आईलैण्ड रिसोर्ट का निर्माण कराया है जहां सैलानियों के ठहरने, खाने-पीने व मनोरंजन की बेहतरीन सुविधाएं उपलब्ध हैं। यहां तक आने-जाने के लिए मोटरबोट की सुविधा भी की गई है। यहां जयसमन्द अभयारण भी वन विभाग द्वारा बनाया गया है। जिसमें विचरण करते वन्य-जीव देखे जा सकते हैं। यहां तक पहुंचने के लिए केवड़ा की नाल के मनोरम मार्ग से होकर गुजरना प्राकृतिक आनंद प्रदान करता है।
जयसमन्द वन्य जीव अभयारण्य
इस अभयारण्य की स्थापना 7 नवम्बर 1955 का की गई। यह उदयपुर से लगभग 52 किलोमीटर दूर दक्षिण-पूर्व में स्थित है। इसका कुल क्षेत्रफल 52.34 वर्ग किलोमीटर है। इस अभयारण्य का नाम यहाँ पर स्थित मीठे पानी की झील जयसमन्द पर पड़ा। झील में विभिन्न प्रकार की मछलियां, मगर और कछुए पाये जाते हैं। झील के मध्य कई छोटी-बड़ी पहाड़ियां एवं टापू भी हैं जिन पर कई तरह के जलीय पक्षी जैसे-इग्रेट, स्नेक बर्ड, कार्पोरेट, स्टार्क आदि घोंसले बनाकर प्रजनन करते हैं। यहाँ बघेरा, जरख एवं सियार, चीतल, नीलगाय, चिंकारा एवं जंगली सूअर, लोमड़ी, खरगोश, सेही, मोनीटर लिजार्ड आदि भी पाए जाते हैं।
एकलिंग जी मंदिर
अरावली पर्वतमालाओं की गोद में एक ऊंचे अहाते में बना भगवान शिव को समर्पित एकलिंग जी मंदिर उदयपुर से करीब 19 किलोमीटर पर स्थित एक मंदिर समूह है। बताया जाता है कि इस मंदिर परिसर में 108 मंदिर बने हैं। मुख्य मंदिर में एकलिंग जी की चार सिरों वाले श्यामवर्ण का शिवलिंग प्रतिष्ठापित है। शानदार नक्काशीदार खंभों, चित्रित दीवारों और सजी छत के साथ मंदिर तिमंजिला बनाया गया है। मंदिर के शीर्ष की ऊंचाई 79 फुट है, जिस पर हाथियों और सवारों के साथ वादकों एवं नर्तकियों की प्रतिमाएं मनमोहक लगती हैं। मंदिर के दक्षिणी द्वार के समक्ष एक ताक में महाराणा रायमल संबंधी 100 श्लोकों का एक प्रशस्तिपद लगा हुआ है। गरूड़ की छवि भी मंदिर के सामने बनाई गई है, जो भगवान विष्णु के द्वार की रक्षा करता है। गरूड़ की यह छवि आधा आदमी और आधा पक्षी के रूप में दिखाई देती है। मंदिर परिसर में इन्द्रसागर नामक सरोवर, महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित कलात्मक विष्णु मंदिर, गणेश, लक्ष्मी, धारेश्वर आदि देवताओं के अन्य मंदिर भी बने हैं। एकलिंग जी मंदिर से थोड़ी सी दूर दक्षिण में ऊंचाई पर 971 ईस्वी का बना लकुलिश मंदिर है। इस मंदिर के कुछ नीचे विंध्यवासिनी देवी का एक अन्य मंदिर भी स्थित है। कहा जाता है कि भगवान शिव मेवाड़ शासकों के आराध्य देव थे और उन्हें शासक मानकर अपने आपको उनका दीवान मानते थे। जनश्रुति के अनुसार इसका निर्माण 8वीं शताब्दी बप्पा रावल ने करवाया था। बाद में उदयपुर के महाराणा मोकल ने इसका जीर्णोद्धार कराया तथा वर्तमान मंदिर को नए स्वरूप में लाने का सम्पूर्ण श्रेय महाराणा रायमल को है, जिन्होंने 15वीं शताब्दी में इसका नवनिर्माण करवाया।
नागदा
एकलिंगजी मंदिर के समीप ही राजाओं की पुरानी राजधानी नागदा है जिसे शिलालेखों में नागद्रह भी कहा गया है। पुराने समय में यहां अनेक शिव एवं विष्णु मंदिर बने हुए थे, जिसमें से अब कुछ मंदिर ही शेष रह गये हैं। दो प्रमुख मंदिर संगमरमर के बने हुए हैं जिनको सास-बहू के मंदिर भी कहा जाता है। मंदिरों की खुदाई और मूर्तिकला अद्वितीय है। मंदिरों का निर्माण 11वीं सदी के आसपास होना पाया जाता है। एक विशाल जैन मंदिर भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में दूसरे जैन मंदिर में 9 फुट ऊंची शांतिनाथजी की बैठी हुई प्रतिमा है। इनके अतिरिक्त कई और छोटे-छोटे मंदिर भी यहां विद्यमान हैं।
चावण्ड
उदयपुर से 60 किमी. दूर चावण्ड नामक गांव की पहाड़ी पर महाराणा प्रताप के महल बने हैं जो खण्डहर हो गये हैं। पहाड़ी पर एक प्रतिमा बनाकर खूब -सूरत बगीचा विकसित किया गया है। इसके नीचे चामुण्डादेवी का एक मंदिर है। महाराणा प्रताप का स्वर्गवास यहीं हुआ था। उनकी स्मृति में बंडोली गांव के पास बहने वाले एक छोटे से नाले के तट पर श्वेत पाषाण की अष्ठ स्तम्भ वाली एक छतरी बनायी गई हैं महाराणा प्रताप से जुड़े हुए होने के कारण चावण्ड का अपना एतिहासिक महत्व है।
गोगुन्दा
उदयपुर से 35 किमी. दूर सघन पहाड़ियों से घिरे गोगुन्दा कई बार मेवाड़ के महाराणाओं की आपातकालीन राजधानी रही है। प्रताप का राजतिलक भी यहां किया गया था। महाराणा उदयसिंह के हाथ से जब चितौड़ निकल गया तो उन्होंने यहीं पर रहकर उदयपुर नगर बसाया। उनकी मृत्यु के बाद महाराणा प्रताप ने भी गोगुन्दा को राजधानी बनाया और बाद में उदयपुर चले गये। अकबर ने जब उदयपुर छीन लिया तो महाराणा प्रताप पुनः गोगुन्दा आये। महाराणा प्रताप से मिलने के लिए जयपुर के मानसिंह तथा अकबर के सेनापति राजा टोडरमल ने भी यहां आकर भेंट की। आज भी यहां महाराणा उदयसिंह का स्मारक बना हैं। गोगुन्दा का विशाल दुर्ग आज काफी जर्जर अवस्था में आ गया है। गोगुन्दा में प्रमुख रूप से गुढ़ा के गणेशजी के साथ-साथ अनेक मंदिर दर्शनीय हैं।
महाराणा ऋषभ देव मंदिर
उदयपुर से करीब 65 किलोमीटर दूर धूलेव गांव में कोयल नदी के किनारे अरावली पर्वतमाला की कन्दराओं में स्थित ऋषभदेव मंदिर अपना विशेष महत्व रखता है। मुख्य मंदिर का उतंग शिखर एवं मंदिर के साथ बनी 52 कलात्मक मीनारें दूर से ही लुभा लेती हैं। यह मंदिर न केवल जैनियों वरण् हिन्दुओं तथा भील व मीणा जातियों की भी आस्था का प्रमुख केन्द्र है। मंदिर की विशेषता यह है कि यहां केसर चढ़ाया जाता है और इसी कारण इसे केसरयाजी का मंदिर भी कहकर बुलाया जाता है।
मुख्य मंदिर के गर्भगृह में जैन धर्म के तीर्थंकर ऋषभदेव की श्यामवर्ण की साढ़े तीन फीट ऊंची पद्मासन मुद्रा में आकर्षक प्रतिमा विराजमान है। मंदिर परिसर में कुल 22 तीर्थंकरों एवं 54 देवीकुलिकाओं कुल 76 मूर्तियां विराजमान हैंं जिनमें 62 मूर्तियों में लेख अंकित है जो बताते है कि मूर्तियां विक्रम संवत् 1611 से 1863 के मध्य बनाई गई हैं। ये लेख जैन इतिहास की जानकारी की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार नक्कारखाने के रूप में है। जन्माष्टमी एवं जलझूलनी आदि उत्सव भी यहां मनाये जाते हैं। मंदिर हर रोज प्रातः 4 बजे से रात्रि 9 बजे तक दर्शन के लिए खुला रहता है। मंदिर से 2 किलोमीटर पर पगल्या अर्थात भगवान ऋषभदेव के पैरों के निशान हैं जिसे पगल्या पैलेस कहा जाता है। ऋषभदेव के जन्मदिन पर पगल्यों का अभिषेक भी किया जाता हैं। यहां के भील-मीणा आदिवासी लोग प्रतिमा का रंग काला होने के कारण ”कालिया बाबा“ के नाम से पुकारते हैं। मंदिर में यात्रियों के लिए एक अच्छी धर्मशाला एवं भोजनालय की व्यवस्था है।
जगत का अम्बिका मंदिर
जगत का अम्बिका मंदिर राजस्थान में उदयपुर से करीब 50 किलोमीटर दूर गिर्वा की पहाड़ियों के बीच बसे कुराबड़ गांव के समीप अवस्थित है। मंदिर परिसर करीब 150 फीट लम्बे ऊंचे परकोटे से घिरा है। पूर्व की ओर प्रवेश करने पर दुमंजिले प्रवेश मण्डप पर बाहरी दीवारों पर प्रणय मुद्रा में नर-नारी प्रतिमाएं, द्वार स्तम्भों पर अष्ठमातृका प्रतिमाएं, रोचक कीचक आकृतियां तथा मण्डप की छत पर समुद्र मंथन के दृश्यांकन दर्शनीय हैं। छत का निर्माण परम्परागत शिल्प के अनुरूप कोनों की ओर से चपटे एवं मध्य में पद्म केसर के अंकन के साथ निर्मित है। मण्डप में दोनों ओर हवा और प्रकाश के लिए पत्थर से बनी अलंकृत जालियां ओसियां देवालय के सदृश्य हैं।
प्रवेश मण्डप और मुख्य मंदिर के मध्य खुला आंगन है। मंदिर के सभा मण्डप का बाहरी भाग दिग्पाल, सुर-सुंदरी, विभिन्न भावों में रमणियों, वीणाधारिणी, सरस्वती, विविध देवी प्रतिमाओं की सैंकड़ों मूर्तियों से सज्जित है। दायीं ओर जाली के पास सफेद पाषाण में निर्मित नृत्य भाव में गणपति की दुर्लभ प्रतिमा है। मंदिर के पाश्र्व भाग में बनी एक ताक में महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उत्तर एवं दक्षिण ताक में भी विविध रूपों में देवी अवतार की प्रतिमाएं नजर आती हैं। मंदिर के बाहर की दीवारों की मूर्तियों के ऊपर एवं नीचे कीचक मुख, गज श्रृंखला एवं कंगूरों की कारीगरी देखते ही बनती है। मंदिर को पुरातत्व विभाग के अधीन संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है।
आवागम की दृष्टि से उदयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 27 एवं 8 पर स्थित है। यह दिल्ली एवं अहमदाबाद रेल लाइन का प्रमुख रेलवे स्टेशन है। पैलेस आॅन व्हील्स उदयपुर आने वाली शाही रेलगाडी है। यहाँ रेलवे ट्रेनिंग स्कूल भी है। उदयपुर के डबोक में वायु सेवा का नियमित एयर पोर्ट है। जयपुर दिल्ली और मुंबई से नियमित हवाई सेवाएं संचालित होती हैं।
(लेखक अधिस्वीकृत स्वतंत्र पत्रकार हैं)