कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी का अमेठी सीट साथ-साथ सुदूर दक्षिण में केरल की पहाड़ियों के बीच बसे वायनाड में अपनी राजनीतिक किस्मत आजमाने के लिये जाने का निर्णय इनदिनों व्यापक चर्चा में हैं। बड़ा प्रश्न है कि राहुल को यह निर्णय लेने की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या उन्हें अमेठी में अपनी हार की संभावनाएं नजर आने लगी? ऐसी क्या स्थितियां बनी कि उन्हें उत्तर प्रदेश में परिवार की अपनी पारंपरिक सीट से एक तरह किनारा करने का निर्णय लेना पड़ा? कहीं ऐसा भी भ्रम तो नहीं कि राहुल को वर्ष 2019 के चुनाव भारी बहुमत से जीतने की संभावनाएं नजर आने लगी है। इन प्रश्नों को लेकर भारी मंथन हो रहा है और होना भी चाहिए।
स्थितियां जब बहुत चिन्तनीय बन जाती है तो उसे बड़ी गंभीरता से मंथना भी जरूरी होता है। पर यदि उस मोड़ पर पुराने अनुभवी लोगों के जीए गए राजनीतिक सत्यों की मुहर नहीं होगी तो सच्चे सिक्के भी झुठला दिये जाते हैं। कहीं राहुल भी दोनों ही स्थानों से नकार न दिये जाये? हर चुनाव- चाहे वो दल के रूप में हो या व्यक्ति के रूप में, जनमानस में सदैव नई अपेक्षाएं जगाता है। और अपेक्षाओं की पूर्ति विजयी का लक्ष्य होता है तथा उसे उस कसौटी पर खरा उतरने के लिए अपने को प्रस्तुत करना होता है। इस किरदार की अभिव्यक्ति में उसे अपने देश के लोकतांत्रिक मूल्यों, देश की संस्कृति तथा अस्मिता की रक्षा करनी होती है। सजगता का तीसरा नेत्र सदैव खुला रखना होता है। राजनीतिक मूल्य और राजनीतिक विवेक उनके जीवन का पर्याय बन जाते हैं। तब कहीं राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष का सम्बोधन सम्पूर्णता से चरितार्थ होता है। इन स्थितियों में जाति और वर्ग की जो बात उछाली गई, उसे बेमानी करना अब राहुल का प्रथम दायित्व एवं सबसे बड़ी चुनौती है।
वायनाड से राहुल के चुनाव लड़ने का निर्णय अनेक प्रश्नों को खड़ा कर रहा हैं। यह एक उलझी हुई पहेली ही है कि आखिर वायनाड ही क्यों? आखिर यह एक तथ्य है कि पिछले कुछ समय से स्मृति ईरानी अमेठी में न केवल सक्रिय हैं, विकास के नये रास्ते उन्होंने खोले हैं और इनके आधार पर यह दावा भी कर रही हैं कि इस बार राहुल गांधी के लिए उनकी यह परंपरागत सीट आसान नहीं होने वाली है। न केवल ईरानी बल्कि भाजपा के शीर्ष नेता यह मानकर चल रहे हैं कि अमेठी इस बार उनके खाते में आएगी। किसी भी राष्ट्रीय पार्टी का राष्ट्रीय नेता के लिए यह बहुत सामान्य माना जाता है कि वह उस राज्य से चुनाव लड़े जहां उनके दल की सरकार हो। यह बहुत ही सामान्य चलन है। इसकी वजह यह है कि अपनी पार्टी की सरकार में प्रशासन कई अप्रत्यक्ष तरीकों से सहायक होता है। पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे चार राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं। आखिर राहुल गांधी ने इन राज्यों से चुनाव क्यों नहीं लड़ा? क्या उन्हें अपने मुख्यमंत्रियों पर विश्वास नहीं है या फिर उन्हें यह अहसास हो गया है कि मतदाताओं का पहले से ही मोहभंग हो रहा है?
देखने में आ रहा है कि इनदिनों चुनाव की पृष्ठभूमि में हर रोज कोई न कोई ऐसी घटना हो जाती है, जो राजनीति मंे सभी कुछ अच्छा होने की प्रक्रिया को और दूर ले जाती है। कोई विवाद के घेरे में आता है तो किसी की तरफ शक की सुई घूम जाती है। पूरी चुनावी व्यवस्था में अनुशासन और शांतिपूर्ण चुनाव प्रचार की आदर्श पृष्ठभूमि बन ही नहीं रही है। ऐसे में नई पीढ़ी के बारे में, जो नये भारत का आधार है, कोई नहीं सोच रहा है। अगर कोई प्रयास कर भी रहा है तो वह गर्म तवे पर हथेली रखकर ठण्डा करने के प्रयास जैसा है। जिस पर राजनीति की रोटी तो सिक सकती है पर निर्माण की हथेली जले बिना नहीं रहती। सम्प्रति जो चुनौतियां भारत के लोकतंत्र के सामने हैं, वह सत्तर सालों से मिल रही चुनौतियों से भिन्न हैं। अतः इसका मुकबला भी भिन्न तरीके से करना होगा, पर आधार लोकतांत्रिक मूल्यों के सिवाय दूसरा कोई हो ही नहीं सकता। यह बात राहुल और उनकी पार्टी को समझनी होगी।
राहुल गांधी के वायनाड से भी चुनाव लड़ने के फैसले का केवल एक ही कारण है और वह यह कि इस संसदीय क्षेत्र में करीब आधे मतदाता मुस्लिम हैं। वहां मुसलमानों का एक तबका भाकपा के साथ हैं और भाकपा प्रत्याशी भी मुस्लिम हैं, लेकिन केरल और खासतौर पर वायनाड में अधिकांश मुसलमान मुस्लिम लीग को वोट देते हैं। लेकिन यहां मुसलमानों एवं क्रिश्चियन समुदाय के वोटों की बहुलता के कारण यह सीट कांग्रेस के लिये सुरक्षित सीट है। ज्ञात हो 2009 एवं 2014 में 15वीं एवं 16वीं लोकसभा में यह सीट कांग्रेस के खाते में गई थी। समूचे राष्ट्र में क्या यही एक ऐसी सीट है जिस पर कांग्रेस को उनके अध्यक्ष की जीत सुनिश्चित दिखाई दी? इससे तो चुनाव पूर्व ही कांग्रेस के धरातल का पता लग जाता है।
अमेठी की उपेक्षा के सवाल भी कम नहीं है, जिनसे राहुल गांधी को पहले भी दो-चार होना पड़ा है। हाल में ऐसे ही सवालों से कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी बनीं प्रियंका गांधी वाड्रा को भी दो-चार होना पड़ा। हैरत नहीं कि इसके बाद ही कांग्रेस ने यह तय किया हो कि राहुल गांधी को अमेठी के साथ अन्य कहीं से भी लड़ना चाहिए। इसमें कोई हर्ज नहीं, लेकिन राहुल को इस सवाल का जवाब तो देना ही होगा कि अमेठी में अपेक्षित विकास क्यों नहीं हो सका? सच तो यह है कि अमेठी के साथ रायबरेली भी इस सवाल का जवाब मांग रही है। उनका अमेठी से पलायन वर्ष 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस के खाते में दर्ज होने वाली पहली हार की तरह है।
यहां यह स्मरण करना भी उल्लेखनीय होगा कि अमेठी में राहुल गांधी की जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रमुख विपक्षी राजनीतिक दलों ने वह सब किया जो वे कर सकते थे। बसपा प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पहले ही एलान कर दिया था कि वे अमेठी में अपना प्रत्याशी नहीं उतारेंगे, लेकिन लोकतंत्र में मतदाता ही सर्वेसर्वा होता है या यूं कहें जन-जुड़ाव ही निर्णायक हो जाता है तो बड़े से बड़े गणितीय आकलन धरे के धरे रह जाते हैं। अमेठी के मतदाता एक लंबे अरसे से किए जा रहे थोथे वादों एवं आश्वासनों से अब उकता गए हैं और विकास के मोर्चे पर पिछड़ने को लेकर भी वे कुपित हो रहे हैं। इसलिये कांग्रेस अमेठी को अपनी बहुत मजबूत सीट नहीं मानती है और यही राय उसके नेताओं की भी है। अब जब चुनाव प्रचार अभियान गति पकड़ रहा है तो हम दीवार पर लिखी इबारत को भी स्पष्ट रूप से पढ़ सकते हैं। जमीनी हकीकत तो यही बयान कर रही है कि जनसमर्थन का ज्वार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके विकास के मुद्दें के पक्ष में बढ़ रहा है। इन स्थितियों में वायनाड का निर्णय कांग्रेस को मजबूती देने की बजाय कमजोर ही करेगा।
वायनाड से गांधी के चुनाव लड़ने के निर्णय से विपक्षी महागठबंधन में भी दरार पड़ी है। क्योंकि वहां से चुनाव लड़ने से वामपंथी दलों को भी करारा झटका लगा है जबकि राहुल को समर्थन देने के लिए वामपंथी दलों से जो भी बन पड़ा, उन्होंने किया। वामपंथी दलों को इसका जरा भी अंदाजा नहीं था कि उनका राहुल समर्थन का उन्हें यह सिला मिलेगा कि राहुल गांधी उनके खिलाफ ही मोर्चा खोल लेंगे। यह वही राहुल गांधी हैं जो सभी साथी राजनीतिक दलों के बीच यह कहते हुए घूम रहे थे कि भाजपा को हराने के लिए वे सभी आपसी मतभेद भुलाकर उसे सत्ता से बाहर करने में सहायक बनें। यह दलील दमदार नहीं दिखती कि वायनाड से भी राहुल गांधी के चुनाव लड़ने से दक्षिण भारत में कांग्रेस को मजबूती मिलेगी, क्योंकि अगर ऐसा है तो उन्हें तमिलनाडु या फिर आंध्र प्रदेश अथवा तेलंगाना से चुनाव लड़ना चाहिए, जहां कांग्रेस कहीं अधिक कमजोर है। यह भी कम अजीब नहीं कि राहुल गांधी एक ओर भाजपा को चुनौती देते दिख रहे और दूसरी ओर ऐसे राज्य में अपने लिए सुरक्षित सीट खोज रहे जहां भाजपा कोई बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं मानी जाती। यदि कोई इस नतीजे पर पहुंचे कि राहुल गांधी भाजपा की तेज-तर्रार नेता स्मृति ईरानी की चुनौती का सामना करने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं तो यह राहुल की कमजोरी या निराशा है, न कि स्मृति ईरानी का कोई दोष। आम जनता को यही संदेश जा रहा है कि कांग्रेस अध्यक्ष अपने परंपरागत निर्वाचन क्षेत्र पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं।
लोकतन्त्र में दो स्थानों पर चुनाव लड़ने का प्रचलन रहा है। इसलिये राहुल गांधी यदि दो स्थानों से चुनाव लड़ते हैं तो यह कोई गलत नहीं है। प्रश्न उस सुरक्षित एवं निष्कंटक स्थान का है, जिसका राहुल ने चयन किया है। प्रश्न यह भी है कि वे देश की सबसे पुरानी एवं सशक्त पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष होते हुए किसी चुनौतीपूर्ण स्थान का चयन क्यों नहीं किया? जहां तक दो स्थान से चुनाव लड़ने का प्रश्न है तो 2014 में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी दो स्थानों बडोदरा और बनारस से चुनाव लड़ा था और वह दोनों स्थानों से विजयी रहे थे। श्रीमती सोनिया गांधी ने भी कर्नाटक के बेल्लारी और रायबरेली से चुनाव लड़ा था वह भी दोनों स्थानों से विजयी रही थीं। भाजपा के लालकृष्ण अडवानी ने भी गांधीनगर और नई दिल्ली से चुनाव लड़ा था वह भी दोनों स्थानों से विजयी रहे थे। दरअसल यह उस वक्त में विजयी राजनीतिज्ञ की पार्टी और उसकी लोकप्रियता का प्रतीक होता है कि वह एक की जगह दो स्थानों से विजयी रहा। पराजित होने पर इसकी उल्टी बात साबित होती।
अतः हम चुनावी जुमलों से यह तय नहीं कर सकते कि किस नेता की लोकप्रियता कितनी है। सत्ता और विपक्ष का अपना-अपना चुनावी गणित और समीकरण होते हैं जिसके आधार पर वे अपनी रणनीति तय करते हैं। लेकिन राष्ट्र की एकता एवं उसका सशक्तीकरण जिन लोकतांत्रिक मूल्यों एवं राष्ट्रीयता के ताने-बाने से बना है, वह कभी भी उधड़ सकता है। आवश्यकता है राजनीतिक जिजीविषा एवं मूल्यों की। आवश्यकता है साफ-सुथरी सोच की, साफ सुथरे निर्णय की, साफ-सुथरे राजनीतिक चरित्र की। कितना अच्छा होता कि राहुल किसी चुनौती को स्वीकारते, राजनीतिक पुरुषार्थ का सन्देश देते ताकि जड़ताओं को तोड़कर राजनीतिक चरित्र की उजली संभावनाएं उद्घाटित होती।
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(ललित गर्ग)
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