वैश्विक हिंदी सम्मेलन का चुनावी माँग-पत्र

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’

राष्ट्र केवल कोई भूमि का टुकड़ा नहीं होता। राष्ट्र बनता है उसकी सभ्यता और संस्कृति से, वहाँ के ज्ञान – विज्ञान, धर्म आध्यात्म और मौलिक चिंतन से। भाषा के माध्यम से ये निरंतर आगे बढ़ते हैं। यह भी कह सकते हैं कि भाषा एक बहती हुई नदी की तरह है, जिनके किनारों पर सभ्यताएँ जन्म लेती और बढ़ती हैं। जिस प्रकार किसी नदी में विभिन्न प्रकार के जीव पलते और बढ़ते हैं, वैसे ही भाषा रूपी नदी में वहाँ का ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संस्कृति, धर्म-आध्यात्म, विचार-चिंतन, समय और स्थान के साथ-साथ अपना स्वरूप बदलते हुए पलते और आगे बढ़ते है। भाषा रूपी नदी सूखी तो इनमें से कुछ न बचेगा। इसीलिए विश्व के सभी विद्वानों, चिंतकों, शिक्षाविदों एवं दार्शनिकों ने मातृभाषा को श्रेष्ठतम भाषा माना है।

अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो यह माना जाता रहा है और बार- बार यह हुआ है कि किसी देश को मिटाना हो तो उसकी भाषाएँ मिटा दीजिए, उनका अपना तो कुछ भी है स्वत: मिट जाएगा. स्वाभिमान तक भी न बचेगा। जब कोई भाषा मिटती है या सिमटती है तो उसके साथ-साथ उसकी पूरी संस्कृति और हजारों वर्ष की विरासत भी बह जाती है। भाषा जाएगी तो उसका मौलिक ज्ञान – विज्ञान उसकी संस्कृति और हजारों वर्षों से अर्जित उसकन ज्ञान-विज्ञान सब मिटता जाएगा।

इतिहास गवाह है, जब कोई आक्रांता या विदेशी शासक आता है तो पहले वहाँ की भाषा-संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास करता है। जब भाषा जाएगी तो उसमें निहित समग्र ज्ञान-विज्ञान को भी बहा कर ले जाएगी। फिर जो भाषा आएगी वह अपने साथ अपनी संस्कृति भी लाएगी, और वहाँ के लोगों के दिलो-दिमाग को उसके माध्यम से मानसिक गुलाम भी बनाएगी।

यहाँ यह बताना अनुचित न होगा कि समाज को अपने धर्म और आध्यात्म से मिटा कर अपना लाने के लिए भी भाषा को मिटाया जाता है। यदि हम लॉर्ड मैकॉले द्वारा अपने पिता को लिखे गए पत्रों को देखें तो उससे साफ समझ में आता है कि भारत के अंग्रेजीकरण के पीछे उसका एक उद्देश्य भारत के लोगों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने, अपने स्वाभिमान तथा आत्म गौरव के साथ-साथ धर्मांतरण का मार्ग प्रशस्त करना भी था।

यदि हम विश्व की बात करें तो भी हम पाते हैं कि किसी भी देश में विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा अपना शासन अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए स्थानीय भाषा अथवा भाषाओं को मिटाते हुए वहाँ पर उन्होंने अपनी भाषाओं का आधिपत्य स्थापित किया। इंग्लैंड ही नहीं फ्रांस, पुर्तगाल, हॉलैंड आदि अनेक देश जिन्होंने अनेक देशों पर शासन किया और उन्हें अपना उपनिवेश बनाया, वहाँ आज भी कमोबेश उनकी भाषा का आधिपत्य है। आज भी वहाँ के लोगों को अपनी भाषा, अपनी विरासत और अपने ज्ञान-विज्ञान से अधिक उस देश की भाषा-संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान पर गर्व है, जिन्होंने उन पर शासन किया था, जिन्होंने उन पर अत्याचार किए और जिन्होंने उन पर तरह-तरह के जुल्म किए थे।

अगर भारत की बात की जाए तो भारत पर करीब 1300 वर्ष विदेशी शासन रहा। लगभग सभी आक्रांताओं ने हम पर लगातार अनेक जुल्म किए। इस्लामी आक्रांता कभी लूट के लिए या कभी सत्ता के लिए भारत पर आक्रमण करते रहे और उन सब ने लूट के अलावा तलवार की नोक पर बड़े पैमाने पर भारत के लोगों का धर्मांतरण भी किया। भारत पर इस्लामी आक्रांता अलग- अलग समय में किसी एक जगह से नहीं बल्कि अलग-अलग दिशाओं से आते रहे। जो आया उसने अपनी भाषा चलाने की कोशिश की।

इनमें से कुछ ने भारत के अलग-अलग हिस्सों पर अपना शासन भी कायम किया। इसीका परिणाम था कि कभी अरबी, कभी फ़ारसी और कभी इनके मिश्रित रूप शासन, प्रशासन, न्याय और रोजगार का माध्यम बने रहे। इस्लामी शासन के दौर की कुछ कहावतें आज भी इनकी पुष्टि करती दिखाई देती हैं। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या?’ एक और कहावत है, ‘पढ़े फ़ारसी बेचे तेल’ यानी उस दौर में पढ़ा-लिखा, विद्वान और बड़े पदों का दावेदार उसे ही माना जाता था जो उनकी भाषा यानी ‘फ़ारसी’ जानता था।

क्योंकि विदेशी आक्रांता तो मुट्ठी भर थे, बाकी उनकी पालकी ढोने वाले और उनके शासन-प्रशासन और लश्कर में शामिल लोग तो स्थानीय ही थे। इसलिए आगे चलकर स्थानीय भाषाओं में अरबी, फारसी के शब्द मिलकर एक नई भाषा का जन्म हुआ जिसे उर्दू कहा गया। उर्दू के लिए फारसी लिपि को अपनाया गया। अगर लिपि की बात छोड़ दें तो यह भाषा, अरबी फारसी आदि के शब्दों से लदी हिंदी ही तो है। यदि इसमें जबरन ठूँसे गए अरबी-फारसी के कुछ जटिल शब्दों को कम कर दें तो यह सरल हिंदी या हिंदुस्तानी ही तो है।

मुगल साम्राज्य के पतन के दौरान ही भारत में क्रमशः पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों का आगमन शुरू हो गया था, जो भारत के विभिन्न भागों में अपनी सत्ता कायम करते जा रहे थे। सभी ने जनभाषा की उपेक्षा करते हुए स्थानीय भारतीय भाषाओं को मिटा कर शासन-प्रशासन और व्यवस्था में अपनी भाषा को स्थापित किया। आगे चलकर उनके बीच भारत में सत्ता के लिए संघर्ष भी हुआ। अंततः जब इस संघर्ष में अंग्रेज विजयी रहे तो भारत पर अंग्रेजों का साम्राज्य छाने लगा।

स्वतंत्रता पूर्व के समय तक भी गोवा, दमण-दीव और दादरा नगर हवेली में पुर्तगाली शासन कायम रहा और पुडुचेरी में फ्रांसीसियों का शासन रहा। आज भी आपको बड़ी संख्या में वहाँ ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपने स्थानीय भाषा कोंकणी के बजाय पुर्तगाली भाषा यानी पोर्तगीज़ पर गर्व करते मिलेंगे। पुडुचेरी जो की भाषा संस्कृति की दृष्टि से तमिल क्षेत्र है, वहां भी फ्रेंच पर गर्व करने वालों की कमी नहीं है। शेष भारत पर अंग्रेजी की वर्चस्व आज भी है। कारण साफ है कि विदेशी भाषा मौलिकता के बजाए विदेशी-गुलामी, विदेशी-सोच की ओर ले जाती है।

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान महात्मा गांधी, विनोबा भावे, सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर, सेठ गोविंद दास, पुरुषोत्तम दास टंजन, सरोजिनी मायडू, लाला लाजपत राय जैसे नेताओं के विचारों और प्रयासों के बावजूद अंग्रेजी-परस्तों की अच्छी खासी संख्या थी। संविधान सभा में भी डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अंग्रेजी के प्रयोग की छूट केनल 15 वर्ष के लिए ही दी थी। स्वतंत्रता के समय पूरे देश की आकांक्षा थी कि अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी की सत्ता को भी हटाया जाए और देश का काम देश की भाषाओँ में हो। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हुआ इसके ठीक उलट। स्वतंत्रता के समय भी देश में 99% से अधिक आबादी मातृभाषा में ही पड़ती थी लेकिन आगे चलकर जिस प्रकार की नीतियां अपनाई गई गांव-गांव तक और उच्च शिक्षा नहीं नर्सरी स्तर तक अंग्रेजी माध्यम को पहुंचा दिया गया व्यवस्था की रग-रग में अंग्रेजी को बसा दिया गया।

पूरे भारत में एक ऐसा वातावरण बना गया है कि ज्ञान-विज्ञान का मतलब अंग्रेजी है, शिक्षा रोजगार का मतलब अंग्रेजी है। संपन्नता और महत्वपूर्ण होने का मतलब अंग्रेजी है। एक प्रसिद्ध पुराना फिल्मी गाना है, ‘जाना था जापान पहुंच गए चीन, समझ गए ना।’ भारतीय भाषाओं के साथ यही हुआ। कहा तो यह गया था कि भारतीय भाषाओं को बढ़ाया जाएगा और अंग्रेजी को धीरे-धीरे हटाया जाएगा। देश की व्यवस्था देश की भाषाओं में चलेगी, लेकिन हुआ उसकी ठीक विपरीत।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के नाम पर लोग नाचते रहे, गाते रहे, धूम मचाते रहे, भाषा के दिवस मनाते रहे, सम्मेलन रचाते रहे, खाते और कमाते रहे। लेकिन धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं को बहुत ही कमजोर कर दिया गया। तत्कालीन सरकारों ने हर क्षेत्र में अंग्रेजी को पुरजोर ढंग से बढ़ाया। आज भी देश के उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं का नहीं अंग्रेजी का वर्चस्व है। जबकि सच्चाई तो यह है कि विश्व के सभी संपन्न और विकसित देश वही है जहाँ अपनी मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाई होती है और काम होता है। उन देशों की समग्र व्यवस्था और विधि व न्याय-प्रणाली उनकी भाषा में ही है। लाकिन भारत में इसके ठीक विपरीत धारणा विकसित की गई है।

नई शिक्षा नीति के माध्यम से भारत सरकार भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाती हुई दिख तो रही है लेकिन इस मामले में कोई ठोस प्रगति अभी धरातल पर नजर नहीं आती। यहाँ भी न्यायपालिका अंग्रेजी के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है। शासन-प्रशासन में भी भारतीय भाषाओं को ले कर कोई बड़ा परिवर्तन दिखाई नहीं देता।

ऐसी में हमारी तो सभी राजनीतिक दलों से यह माँग है कि वे वादा करें कि वे भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाएंगे, कम से कम स्कूली स्तर पर इस शिक्षा का माध्यम बनाएंगे। नई शिक्षा नीति के अनुसार स्कूलों में दो भारतीय भाषाएं कम से कम पढ़ने की व्यवस्था करेंगे। जब पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देश में सभी स्तरों पर जनभाषा में न्याय मिलता है तो हमारे यहां यह अन्याय क्यों है? नौकरी पाने के लिए विषय के ज्ञान की बजाए अंग्रेजी के ज्ञान पर जोर क्यों है ? लोगों को अपनी भाषा में नौकरी क्यों न मिले ? क्या कोई राजनीतिक दल इसके लिए अपनी बात कहेगा।

विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ाई जाए, इसमें किसी को कोई एतराज नहीं। अंग्रेजी ही नहीं, किसी विशेष उद्देश्य के लिए यदि कोई विद्यार्थी कोई अन्य विदेशी भाषा भी यदि विद्यार्थी सीखना चाहे तो विश्वविद्यालयों में विदेशी भाषा विभागों के माध्यम से उसकी व्यवस्था भी की जाए। हमारा मानना स्पष्ट है कि ज्ञान का कोई भी द्वारा कहीं से भी बंद न किया जाए। लेकिन अपनी भाषा की जगह विदेशी भाषा को ना लादा जाए। किसी देश में ज्ञान-विज्ञान का विकाल मौलिक चिंतन से ही होता है और मौलिक चिंतन अपनी भाषा में ही संभव है।

महात्मा गांधी का नाम और उनकी विरासत की राजनीति करने वालों को इस संबंध में महात्मा गांधी को पढ़ना भी चाहिए। उन्होंने कहा था ति यदि भारत में विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा से दी जाती तो आज जो हम भारत के तीन-चार आविष्कारकों के नाम लेते हैं, हमारे यहाँ इतने आविष्कारक होते कि हम इन्हें याद तक न करते। लेकिन अंग्रेजी-परस्ती के इतिहास ने मौलिक-चिंतन के माध्यम, यानी मातृभाषा में शिक्षा के मार्ग को पूरी तरह बंद कर दिया।

देश के करोड़ों विद्यार्थी, प्रतिभाशाली और मेधावी विद्यार्थी केवल इसलिए आगे नहीं बढ़ पाए और पीछे रह जाते हैं क्योंकि सारी व्यवस्थाएं अंग्रेजी में है और अंग्रेजी की बड़े-बड़े विद्यालय उनकी पहुंच से दूर हैं। केवल अंग्रेजी के बल पर काम योग्य लोग भी आगे बढ़ रहे हैं और मेधावी पीछे छूट रहे हैं। यदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से देश की शिक्षा और संपूर्ण व्यवस्था चलने लगे तो कुछ करोड़ ही नहीं बल्कि 140 करोड लोग तेजी से आगे बढ़ने लगेंगे और निश्चित ही भारत अति शीघ्र विश्व की महान शक्ति बन सकेगा।

हमारा चुनावी माँग-पत्र बहुत ही सपष्ट है। हमें चाहिए जनभाषा में विधि- न्याय, व्यापार,-व्यवसाय, सभी स्तरों पर सरकारी या गैर सरकारी आवश्यक सूचनाएँ (जो कानूनी रूप से दी जानी आवश्यक हैं। ) जनभाषा में शिक्षा ही नहीं रोजगार भी देने की व्यवस्था की जाए। सरकारी कार्यालयों और कंपनियों में ही नहीं निजी स्तर पर भी भारतीय भाषाओं में पढ़ने वालों के लिए रोजगार की व्यवस्था करवाई जाए। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संकृति को शिक्षा में समुचित स्थान दिया जाए। अंग्रेजी के नक़लतंत्र के स्थान पर मौलिक चितंन और मौलिक आविष्कारों का मार्ग प्रशस्त किया जाए।

(लेखक भारत सरकार के गृह मंत्रालय के सेवानिवृत्त क्षेत्रीय उपनिदेशक तथा ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन संस्था’ के संस्थापक व निदेशक हैं।)