आश्विन मास की पूर्णिमा का दिन शरद पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। इसे कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा भी कहते हैं । ज्योतिष के अनुसार पूरे वर्ष में केवल इसी दिन चंद्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होता है। हिंदू धर्म में लोग इस पर्व को कौमुदी व्रत भी कहते हैं। इसी दिन श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था । पूर्ण चंद्रमा अमृत का स्रोत है अतः माना जाता है कि इस रात्रि को चंद्रमा की किरणों से अमृत वर्षा होती है।
इस पूर्णिमा को आरोग्य हेतु फलदायक माना जाता हे। शरद पूर्णिमा की रात्रि को खीर बनाकर चांदनी में रखकर उसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण किया जाता है। चंद्रमा की किरणों से अमृत वर्षा भोजन में समाहित हो जाती है जिसका सेवन करने से सभी प्रकार की बीमरियां दूर हो जाती हैं। आयुर्वेद के ग्रंथों में भी इसकी चांदनी के औषधीय महत्व का वर्णन मिलता हे, खीर को शरद पूर्णिमा की चांदनी में रखकर अगले दिन इसका सेवन करने से असाध्य रोगों से मुक्ति प्रापत होती है। शोध के अनुसार खीर चांदी के पात्र में बनानी चाहिये । चांदी में प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। इससे विषाणु दूर रहते हैं। हल्दी का उपयोग निषिद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम 30 मिनट तक शरद पूर्णिमा की चन्द्र किरणों का स्नान करना चाहिये।
रोगियों के लिये शरद पूर्णिमा की रात वरदान है स्वरुप होती है, एक अध्यन के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन ओैषधियों की स्पंदन क्षमता अधिक होती है। रसाकर्षण के कारण जब अंदर का पदार्थ सांद्र होने लगता है तब रिक्तिकाओं से विषेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होने लगती है। लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आष्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।
शरद पूर्णिमा के दिन प्रातः काल स्नानादि नित्य कर्मां से निवृत्त होकर अपने अराध्य कुल देवता की षोडषोपचार से पूजा अर्चना एवं भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकेय की पूजा करने का विधान है। एक पाटे पर जल से भरा लोटा और गेहूं से भरा एक गिलास रखकर उस पर रोली से स्वास्तिक बनाकर चावल और दक्षिणा चढ़ाएं। फिर टीका लगाकर हाथ में गेंहू के 13 दाने लेकर कथा सुनी जाती है। उसके पष्चात गेहूं भरे गिलास और रूपया कथा कहने वाली स्त्रियों को पैर छूकर दिये जाते हैं। लोटे के जल और गेहूं का रात को रात को चंद्रमा को अर्ध्य देना चाहिये। इसके बाद ही भोजन करना चाहिये। रात्रि में जागरण करके भजन कीर्तन करने का भी विधान है।
शरद पूर्णिमा के दिन महर्षि वाल्मीकि की जयंती मनाने की भी परंपरा है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत में रामायण की रचना की और उनके द्वारा रचित रामायण वाल्मीकि रामायण कहलायी।
वाल्मीकि को पहले रत्नाकर कहा जाता था। इनका जन्म पवित्र ब्राहमणकुल में हुआ था लेकिन डाकुओं के संसर्ग में रहने के कारण ये लूटपाट और हत्याएं करने लग गये थे। यही उनकी आजीविका का साधन बन गया था। इन्हें जो भी मार्ग में मिलता उसकी सम्पत्ति लूट लिया करते थे। एक दिन इनकी मुलाकात देवर्षि नारद से हुई। इन्होंने नारद जी से कहा तुम्हारे पास जो कुछ है उसे निकालकर रख दो। नहीं तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।
देवर्षि नारद ने कहा ,” मेरे पास इस वीणा और वस़्त्र के अतिरिक्त है ही क्या? तुम लेना चाहो तो इन्हें ले सकते हो , लेकिन तुम यह क्रूर कर्म करके भयंकर पाप क्यों करते हो ? देवर्षि की कोमल वाणी सुनकर वाल्मीकि का कठोर हृदय कुछ द्रवित हुआ । इन्होंने कहा- भगवान! मेरी आजीविका का साधन यही है। इसके द्वारा मैं अपने परिवार का भरण -पोषण करता हूं। ” देवर्षि बोले – “तुम जाकर पहले परिवार वालों से पूछ आओ कि वे तुम्हारे द्वारा केवल भरण -पोषण के अधिकारी हैं या तुम्हारे पाप कर्मों में भी हिस्सा बटायंगे। तुम विश्वास करो कि तुम्हारे लौटने तक हम कहीं नहीं जायेंगे। इतने पर भी यदि तुम्हें विष्वास न हो तो मुझे इस पेड़ से बांध दो।” देवर्षि को पेड़ से बांधकर रत्नाकर अपने घर गये और परिजनों से पूछा कि तुम लोग मेरे पापों में भी हिस्सा लोगे या मुझसे केवल भरण पोषण ही चाहते हो। सभी ने एक स्वर में कहा, हम तुम्हारे पापों के हिस्सेदार नहीं बनेंगे। तुम धन कैसे लाते हो यह तुम्हारे सोचने का विषय है।
अपने परिजनों की बात को सुनकर वाल्मीकि के हृदय में आघात लगा। उनके ज्ञान नेत्र खुल गये। उन्होंने जल्दी से जंगल में जाकर देवर्षि के बंधन खोले और विलाप करते हुए उनके चरणों में गिर पड़े। उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ। नारद जी ने उन्हें धैर्यं बंधाया और राम नाम के जप का उपदेश दिया, किंतु पूर्व में किये गये भयंकर पापों के कारण उनसे राम नाम का उच्चारण नहीं हो पाया। तब नारद जी ने उनसे मरा -मरा जपने के लिये कहा। बार-बार मरा -मरा कहने के कारण वह राम का उच्चारण करने लग गये ।
नारद जी का उपदेश प्राप्त करके वाल्मीकि राम नाम जप में निमग्न हो गये। हजारों वर्षों तक नाम जप की प्रबल निष्ठा ने उनके सभी पापों को धो दिया। उनके शरीर पर दीमकों ने अपनी बांबी बना दी। दीमकों के घर को वाल्मीक कहते हैं उसमें रहने के कारण ही इनका नाम वाल्मीकि पड़ा। ये विश्व में लौकिक छंदों के आदि कवि हुए। वनवास के समय भगवान श्रीराम ने इन्हें दर्षन देकर कृतार्थ किया। इन्हीं के आश्रम में ही लव और कुश का जन्म हुआ था। वाल्मीकि जी ने उन्हें रामायण का गान सिखाया। इस प्रकार नाम जप और सत्संग के प्रभाव के कारण तथा अत्यंत कठोर तप से वाल्मीकि डाकू से महर्षि हो गये।
वाल्मीकि रामायाण से पता चलता है कि उन्हें ज्योतिष विद्या का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त था। महर्षि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण में अनेक घटनाओं के समय सूर्य चंद्र तथा अन्य नक्षत्ऱ की स्थितियों का वर्णन किया है। वाल्मीकि जी को भगवान श्रीराम के जीवन में घटित प्रत्येक घटना का पूर्ण ज्ञान था। रामचरितमानस के अनुसार जब श्रीराम वाल्मीकि जी के आश्रम गये तो वे आदिकवि के चरणों में दंडवत हो गये और कहा कि ,”तुम त्रिकालदर्षी मुनिनाथा बिस्व बदर जिमि तुमरे हाथा।” अर्थात आप तीनों लोको को जानने वाले स्वयं प्रभु हैं। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है।
महर्षि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण के माध्यम से हर किसी को सदमार्ग पर चलने की षिक्षा दी है। रामायण में प्रेम, त्याग, तप व यश की भावनाओं को महत्व दिया गया है। महर्षि वाल्मीकि जी का कहना है कि किसी भी मनुष्य की इच्छाशक्ति अगर उसके साथ हो तो वह कोई भी काम बड़ी आसानी से कर सकता है। इच्छाशक्ति और दृढ़संकल्प मनुष्य को रंक से राजा बना देती है। जीवन में सदैव सुख ही मिले यह दुर्लभ है। उनका कहना है कि दुख ओैर विपदा जीवन के दो ऐसे मेहमान हैं जो बिना निमंत्रण के ही आते हैं। माता पिता की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन जैसा दूसरा धर्म कोई भी नहीं है। इस संसार में दुर्लभ कुछ भी नहीं है अगर उत्साह का साथ न छोड़ा जाये। अहंकार मनुष्य का बहुत बडा शत्रु है वह सोने के हार को भी मिटटी बना देता है।
मृत्युंजय दीक्षित
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