देखिए कितना वैज्ञानिक और सुगठित है गोत्र परंपरा।
“भ्रिगुं, पुलत्स्यं, पुलहं, क्रतुअंगिरिसं तथा
मरीचिं, दक्षमत्रिंच, वशिष्ठं चैव मानसान्”
(विष्णु पुराण 5/7)
भ्रिगु, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि तथा वशिष्ठ – इन नौ मानस पुत्रों को ब्रह्मा ने प्रजा उत्पत्ति का कार्य भार सौंपा | कालान्तर में इनकी संख्या बढ़कर 26 तक हो गई और इसके बाद इनकी संख्या 56 हो गई। इन्हीं ऋषियों के नाम से गोत्र का प्रचलन हुआ और इनके वंशज अपने गोत्र ऋषि से संबद्ध हो गए।
हरेक गोत्र में प्रवर, गण और उनके वंशज (ब्राह्मण) हुए। कुछ गोत्रों में सुयोग्य गोत्रानुयायी ऋषियों को भी गोत्र वर्धन का अधिकार दिया गया|
इस क्रम में आज वत्स गोत्र की बात करते हैं।
भगवान ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु कुल में उत्पन्न हुए ऋषि हैं ऋषि वत्स/ वात्स्यायन जिन्हें वच्छ बत्स (वछलश) भी कहा जाता है।
महर्षि भृगु ऋग्वेद काल के भार्गव कुल प्रवर्तक महाऋषि हैं। भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि के सृजन एवं विकास की आकांक्षा से नौ मानस पुत्रों को अपने शरीर से उत्पन्न किया जिनमें से एक महाऋषि भृगु भी थे। महाऋषि भृगु को ब्रह्मा द्वारा किये गये यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न माना जाता है। भगवान वरूण ने महाऋषि भृगु को दत्तक पुत्र बनाया। अतएव इनका नाम भृगुवारणी भी कहा जाता है। महाऋषि भृगु की ही सन्तानें भार्गव भी कहलाई हैं।
च्यवन ऋषि ने भार्गव वंश की सर्वाधिक वृद्धि की।
महाऋषि भृगु के ऋषि च्यवन/च्यवान और ऋषि च्यवन/च्यवान के ऋषि आप्नुवान और ऋषि आप्नुवान के ऋषि और्व और ऋषि और्व के ऋषि ऋचिक और ऋषि ऋचिक के ऋषि जमदग्नि और ऋषि जमदग्नि के ऋषि परशुराम हुए हैं।
इसी वंश परंपरा का अभिन्न भाग है, ऋषि च्यवन/च्यवान और महाराजा शर्याति पुत्री सुकन्या के पुत्र महाऋषि दधीचि की दो भार्या हैं। एक का नाम सरस्वती और दूसरी का नाम अक्षमाला है। महाऋषि दधीचि और सरस्वती से उत्पन्न पुत्र का नाम सारस्वत हुआ। वहीं महाऋषि दधीचि और अक्षमाला से उत्पन्न पुत्र का नाम ऋषि वत्स हुआ। युगोपरांत कलयुग में वत्स वंश सम्भूत ऋषियों ने वात्स्यायन उपाधि भी स्वीकार करी।
वत्स ऋषि के पुत्र माधवानंद के द्वारा वत्स गोत्र का विस्तार किया गया। वत्स गोत्री किसी और ब्राह्मण की पंक्ति में बैठकर भोजन नही करते थे, अपना भोजन स्वयं बनाते थे/स्वयं पाकी थे। दान नही लेते थे, याचना नही करते थे।
मूल ऋषि भृगु
पांच प्रवर है-भार्गव, च्यवन, अप्रमाण, औरव, जमदग्नि
गण-भृगु
वेद-सामवेद
उपवेद-गंधर्व
सूत्र-गोविल्
शाखा-कौथुमी
शिखा और पाद-वाम है
प्रथम गोत्र कुल माधवानंद-तारिणी देवी
द्वितीय च्यवन -सिद्धादेवी
कुलदेवता-महादेव
उपास्य-विष्णु
मुख्य रूप से कुलदेवी सिद्धादेवी हैं इसलिए इन्हें ही माना जाता है।
ऐतरेय ब्राह्मण, अष्टाध्यायी में महर्षि पाणिनी द्वारा वत्स गोत्र का महात्म्य बताया गया है जिससे वत्स गोत्र का प्रमाण मिलता है।
ब्राह्मण कार्य छोड़कर जिन्होंने हल चलाने/खेती करने का निर्णय लिया वे भूमिहार कहलाये इस क्रम में ऋषि आश्रम से जुड़े अन्य वर्णों के लोग भी वत्स गोत्र के धारक हुए।
इनका प्रभाव जम्मू, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, आसाम , नेपाल, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में देखा गया।
वत्स गोत्र की उपाधियाँ/सरनेम-
तिवारी
चतुर्वेदी
पाण्डेय्
भागवत
भैरव
गार्गेकर
मलसे
नागेश
सोमानी
गादे
भट्ट
गोरे
हरे
जोशी
काले
सखदेव
दबोलकर
दांगर
होले
काकेतकर
शिनाय
थथेरी
दाहिल
दहल
कुँवर
खराल
कामत
गोवित्रकर
राय/बगोचिया
राणा
चौहान
बहुत से सरनेम मुझे पता नही है अगर उपाधि/सरनेम छूट गया है तो बताएं, मैं ब्लॉग में पूरी डिटेल्स डालने का प्रयास करूँगी।
आपको अगर वत्सगोत्र के विषय मे कोई जानकारी हो तो बताएं ताकि वत्स गोत्र की पूरी और सटीक जानकारी लोगों तक पहुंच सके।
इसके अलावा वैश्य समाज के 18 गोत्र पर भी मैं जल्दी ही ब्लॉग में शामिल करने का प्रयास करूँगी।
(साभार – https://sanatanandsciences.blogspot.com)