जिसे देशभर की सुहागिनें अपनी मांग में भरती हैं। जो हर मंगलवार और शनिवार प्रभु श्री राम के परमभक्त भक्त श्री हनुमान जी को चढ़ाया जाता है। कहा जाता है कि वन प्रवास के दौरान मां सीता कमीला फल के पराग को अपनी मांग में लगाती थीं।
बीस से पच्चीस फीट ऊंचे इस वृक्ष में फली गुच्छे के रूप में लगती है। फली का आकार मटर की फली की तरह पर थोड़ा चौड़ा होता है शरद ऋतु में वृक्ष फली से लद जाता है। वैसे तो यह पौधा हिमालय बेल्ट में होता है, लेकिन विशेष देख-रेख करके मैदानी क्षेत्रों में भी उगाया जा सकता है।
यह पहाड़ी क्षेत्रों में भारत के अलावा चीन, वर्मा, सिंगापुर, मलाया, लंका, अफ्रीका आदि देशो में अधिक पाया जाता है। इसके एक पेड़ से प्रतिवर्ष 8 से दस किलो से अधिक सिंदूर निकलता है। इस शुद्ध सिंदूर के प्रयोग से मनुष्य की काया कान्तिवान बनती है।
इसका इस्तेमाल तिलक में उपयोग होने वाली रोली और होठों को प्राकृतिक रूप से गुलाबी रखने के लिए किया जाता है जिसका कभी भी त्वचा पे कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता वहीं बाजार में मिलने वाले कैमिकल युक्त सिंदूर से बढ़ रही हैं अनेकों त्वचा संबंधित खुजली एलर्जी जैसी बीमारिया.
प्राकृतिक रूप से तैयार होने वाला सिंदूर त्वचा या सेहत को नुकसान नहीं पहुंचाता।बाजार में इसकी कीमत अधिक है इसलिए कम खर्च वाले तरीके से कैमिकल सिंदूर बनाकर बाज़ार में उतार दिया गया जिससे माथे में त्वचा रोग होने का खतरा बढ़ जाता है।बाजार में बिकने वाला सिंदूर रसायनों से बना होता है
इसमें लेड की रासायनिक मिलावट होने के कारण मिलावटी सिंदूर लगाने वाली महिलाओं को सिरदर्द जैसी शिकायतें भी होती हैं पर थोड़ी मेहनत और सावधानी के साथ इस पौधे को मैदानी क्षेत्रों और घरों में उगाया जा सकता, इसकी खेती को बढ़ावा दिया जा सकता और कैमिकल के दुष्प्रभावों से बचा जा सकता हैष
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