हाल ही में किसी बुक स्टोर में विक्रम बेताल की फोटो को देखकर, विक्रम और बेताल की पूरी कहानी जैसे आँखों के सामने से गुजर गई. कितनी बेसब्री से हमें उस सीरियल का इंतज़ार रहा करता था. उसकी एक एक कहानी से मिलने वाली सीख को कितने जतन से संजोने का प्रयास किया करते थे. बेताल की वो भयानक हंसी और राजा की समझदारी. राजा के कंधों पर सवार बेताल की शर्त, “राजन मेरी कहानी सुनकर अगर तुमने मुझे गलत जवाब दिया तो मैं उसी पल तुम्हारे सिर के टुकड़े कर दूँगा, और अगर सही जवाब दिया तो मैं चला.”
कैसी अटपटी शर्त – चिट भी मेरी पट भी मेरी.
कितनी हैरानी वाली दुनिया लगती थी न विक्रम और बेताल की. आज हम सब भी अपने अपने कन्धों पर एक बेताल को बिठाए घूम रहे हैं… हमारी रोज की समस्याओं की बिगड़ती ताल, मतलब बेताल. वो भी मानो हमारे सामने यही शर्त रखती हैं कि सही समाधान नहीं किया तो तुम खत्म, और समस्या सुलझा दी तो मैं कल फिर नए रूप में तुम्हारे कन्धों पर सवार हो जाऊँगा, उतने ही विकराल रूप में.
मन में ये ख़याल आते ही खुद के समेत, सड़क पर घूमते हर इंसान के कन्धों पर एक बेताल बैठा नजर आने लगा. हम डेली भाग-दौड कर उसे उतारने की कोशिश करते हैं और वो अपना लेबल बदल कर फिर हमारे कन्धों पर आ बैठता है. हम में से कोई भी उससे आजाद नहीं है — बेताल ना कोई लिंग देखता है, ना वर्ग, ना ही उम्र. वो बस निष्पक्षता से अपना शिकार कर रहा है. लेकिन इतना जरूर है कि हम भी विक्रम की तरह हार मानने वालों में से नहीं हैं, हम भी डटकर इस बेताल का सामना करने को तैयार हैं.