भारत का संविधान अपने नागरिकों के बीच कोई या किसी तरह का भेद नहीं करता।संविधान ने सभी नागरिकों को विधि के समक्ष समानता का मूलभूत अधिकार दिया हैं।पर दैनन्दिन व्यवहार में भारतीय समाज में नामरुप के इतने भेद हैं और संविधान के तहत चलने वाले राजकाज की कार्यप्रणाली भी भेदभाव से मुक्त नहीं हैं।इस तरह भारतीय समाज में समता के विचार दर्शन को मान्यता तो हैं पर दैनन्दिन व्यवहार में या आचरण में पूरी तरह समता मूलक विचार नहीं माना जाता।भारत में सामाजिक असमानता और भेदभाव को लेकर कई विशेष कानून बने पर सामाजिक असमानता और भेदभाव की जड़े उखड़ने के बजाय कायम हैं।
हमारा सामाजिक राजकीय मानस व्यापक सोच,समझ वाले न होकर प्राय:भेदमूलक व्यवहार वाले ही होते हैं।मनुष्य को सहज मनुष्य स्वीकारने का भाव यदा-कदा ही मन में आता हैं।हमारी समूची सोच और समझ प्राय: विशषेण मूलक ही होती हैं,खुद के बारे में भी और दूसरों के बारे में भी।हमारी समझ और सोच भी प्राय: तुलनात्मक ही होती हैं।इसी से हम जीवन और जगत को सापेक्ष भाव से ही देखने के आदि होते हैं जीव और जगत को सहज निरपेक्ष भाव से देखने का प्राय:हममें से अधिकांश:का अभ्यास ही नहीं होता।शायद यही कारण हैं की हमें अपनी भेद मूलक सोच और समझ में कुछ न्यूनता हैं ऐसा आभास भी नहीं होता।इसी से हम तरह तरह के भेदो और भावो को आचार विचार में मूलप्रवृति की तरह अपनाने के आदि हो जाते हैं।
अपने से बड़ों के प्रति आदर और छोटों के प्रति आशिर्वाद का सहज भाव भेद मूलक भाव न होकर सहज मानविय व्यवहार की विवेकपूर्ण जीवन-दृष्टि हैं।मनुष्यों की समतामूलक जीवन दृष्टि,सोच और व्यवहार ही सामाजिक राजकीय व्यवहार की दशा और दिशा का निर्धारक होता हैं।हमारे संविधान में समता पूर्ण व्यवहार और गरिमा पूर्ण जीवन जीने का मूल अधिकार जो संविधानिक रूप से अस्तित्व में होने पर भी समूचे लोक समाज और लोकतांत्रिक राजकाज में आधे-अधूरे और टूटे फ़ूटे रूप में यदा कदा दर्शन दे देता हैं। भारत के संविधान में समता,स्वतंत्रता और गरिमा पूर्ण जी्वन की सुनिश्चितता को लेकर जो मूल अधिकार हैं उनकी प्राण प्रतिष्ठा लोकसमाज और राजकाज में लोकतांत्रिक गणराज्य होते हुए भी सतही स्वरूप तथा खंण्ड़ित रूप में ही हैं।
कभी कभी तो अन्तर्मन में यह भी लगता हैं कि हमारा समाज और राजकाज किसी तरह जीते रहने और किसी तरह कुछ भी करते रहने को ही अपना कार्य मानने लगा हैं।क्या हम सब यंत्रवत भावना शून्य अराजक समूहों की तरह जीवन जीने के आदि नहीं होते जा रहे हैं?यह सवाल किसी और से नहीं अपने आप से ही हम सबको पूछना होगा और बिना परस्पर आरोप प्रत्यारोप के हिलमिल कर संविधान के गरिमामय जीवन मूल्यों की प्राण प्रतिष्ठा हमारे लोक समाज और राजकाज में करनी होगी।
आज के भारत में आबादी जिस तेजी से विराट स्वरूप लेती जा रही हैं उसके कारण जीवन का संधर्ष दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा हैं।हमारे रहन सहन सोच और परस्पर व्यवहार में समता और सदभावना ही हमारे जीवन क्रम को व्यक्ति ,समाज और राजकाज के स्तर पर जीवन्त जीवन मूल्यों के रूप में साकार करने में मददगार बनेगा।बढ़ती हुई आबादी का एक रूप जीवन की सकारात्मक ऊर्जा के विस्तार के रूप में मानना और लोक जीवन के हर आयाम को मानवीय संवेदना से ओतप्रोत करने की चुनौती के रूप में लेने की वृत्ति हम सबकी होनी चाहिए।
चैतन्य समाज और परस्पर सदभावी लोकजीवन ही हर एक के लिए गरिमामय जीवन के समान लक्ष्य को साकार कर सकता हैं।
आज समूची दुनिया में चाहे वह विकसित देश हो ,विकासशील देश हो या अविकसित पिछड़ा देश हो सभी में व्यक्तिगत और सामुहिक जीवन की जटिलतायें प्रतिदिन बढ़ती ही जा रहीं हैं।आर्थिक असमानता और काम के अवसरों में कमी ने जीवन की जटिलताओं को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया हैं।हम समूचे देश के लोगों की सामाजिक आर्थिक ताकत बढ़ाने की संवैधानिक राह के बजाय सीमित तबके केआर्थिक साम्राज्य का विस्तार कर संविधान के मूल तत्वों को ही अनदेखा कर रहे हैं।संकुचित सोच और एकांगी दृष्टि से इतने विशाल देश को समान रूप से स्वावलम्बी और चेतनाशील आत्मनिरभर देश के रूप में उभारा नहीं जा सकता।हमारी संवैधानिक दृष्टि हीं हमारी सामाजिक और राजकाज की दृष्टि हो सकती हैं।भारतीय समाज और राजकाज को चलाने वाली सामाजिक राजनैतिक ताकतों को वंचित लोक समूहों को सामाजिक राजनैतिक अधिकारों से सम्पन्न कर मानवी गरिमा युक्त जीवन जीने के अवसरों को देश के हर गांव कस्बे शहर में खड़ा करने के संवैधानिक उत्तरदायित्व को प्राथमिकता से पूरा करना ही होगा।
समता से सम्पन्नता और भेदभाव के भय से मुक्त समाज की संवेदनशीलता परस्पर सदभाव से लोकजीवन को सकारात्मक ऊर्जा से ओतप्रोत कर देती है।यहीं मानव सभ्यता की विरासत के संस्कार हैं।मनुष्य का इतिहास लाचारी भरा न हो चुनौतियों से जूझते रहने का हैं।भारतीय समाज भी सतत विपरित स्थिति से धबराये बिना रास्ता खोजते रहने वाला समाज हैं।भारतीय समाज का सबसे बड़ा गुण यह है कि उसमें भौतिक संसाधनों से ज्यादा आपसी सदभाव और सहयोग के संस्कार अन्तर्मन में रचे-बसे हैं।आर्थिक अभाव भारतीय स्वभाव को और ज्यादा व्यापक जीवन दृष्टि का मनुष्य बना देता हैं।आर्थिक अभाव जीवन को भावहीन बनाने के बजाय संवेदनशील और भावना प्रधान मनुष्य के रुप में जीवन मूल्यों का रक्षण करने की सहज प्रेरणा देता है।
हमारे राजकाज ने कभी भी यह संकल्प लिया ही नहीं की गरिमापूर्ण रूप से जीवन यापन हेतु आवश्यक संसाधन देश के हर नागरिकों को अनिवार्य रूप से उपलब्ध होंगे।अब तो स्थिति यह हो गयी हैं कि प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या से राज और समाज दोनों ही तनाव पूर्ण मानसिकता के साथ काम करते हैं।राज और समाज अपने हीं नागरिकों की संख्या से तनावग्रस्त मानस का हो जावे वह देश के हर नागरिक को गरिमामय जीवन देने का चिन्तन कैसे अपने राजकाज और समाज की पहली प्राथमिकता बना सकता हैं।
आज राज और समाज को जीवन में असमानता की खाई को पाटने के लिये पहले व्यापक कदम के रुप में कम से कम दोनों समय रोटी खाने और परिवार के हर सदस्य को दोनों समय रोटी खिलाने,बच्चों को शिक्षा दिलाने,बिमारी का इलाज कराने लायक मासिक आमदनी वाला बारह मासी रोजगार हर नागरिक के लिये सुनिश्चित करना हमारा गरिमामय रूप से जीवन जीने के मूल अधिकार की संवैधानिक बाध्यता के रूप में राज्य और समाज ने हिलमिल कर लागू करना हम सब का सामुहिक उत्तरदायित्व मानना चाहिये।तभी हम संविधान की दृष्टि और समाज तथा राजकाज के दृष्टिभेद को पाटने की दिशा में पहला निर्णायक तथा व्यापक बुनियादी कदम उठा पावेगें।
अनिल त्रिवेदी
स्वतत्रं लेखक व अभिभाषक
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