आज स्वामी विवेकानंद की 114वीं पुण्यतिथि है। प्रस्तुत है स्वामीजी के जीवन के कुछ प्रेरक संस्मरण –
बालक नरेंद्र बचपन से ही मेधावी, स्वतंत्र विचारों के धनी व्यक्ति थे। पढ़ने में बहुत होशियार थे। कम प्रयास में ही विद्यालय में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते थे और अपने शिक्षकों के प्रिय पात्र थे।
उस समय दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण परमहंस एक प्रख्यात ईश्वरप्राप्त व्यक्ति थे। वे मां काली के उपासक थे। दक्षिणेश्वर में रहकर काली की पूजा अर्चना करते हुए उन्होंने चार वर्ष के अंदर ही मां काली का साक्षात्कार किया। उस समय उनका कोई गुरु नहीं था। केवल अंतःकरण की विकलता से ही उन्हें काली का साक्षात्कार हुआ था।
इसके बाद उन्होंने राममार्गी साधुओं से राममंत्र की दीक्षा ली और रामनाम की साधना में व्यस्त हुए। हनुमानजी के रूप में अपने को मानते हुए भगवान राम से साक्षात्कार हुआ। उन्होंने राधा भाव से साधना करते हुए कृष्ण से साक्षात्कार किया। इस्लाम और ईसाईयत के सत्य को भी उन्होंने अनुभूत किया। ऐसे व्यक्ति को विवेकानंद का गुरु होने का सौभाग्य मिला।
गुरु-शिष्य का पहला मिलन
एफए की पढ़ाई करते हुए नरेंद्र अपने नाना के मकान पर अकेले रहते थे और अध्ययन करते थे। एक बार श्रीरामकृष्ण देव उस मोहल्ले में आए और एक भक्त के वहां रुके। सत्संग हो रहा था। भजन के लिए बालक नरेंद्र को वहां बुलाया गया। नरेंद्र का गीत सुनकर रामकृष्ण समाधिस्थ हो गए और जब कार्यक्रम की समाप्ति कर वे दक्षिणेश्वर जा रहे थे, तब नरेंद्र का हाथ अपने हाथ में लेकर बोले – तू, दक्षिणेश्वर जरूर आना। विवेकानंद ने हां कर दिया।
विवेकानंद ने भारतीय और पाश्चात्य दर्शनों का बढ़ी गहराई से अध्ययन किया था। कुछ समय के लिए वे संदेहवादी भी हो गए थे। एक दिन माघ की सर्द रात में वे ईश्वर के बारे में चिंतन कर रहे थे। उन्हें विचार आया कि रवींद्रनाथ टेगौर के पूज्य पिता श्री देवेंद्रनाथ ठाकुर गंगा नदी में नाव पर बैठकर साधना करते हैं। उन्हीं से पूछा जाए।
वे तत्काल गंगा घाट गए और तैरते हुए नाव में पहुंच गए। उन्होंने महर्षि से पूछा, आप तो पवित्र गंगा में रहकर इतने समय से साधना कर रहे हैं, क्या आपको ईश्वर का साक्षात्कार हुआ। महर्षि इस बात का स्पष्ट जवाब नहीं दे सके। केवल इतना कहा, नरेंद्र तुम्हारी आंखें बताती हैं कि तुम बहुत बड़े योगी बनोगे।
नरेंद्र ने कहा, महर्षि, मेरी बात छोड़िए, क्या आपको ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है? इस बात का महर्षि के पास कोई जवाब नहीं था। नरेंद्र लौट कर अपने कमरे पर आ जाते हैं और विचार करते हैं कि जब महर्षि जैसे व्यक्ति को ईश्वर साक्षात्कार नहीं हुआ तो मेरे जैसे कि क्या बिसात।
अगले दिन सवेरे, विवेकानंद को रामकृष्ण देव की याद आई। वे दक्षिणेश्वर की ओर चल दिए। वहां पहुंचने पर उन्होंने देखा कि रामकृष्ण भक्तों से घिरे हुए बैठे हैं और आनंदपूर्वक चर्चा कर रहे हैं। नरेंद्र को देखकर रामकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, तू आ गया। अच्छा किया। परंतु नरेंद्र ने उनसे वही सीधा प्रश्न किया कि क्या आपने ईश्वर को देखा है? तो परमहंस ने जवाब दिया, हां देखा है और मैं तुम्हें भी दिखा सकता हूं। इसके बाद 1881 से 1886 तक नरेंद्र ने रामकृष्ण के शिष्य के रूप में कई रातें दक्षिणेश्वर में बिताईं और साधनाएं कीं।
नरेंद्र नीचे बगीचे में बैठकर अपने गुरु भाईयों के साथ ध्यान कर रहे थे। एक गुरुभाई सगुणसाकार ईश्वर में विश्वास करता था। नरेंद्र ने उससे कहा – जब मैं ध्यान करूं, तब तुम मुझे स्पर्श कर लेना। उस व्यक्ति ने वैसा ही किया। और विवेकानंद को छूते ही उसके भाव बदल गए।
ऊपर से आवाज देकर रामकृष्ण ने नरेंद्र से कहा, अरे…पहले संचय करो, फिर बांटना। तू नहीं जानता तूने इसका कितना नुकसान किया। ये अपने भाव से भटक गया है। और किसी के भाव को नष्ट करना एक हिंसा होती है। विवेकानंद को अपनी गलती का अहसास हुआ।
तू इतना स्वार्थी बनेगा
परम जिज्ञासु नरेंद्र का साधकरूप आजीवन बना रहा। उन्होंने एक बार रामकृष्ण से कहा था कि मैं सुखदेव की तरह समाधि में लीन रहना चाहता हूं, तो रामकृष्णदेव ने कहा था कि तेरे से बहुत उम्मीदें हैं। तू इतना स्वार्थी बनेगा।
नरेंद्र ने कहा था, बिना निर्विकल्प समाधि के मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं, तो विवेकानंद को रामकृष्ण ने निर्विकल्प समाधि तक पहुंचाया और फिर कहा कि अब ताला बंद है और चाबी मेरे पास है। तू तो क्या तेरी हड्डियों से भी विश्व कल्याण के कार्य होंगे, जो आज सत्य प्रतित होता है।
4 जुलाई 2015 को स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि है। 113 साल पहले इसी दिन यानी 4 जुलाई 1902 को भारतीय चिंतन को समग्र विश्व में फैलाने वाले इस महापुरुष का अवसान हुआ था। आइए जानते हैं, स्वामीजी के जीवन के आखिरी दिन क्या हुआ था –
4 जुलाई 1902 आषाढ़ कृष्ण अमावस्या का दिन था। स्वामी विवेकानंद पश्चिम बंगाल के बेलूर मठ में थे। रोज की तरह सुबह जल्दी उठे। नित्य कार्यों से निवृत्त होकर ध्यान, साधना एवं भ्रमण के कार्य को सम्पन्न किया। इसके बाद भोजनालय में गए। भोजन व्यवस्था को देखा और अपने शिष्यों को बुलाया।
स्वयं अपने हाथों से सभी शिष्यों के पैर धोए। शिष्यों ने संकोच करते हुए स्वामीजी से पूछा, ‘ये क्या बात है?’ स्वामीजी ने कहा, ‘जिसस क्राइस्ट ने भी अपने हाथों से शिष्यों के पैर धोए थे।’ शिष्यों के मन में विचार गूंजा, ‘वह तो उनके जीवन का अंतिम दिन था।’
इसके बाद सभी ने भोजन किया। स्वामीजी ने थोड़ा विश्राम किया और दोपहर डेढ़ बजे सभी को हॉल में बुला लिया। तीन बजे तक संस्कृत ग्रंथ लघुसिद्धांत कौमुदी पर मनोरंजक शैली में स्वामीजी पाठ पढ़ाते रहे। खूब ठहाके लगे। व्याकरण जैसा नीरस विषय रसमय हो गया। शिष्यों को डेढ़ घंटे का समय जाते पता ही न चला।
सायंकाल स्वामीजी अकेले आश्रम परिसर में घुम रहे थे। वे अपने आप से कह रहे थे, ‘विवेदानंद को समझने के लिए कोई अन्य विवेकानंद चाहिए। विवेकानंद ने कितना कार्य किया है यह जानने के लिए कोई विवेकानद ही होना चाहिए। चिंता की बात नहीं, आने वाले समय में इस देश के अंदर कई विवेकानंद अवतरित होंगे और भारत को ऊंचाइयों पर पहुंचाएंगे।’
संध्या होने के बाद स्वामीजी अपने कमरे में गए। खिड़कियां बंद कीं और ध्यान मुद्रा में बैठ गए। कुछ समय जप किया। बाद में खिलाड़ियां खोल दीं। बिस्तर पर लेट गए। और ओम का उच्चारण करते हुए इस दुनिया से विदा ली।
लगभग चालीस वर्ष की अल्पआयु में भारतीय चिंतन को समग्र विश्व में फैलाने वाले इस महापुरुष के जीवन का एक-एक क्षण आनंदपूर्ण, उल्लासमय और भारत के खोए वैभव को पूरी दुनिया में प्रचारित करने के लिए समर्पित रहा।
बात सन् 1886 की है। यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानंद हाथरस स्टेशन पर उतरे। वहां उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। हाथरस के स्टेशन मास्टर सुरेंद्र गुप्ता ने स्वामीजी को अपने घर ले जाकर सेवा की और उनसे इतने प्रभावित हुए कि स्वयं भी संन्यास लेने की इच्छा प्रकट कर दी।
स्वामीजी ने शर्त रखी, ‘क्या तुम ये मेरी झोली उठाकर अपने कुली और खलासी आदि से भिक्षा मांग सकते हो।’ स्टेशन मास्टर ने झोली उठाई। स्टेशन पर ही लोगों से भीख मांगी और स्वामीजी को अर्पित की। ये ही सुरेंद्र गुप्ता स्वामीजी के पहले शिष्य हुए।
एकांत को दृष्टिगत रखते हुए नरेंद्र (विवेकानंद के बचपन का नाम) अपने नाना के घर पर अकेले रहकर पढ़ाई करते थे। एक शाम एक व्यक्ति आया और उसने नरेंद्र से कहा, ‘तत्काल घर चलो। तुम्हारे पिता का देहावसान हो गया है।’
नरेंद्र घर आते हैं। पिता का पार्थिव शरीर कमरे में रखा है। मां और छोटे-छोटे भाई-बहन शोकमग्न हैं। इस दृश्य को नरेंद्र ने देखा। अगले दिन पिता का विधिवत अंतिम संस्कार किया।
नरेंद्र के पिताजी कलकत्ता के प्रसिद्ध वकीलों में से एक थे। उन्होंने धन भी यथेष्ट कमाया था, परंतु अधिकतर भाग परोपकार में लगा दिया और भविष्य के लिए कुछ भी संचय नहीं किया था। मां भुवनेश्वरी देवी पर परिवार संभालने की जिम्मेदारी थी। परिवार विपन्नता के दौर से गुजर रहा था। कभी-कभी छोटे भाई बहनों के लिए भोजन की व्यवस्था जुटना भी मुश्किल था।
बालक नरेंद्र गुप्त रूप से इसका पता लगा लेते थे और कई बार मां से कहते थे, ‘मुझे आज एक मित्र के यहां भोजन करने जाना है।’ इस प्रकार विपन्नता में कई दिन बीत रहे थे।
रिश्तेदार बड़े क्रूर होते हैं। उन्होंने नरेंद्र के पैतृक मकान पर कोर्ट में दावा कर दिया। नरेंद्र ने केस की स्वयं पैरवी की और इस प्रकार के तर्क दिए कि वे केस जीत गए। विरोधी पक्ष के वकील ने इन्हें रोकना चाहा और कहा, ‘भद्र पुरुष तुम्हारे लिए वकालात उचित क्षेत्र रहेगा’, परंतु नरेंद्र ने उनकी बात नहीं सुनी और कोर्ट से दौड़ते हुए अपनी मां के पास गए और कहा, ‘मां अपना घर रह गया है।’
4 जुलाई 2015 को स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि है। 114 साल पहले इसी दिन यानी 4 जुलाई 1902 को भारतीय चिंतन को समग्र विश्व में फैलाने वाले इस महापुरुष का अवसान हुआ था। आइए जानते हैं, स्वामीजी के जीवन के आखिरी दिन क्या हुआ था –
4 जुलाई 1902 आषाढ़ कृष्ण अमावस्या का दिन था। स्वामी विवेकानंद पश्चिम बंगाल के बेलूर मठ में थे। रोज की तरह सुबह जल्दी उठे। नित्य कार्यों से निवृत्त होकर ध्यान, साधना एवं भ्रमण के कार्य को सम्पन्न किया। इसके बाद भोजनालय में गए। भोजन व्यवस्था को देखा और अपने शिष्यों को बुलाया।
स्वयं अपने हाथों से सभी शिष्यों के पैर धोए। शिष्यों ने संकोच करते हुए स्वामीजी से पूछा, ‘ये क्या बात है?’ स्वामीजी ने कहा, ‘जिसस क्राइस्ट ने भी अपने हाथों से शिष्यों के पैर धोए थे।’ शिष्यों के मन में विचार गूंजा, ‘वह तो उनके जीवन का अंतिम दिन था।’
इसके बाद सभी ने भोजन किया। स्वामीजी ने थोड़ा विश्राम किया और दोपहर डेढ़ बजे सभी को हॉल में बुला लिया। तीन बजे तक संस्कृत ग्रंथ लघुसिद्धांत कौमुदी पर मनोरंजक शैली में स्वामीजी पाठ पढ़ाते रहे। खूब ठहाके लगे। व्याकरण जैसा नीरस विषय रसमय हो गया। शिष्यों को डेढ़ घंटे का समय जाते पता ही न चला।
सायंकाल स्वामीजी अकेले आश्रम परिसर में घुम रहे थे। वे अपने आप से कह रहे थे, ‘विवेदानंद को समझने के लिए कोई अन्य विवेकानंद चाहिए। विवेकानंद ने कितना कार्य किया है यह जानने के लिए कोई विवेकानद ही होना चाहिए। चिंता की बात नहीं, आने वाले समय में इस देश के अंदर कई विवेकानंद अवतरित होंगे और भारत को ऊंचाइयों पर पहुंचाएंगे।’
(सत्येंद्रनाथ मजूमदार की पुस्तक ‘विवेक चरित्र’ से साभार)
स्वामी विवेकानंद द्वारा 1893 में अमरीका में शिकागो में विश्व धर्म संसद में दिए गए उद्बोधन का वीडिओ
https://www.youtube.com/watch?v=p4Nmvbm4WYM