भारत (संज्ञा-मानवनाम) : जड़ भरत, चक्रवर्ती सम्राट भरत, विशिष्टगुण संपन्न व्यक्ति, दुरूह भार-वहन क्षमतावान व्यक्ति, अर्जुन; (देश-स्थाननाम) आयावर्त, आर्यावर्त-उपमहाद्वीप, जम्बूद्वीप के अंतर्गत भरतखंड, इंदुदेश, इंडिया, कर्मभूमि, पुण्यभूमि, गणराज्य भारत, भारतमाता, भारतवर्ष, यज्ञियदेश, सोने की चिड़िया, स्वदेश, हिंद, हिंदोस्तान,हिंदोस्ताँ, हिंदुस्तान, हिंदुस्थान, भारतीय संघ, भारत गणराज्य, इंडिया दैट इ़ज भारत।
इतने सारे नामों में सन १९४७ में हुए विभाजन के बाद क्या वह भारत नाम से पहचाना जानेवाला ज़मीन का एक टुकड़ा-भर है? आ़िखर वह भारत है क्या जिस पर हम गर्व करते हैं? क्या हमारे गर्व का स्रोत पौराणिक कथा का जड़ भरत है, या चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत तथा इंद्र के दरबार की अप्सरा मेनका और ऋषि विश्वमित्र की पुत्री शवुंâतला का पुत्र भारत है, जिसका कण्व ऋषि के शिवालिक पर्वत की गोद में मालिनी नदी के तट पर स्थित आश्रम में लालन-पालन हुआ था। या भागवत पुराण के महाभारत-खंड में वर्णित पांडु-पुत्र अर्जुन है, जिसे द्वापरयुग के अस्ति-काल में भगवान श्रीकृष्ण ने गीता-ज्ञान देते हुए इसी नाम से संबोधित किया था :
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत! –हे भारत! जब-जब धर्म का ह्रास होता है,
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।” (और) अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं जन्म लेता हूँ।
या वह भारत जिसका विदेशी ब्रिटिश ग़ुलामी की बेड़ियाँ काटने और परतंत्र देश की अस्मिता को जगाने के लिए राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने, जिनका यह १२८वाँ जयंती वर्ष भी है, अपनी कालजयी रचना `भारत भारती’ खंडकाव्य में इस प्रकार मंगलाचरण किया है–
“मानस भवन में आय्र्जजन जिसकी उतारें आरती,
भगवान! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते।
सीतापते! सीतापते!! गीतामते! गीतामते!!” ।१।
“हाँ, लेखनी हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा,
दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वथा।
स्वच्छंदता से कर, तुझे करने पड़ें प्रस्ताव जो,
जग जायें तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो।२।
`मानस भवन में’ और `सोये हुए हों भाव’ जो निश्चित ही उस भारत को इंगित करते हैं, जो कोई एक व्यक्ति नहीं है। न किन्हीं सीमाओं से बँधा कोई भूभाग ही। फिर भी यह भारतवर्ष, भारत नामक देश है जो अन्य देशों से कई मानों में भिन्न है। यह इसलिए कि जिस प्रकार देशों की सीमाएं परिभाषित होती रही हैं, और समय-समय पर पुनर्परिभाषित होती जाती हैं, उस प्रकार भारत आसेतु हिमालय तक पैâला धरती का एक विस्तार और उस विस्तार का एक खंड मात्र नहीं है।
हमने इस लेख के प्रारंभ में भारत शब्द के शब्दकोशीय अर्थ प्रस्तुत करते हुए कुछ शब्द दिये हैं। भारत उनमें से केवल कोई एक शब्द नहीं है। वह एक विशिष्ठ भावना है। वह एक विशिष्ठ चरित्र है। गुणधर्म है। जो उपरोक्त सभी शब्दों में विद्यमान है। व्यक्ति और स्थान सभी में अंतर्निहित संस्कार है। वह उपरोक्त तथा अन्य कई भूखंडों का अविभक्त भाव है और विभक्त भूखंडों का समुच्चय है। जो भारत भाव है। वह किसी एक का नहीं यहाँ के हर रहिवासी का है। भारत भाव कोई एक पंथ-पांत नहीं है, एक नस्ल-रंग नहीं है, एक भाषा-बोली नहीं है, वह इन कई मनुष्यों की इन सभी विभिन्नताओं का समुच्चय है। जिसमें बार-बार कुछ जुड़ता-टूटता चला आ रहा है। यह वह है जिसमें जुड़ाव भी है और घटाव भी। यह एक पूर्णांश (एंटिटी) है, जिसके नाम में घट-बढ़ होती रही हैं मगर जिसकी आत्मा नहीं बदल पायी है।
ऋग्वेद (मंडल २ से ७ तक) के अनुसार वेदकालीन भारत, उस समय के पूर्वजों और उनकी संततियों का नाम था। किसी एक का नहीं, कई का नाम था। उस समय`भारत’ कुल-गोत्र नाम था। सब भारत थे। उसके बाद पौराणिक युग में, विष्णु, वायु, लिंग, ब्रह्मांड, अग्नि, स्वंâद, मार्वंâडेय पुराणों में बताया गया है कि चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम से यह देश भारतवर्ष कहलाया। विष्णु पुराण में वर्णित है :
“ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत्
भरताद भारतं वर्षं, भरतात सुमतिस्त्वभूत्।” –विष्णु पुराण (२,१,३१)।
–मरुदेवी का पुत्र ऋषभ और ऋषभ का पुत्र भरत हुआ; भरत से भारतवर्ष का उदय हुआ और भरत से सुमति का। –विष्णु पुराण (२,१,३१)।
“ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते
भरताय यत पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम।” –विष्णु पुराण (२,१,३२)।
–यह देश तब से भारतवर्ष कहलाता है, जब भरत के पिता अपने पुत्र को राजपाट सौंपकर तपस्या करने वन प्रस्थान कर गये। –विष्णु पुराण (२,१,३२)
विष्णु पुराण के ही अनुसार–
“उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रैश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः।।” –विष्णु पुराण (२,३,१)
–सागर के उत्तर में और हिमाच्छादित पर्वतमाला के दक्षिण में जो देश (वर्ष) स्थित है वह भारत कहलाता है, जहाँ भारत की संतति वास करती है। –विष्णु पुराण (२,३,१)
इस क्षेत्र के अंतर्गत अ़फ़गानिस्तान, आज का पाकिस्तान, भारत, नेपाल, बाँग्लादेश आ जाते हैं। लगभग यही चंद्रगुप्त मौर्य और सम्राट अशोक के साम्राज्य की सीमाएं थीं। मु़गल साम्राज्य (१७वीं सदी) और मराठा साम्राज्य (१८वीं सदी) दोनों की तथा ब्रिटिश राज (१९-२०वीं सदी) की भी लगभग यही सीमाएं रहीं। इस प्रकार समय की दृष्टि से देखें तो भारत के इतिहास के वैदिक काल, पौराणिक काल, मध्यकाल और अब स्वराज के फलस्वरूप आधुनिक काल ये चार पाये हो जाते हैं।
राष्ट्र के रूप में भारत-भावना पश्चिम की बनती-बिगड़ती राष्ट्र-राज्य अवधारणा के विपरीत तथा बहुत पहले की है। यह सनातन भावना है। इन अर्थों में भारत सनातन राष्ट्र है, वह मानव सभ्यता का पहला राष्ट्र है। श्रीमद्भागवत (पंचम स्कन्ध) में राष्ट्र-रूप भारत की उत्पत्ति का वर्णन आता है कि सृष्टि की उत्पत्ति के बाद ब्रह्मा के मानस-पुत्र स्वायंभुव मनु ने विश्व की व्यवस्था सँभाली। उन्होंने अपने दो पुत्रों प्रियव्रत और उत्तानपाद में से ज्येष्ठ प्रियव्रत को संपूर्ण जगत (पृथ्वी) का भार सौंप दिया। (यह भारत की `वसुधैव कुटुम्कम्’ अवधारणा का आदि स्रोत है)। जिस प्रियव्रत को उसके पिता प्रथम मनु ने समूची पृथ्वी का भार सौंपा था, उसके के दस पुत्र हुए जिनमें से तीन विरक्त थे।
अतः उसने पृथ्वी को सात भागों में स्थित करके एक-एक भाग का अधिभार अपने शेष सात पुत्रों को सौंप दिया। इनमें से एक आग्नीध्र को जंबूद्वीप का शासनभार सौंपा गया। जब आग्नीध्र वृद्ध हो गये तो उन्होंने जंबूद्वीप को नौ भागों में विभाजित करके अपने नौ पुत्रों को सौंप दिया। इनमें ज्येष्ठ पुत्र नाभि को `हिमवर्ष’ का भूभाग मिला। इस नाभि ने अपने नाम `नाभि’ के साथ `अज’ उपसर्ग जोड़कर हिमवर्ष को `अज-नाभवर्ष’ नाम दे दिया। इन सम्राट नाभि के पुत्र ऋषभदेव के सौ पुत्रों में सबसे गुणवान और ज्येष्ठ थे भरत, जिन्हें अजनाभवर्ष का राजपाट सौंपकर ऋषभदेव ने वाणप्रस्थ ग्रहण कर लिया। उसके बाद से हिमवर्ष से अजनाभवर्ष बना राष्ट्र भरत के नाम से `भारतवर्ष’ कहलाने लगा।
यों शासक के बदलने पर शासितक्षेत्र के नाम भले बदलते चले गये, किंतु क्या भारत अलग-अलग समयों में अलग-अलग व़क्तों के बदलते हुए राजनीतिक भूगोल का नाम है? जी हाँ, है भी और नहीं भी। है, क्योंकि जब-जब भूगोल बदला है भारत नामक सीमाक्षेत्र बदला है। मगर इन बदलावों के बावजूद वह भावना नहीं बदली है जो भारत-भावना है। वैदिक भारत, पौराणिक भारत, हिंदू भारत, मु़गलकालीन हिंदोस्तान, ब्रिटिश उपनिवेश इंडिया, गणराज्य भारत ये सब भारत हैं। अलग-अलग कालखंड के भारत हैं, अलग-अलग नाम से हैं। मगर इन सब में वह कुछ है जो हर काल के भारत में अंतर्निहित है। वह कुछ एक भारत धारणा है, एक भावना है, एक विचार,एक आस्था है! जिसे हम भारत-भावना समझते हैं। जो एक अंदरूनी कालजयी भावनात्मक निरंतरता है। संप्रदायों की परिधियों से ऊपर उठकर भारत की यह भावनात्मक निरंतरता अपने आप में एक सनातन संस्कार है। एक मॉडल है, जैसा मानवीय मूल्यों से मंडित आदर्श विश्व का मॉडल होना चाहिये।
अब अल्लामा इ़कबाल की मशहूर ऩज्म `सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तान हमारा’ को देखिये जो स्वराज के आंदोलन में गलीगली प्रभातपेâरियों में गायी जाती थी:
“सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा,
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसिताँ हमारा।टेक।
घुर्बत (परदेस) में हों अगर हम रहता है दिल वतन में,
समझो वहीं हमें भी दिल है जहाँ हमारा।१।
परबत वो सबसे ऊँचा हमसाय आस्माँ का,
वो संतरी हमारा वो पासबाँ हमारा।२।
गोदी में खेलती हैं इसकी ह़जारों नदियाँ,
गुलशन है जिनके दम से रश्क-ए-जना हमारा।३।
ऐ आबरूद गंगा वो दिन है याद तुझको,
उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ हमारा।४।
म़जहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिंदवी हैं हम वतन है हिंदोस्तान हमारा।५।
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा सब मिट गये जहान से,
अब तक मगर है बा़की नामो-निशाँ हमारा।६।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-़जमान हमारा।७।
इ़कबाल कोई मेहरम अपना नहीं जहाँ में,
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहा हमारा।८।
अतः वेदों से लेकर शायर इ़कबाल तक, जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान के ़कौमी शायर कहलाये और मैथिलीशरण गुप्त, जिन्हें भारत की जनता ने राष्ट्रकवि अंगीकार किया है, शाश्वत सत्य यही है कि भारत एक ऐसी प्रबल भावना, गहरा संस्कार है जो मिटाये नहीं मिट सकता।
कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने `भारतेर इतिहास’ शीर्षक अपने बाँग्ला लेख में भारत का पश्चिमीकरण करनेवालोेंं को फटकारते हुए लिखा है, “जो यह कहते हैं कि भारत का केवल राजनीतिक इतिहास है, उसका कोई (सांस्कृतिक) इतिहास नहीं है, वे धान के खेत में अंडे उगाने की बात कर रहे हैं। सभी खेतों में एक ही उपज नहीं होती। जो इस बात को समझते हैं वे समझदार हैं।”
भारत एक ऐसी धरती है जिसकीr अपनी अलग सांस्कृतिक उपज है, लगातार परिवद्र्धित-परिसंस्करित होती रहती उपज, मगर है एक अनवरत सभ्यता और संस्कृति का अग्रसरण और यही उसके अपने अनोखे मूल्य हैं जो लाख मिटाये, मिटाये न जा सके। जिसके बारे में शायर इ़कबाल ने लिखा “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माना हमारा” और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने “भगवान! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भगवते” कहा।
भारतवर्ष का इतिहास लगभग ५००० साल पुराना माना जाता है। पाश्चात्य विद्वान सिंधु घाटी-सभ्यता को ईसापूर्व ३३०० वर्ष पहले की बताते हैं कि आर्य लोग मध्य एशिया से आकर सिंधु नदी के तटवर्ती पंजाब और सिंध में आकर बस गये थे और उन्होंने उत्तर तथा मध्य भारत में वैदिक सभ्यता का निर्माण किया। उनकी भाषा संस्कृत और प्राकृत थी और धर्म वैदिक धर्म अथवा सनातन धर्म था, जिसे बाद में हिंदू धर्म कहा जाने लगा। विंâतु आर्यों के बाहर से आने के पुरातात्विक प्रमाण कोई नहीं हैं। वस्तुतः हाल में मिले पुराउत्खननों में तथा सरस्वती नदी की खोज से वैदिक सभ्यता के कुछ ऐसे अवशेष मिले हैं जिनसे प्रमाणित होता है कि आर्यों की उत्पत्ति यहीं हुई।
इस बात से पश्चिम के विद्वान और सभी इतिहासज्ञ सहमत हैं कि वैदिक सभ्यता संसार की सबसे पुरानी सभ्यता है और ऋगवेद सबसे प्राचीन ग्रंथ। वे ऋगवेद का रचनाकाल ३००० वर्ष ई.पू. स्थापित करते हैं। `भारतीय पुरातत्व परिषद’ ने हाल ही में सरस्वती नदी की जो खोज की है उसने इस विषय पर नयी रोशनी डाली है कि वैदिक सभ्यता, हड़प्पा सभ्यता सरस्वती नदी के तटीय क्षेत्र में विकसित हुई, जिसमें आधुनिक भारत के पंजाब और हरियाणा प्रदेश आते हैं। चूँकि हड़प्पा सभ्यता की २६०० बस्तियोेंं में से केवल २६५ बस्तियाँ पाकिस्तान में सिंधु नदी के तट पर मिलती हैं और शेष २३३५ सरस्वती नदी के तट पर अतः हड़प्पा सभ्यता को सिंधु-सरस्वती सभ्यता नाम दिया गया। सरस्वती एक विशाल नदी होती थी, जो पहाड़ों के सीनों को तोड़ती और मैदानों को रौंदती हुई समुद्र में जा मिलती थी। ऋगवेद में सरस्वती नदी का उल्लेख बारबार आया है, जो बाद के भूगर्भीय बदलाव के कारण भूमिगत हो गयी।
इसलिए यह स्थापना सही लगती है कि आर्य भारतीय मूल के ही थे और वैदिक सभ्यता का प्रारंभ भारत में ही हुआ। सनातन अथवा वैदिक धर्म उनका धर्म था। उसके अलावा ढाई ह़जार वर्ष पूर्व से यहाँ जैन और बौद्ध संप्रदाय भी लोकप्रिय हुए। ईसा पूर्व २६५-२४१ में, सम्राट अशोक का साम्राज्य अ़फ़गानिस्तान से मणिपुर और तक्षशिला से कर्नाटक तक पैâल गया था। दक्षिण में चोल शक्तिशाली थे। भगवान बुद्ध के जीवनकाल में कपिलवस्तु के शाक्य तथा वैशाली के लिच्छवी गणराज्य फलपूâल रहे थे। इस दौरान भारत में गणराज्य और राजतंत्र मिलाकर सोलह महाजनपद थे –
काशी, कोशल, अंग, मगध, वज्जी, मल्ला, चेदि, वत्स, कुरु, पंचाल, मत्स्य,शूरसेन, अक्ष, अवंती, गंधार, वंâबोज – जो अ़फ़गानिस्तान से लेकर बंगाल और महाराष्ट्र तक फैले हुए थे।
८ वीं सदी में जब सिंध पर अरबी ़कब़्जा हुआ तो भारत में इस्लाम का भी प्रवेश हो गया और १२वीं सदी के अंत तक तुर्वâ दासों ने दिल्ली के सिंहासन पर आधिपत्य जमा लिया। दक्षिण में विजयनगर और गोलवुंâडा हिंदू शासन थे, मगर १५५६ में विजयनगर पर मुस्लिम शासन आ गया। उधर १५२६ में मध्य एशिया (आज के उ़ज्बेकिस्तान) से खदेड़े गये राजकुमार बाबर ने, जो तैमूर और चं़गे़ज ़खान के वंशज थे, काबुल में जाकर पनाह ली, ता़कत बटोरी और भारत पर हमला करके यहाँ मु़गल सल्तनत की नींव डाली और यहीं बस गये। वापस नहीं लौटे। न यहाँ की धन-संपदा वहाँ ले गये। मु़गलों के अट्ठारह उत्तराधिकारियों का – बाबर, हुमायूँ, अकबर,जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंग़जेब से लेकर बहादुर शाह `ज़फर’ तक –३०० वर्षों तक शासन रहा, जो लगातार कम़जोर पड़ता चला गया था। उसी दौरान मध्य और दक्षिण भारत में छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में मराठे शक्तिशाली हुए और दक्षिण-पूर्वी तट पर पुर्तगाली व्यापारी आने लगे थे। औरंग़जेब दक्षिण को क़ाबू करने चला तो उत्तर में सिखों का उदय हो गया। १७०७ ईस्वी में दक्षिण में ही औरंग़जेब की मृत्यु हो गयी और उसी के साथ मु़गल सल्तनत का बिखराव शुरू हो गया।
कम़जोर केंद्रीय सत्ता का फायदा उठाकर विदेशी ब्रिटिश, पुर्तगाली, डच और प्रâांसीसी व्यापारियों ने, जिनकी आपस में प्रतिस्पर्धा थी, व्यापार की आड़ में अपने-अपने ़कब़्जे जमाने शुरू कर दिये। विंâतु अंगरे़जों ने पुर्तगाली, डच और प्रâांसीसी व्यापारियों को मुख्य भूमि से खदेड़कर भारत पर एकछत्र व्यापारिक अधिकार जमा लिया। १७५७ में सिरा़जुद्दौला को हराने और १८५७ के विद्रोह को, जिसे स्वतंत्रता का पहला संग्राम माना गया है, कुचलने के बाद अंगरे़ज भारत की राजनीतिक सत्ता पर भी क़ाबि़ज हो गये। अंगरे़जी औपनिवेशिकता के साथ भारत में ईसाइयत का भी प्रवेश हो गया।
यह तो ता़जा स्मृति है कि स्वतंत्रता के एक लंबे गरम और नरम दलीय संघर्ष और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चले अहिंसा के अनूठे आंदोलन के बाद अंगरे़जों की औपनिवेशिक दासता से भारत १९४७ में आ़जाद हुआ। हालाँकि इसी के साथ देश का विभाजन भी हो गया। अखंड भारतवर्ष में से एक नया देश पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया। इसी के साथ भारत पर पाश्चात्य भौतिक समृद्धि और आधुनिकता के आकर्षण का दबाव भी बढ़ गया, विंâतु भारत भावना को न अरब का इस्लामीकरण निगल पाया, न योरप का ईसाईकरण। भारत भावना ने इस्लाम को भी अपने में समो लिया और क्रिस्तान को भी। यहूदी को भी समा लिया और पारसी को भी। तात्पर्य यह कि हमलावर या शरणागत बनके आये जो-जो लोग यहाँ रहने लगे यहीं के हो गये। ध्यान देने की बात है कि जो यहाँ के नहीं हुए, जिन्होंने भारत को अपना देश नहीं माना वे यहाँ से चले गये।
आज संसार का शायद ही कोई धर्म या संप्रदाय हो जो भारत में न हो, जिसके माननेवाले अपने को यहाँ सुरक्षित न समझते हों। ऐसा केवल इसी लिए है कि भारत एक ऐसा संस्कार है, आस्था है, भावना है जो मानवता में विश्वास रखती है।
भारत `वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा का उद्गम है। भारत के पास विश्व को देने के लिए उसकी मानवीयता की उदात्त भावना है, तो विश्व से ग्रहण करने की अजस्र शक्ति भी। सनातन के साथ अधुनातन को ग्रहण करना ही भारतीयता है। स्वामी विवेकानंद ने अपने एक भाषण में कहा था, “दो और लो (सृष्टि का) नियम है,और अगर भारत पुनः ऊँचा उठना चाहता है तो यह अत्यंत आवश्यक है कि वह अपना ख़जाना विश्व के लोगों के लिए खोल दे, और बदले में वे लोग जो दे सकते हैं उसे लेने के लिए तैयार रहे। विस्तार जीवन है और संकुचन मृत्यु। प्रेम जीवन है, घृणा मृत्यु। हमने जिस दिन दूसरी नस्लों से घृणा करना शुरू कर दिया उस दिन मरना शुरू कर दिया, और हमारी मृत्यु को तब तक कोई नहीं रोक सकता है, जब तक कि हम अपना पुनर्विस्तार, जो जीवन है, शुरू न कर दें।…
“अगर इस धरती पर कोई देश `पुण्य भूमि’ होने का दावा कर सकता है तो वह भारत है, वह देश जहाँ इस धरती के तमाम जीवों को अपने कर्मों का हिसाब देने आना होगा, वह देश जहाँ हर उस प्राणी को मोक्ष के लिए आना होगा जो परमात्मा की प्राप्ति की ओर अग्रसर है, वह देश जहाँ मानवता भद्रता, उदारता, वचन की पवित्रता, शांति और सर्वोपरि आत्मशुद्धि तथा आध्यात्मिकता के चरम पर पहुँच चुकी है।”
स्वामी विवेकानंद जिस भारत भावना का वर्णन कर रहे हैं, वह भारत का राजनीतिक इतिहास नहीं है, वह भारत-मूल्यों का इतिहास है। वह भारतीय भौतिकता का नहीं उसकी आध्यात्मिक उत्कृष्टता का इतिहास है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता का इतिहास है
गाँधी ने इस सच्चाई को समझा था। “ईश्वर अल्लाह तेरे नाम सबको सन्मति दे भगवान” उनकी प्रार्थना होती थी। मनुष्य मात्र को जोड़ने की भावना। भारतीयता जोड़ना है। सत्य, अहिंसा, प्रेमभाव जोड़ते हैं; असत्य, हिंसा, घृणाभाव तोड़ते हैं। जुड़ना जीवन है, टूटना मृत्यु! और यह उपलब्धि केवल आध्यात्मिकता से ही हासिल की जा सकती है। भौतिक प्रलोभन तोड़ता है। पहले जोड़ने की भारत भावना का ह्रास हुआ, फिर भारत अपने विश्वगुरु होने के पद से च्युत होता चला गया। गिरते-गिरते ़गुलाम बन गया।
आ़जाद भारत ने आध्यात्मिक उन्नति की अपरिहार्यता को पश्चिमी प्रभाव में भुलाकर भौतिक प्रगति की ओर दौड़ लगानी शुरू कर दी, जिसका नतीजा है चौतरफा भ्रष्टाचार, अनाचार और मूल्यहीनता। राज पाते ही हमारे कई नेताओं ने, शासकों-प्रशासकों और कई धर्मगुरुओं ने आ़जादी की बंदरबाँट शुरू कर दी। बुद्धि का अपराधीकरण हो गया।
गाँधी के बाद अगर किसी राजनीतिज्ञ ने भारत-भावना को समझा था तो वह डॉ. राममनोहर लोहिया थे। वह प्राचीन भारतज्ञान और भारतीय मनीषा के आधुनिक मनीषी थे। राम, कृष्ण और शिव के बारे में उनके एक लेख के अनुसार “हो सकता है कि मिथकीय चरित्र राम, कृष्ण और शिव ऐतिहासिक चरित्र रहे हों… वे उन लोगों के सपनों, संघर्षों और दुःखों के प्रतीक रहे हैं जिन्होंने उनकी संकल्पना की… इतिहास के चरित्रों को तो कुछ ही लोग जानते हैं मगर मिथिकीय चरित्र जनजन की भावना के अभिन्न अंग बन गये हैं।” अपनी इस समझ को व्यावहारिक रूप देने के लिए उन्होंने अयोध्या के निकटवर्ती पैâ़जाबाद (अपने गृहनगर) में प्रथम `रामायण मेला’ का आयोजन किया, जो कड़ी आज तक चल रही है।
संक्षेप में भारत भावना मनुष्य बनाने की भावना है। मनुष्य को वस्तु अथवा मशीन बनाने की भावना नहीं है। मनुष्यता की भावना सबको सुखी देखने की भावना है। अगर हमारे कर्णधारों ने इस दिशा में काम किया होता तो कुछ असंभव नहीं था कि हम फिर से आसेतु हिमालय एक महा-देश होते जो कभी हिमवर्ष तो कभी अजनाभवर्ष तो कभी भारतवर्ष कहलाता था। हमारे इस उपमहाद्वीप की यह सुप्त भारत-भावना जाग्रत हो सकती है। ़जरूरत है इस दिशा में काम करने की। कौन करेगा यह काम? इतिहास साक्षी है कि मनुष्य बनाने का काम शासक ने कभी नहीं किया है। यह कार्य मनीषियों ने किया है।
माना कि भारत-भावना इस देश के करोड़ों लोगों के मन में सोयी हुई ऊर्जा की तरह मौजूद है, लेकिन जब तक सुप्त ऊर्जा को जाग्रत न किया जाये तब तक वह किस काम की। बात इतनी सी नहीं है कि उसे जगाया नहीं जा रहा है। असल में उसे तो और और गहरे द़फनाया जा रहा है। भौतिक विकास के लिए हम न सि़र्पâनैतिक मूल्यों की बलि दे रहे हैं, बल्कि हम अपने रहन-सहन, खानपान और पहनावे को भी छोड़ रहे हैं। हम अपनी मातृभाषा-बोलियों और राष्ट्रभाषा की जगह विदेशी भाषा अंगरे़जी को अपने कामकाज और बोलचाल का माध्यम बनाने में शान समझ रहे हैं। हमारा समूचा सिस्टम अंगरे़जीपरस्त हो गया है। हमें विदेशी अंगरे़जी की दासता मंज़ूर है, मगर स्वदेशी हिंदी की दोस्ती मंज़ूर नहीं। हम राष्ट्र होते हुए भी हमारी कोई राष्ट्रभाषा नहीं! भारत पर अंगरे़जी ज़बान को थोपने का श्रेय जिस मैकाले को जाता है उसका कहना था कि “अगर किसी राष्ट्र को, उसकी संस्कृति को मिटाना हो तो पहले उसकी भाषा को मिटाना ज़रूरी है।” मैकाले और ब्रिटिश चले गये मगर मैकाले की `भारतीय संस्कृति मिटाओ’ नीति बरकरार है!
स्वामी विवेकानंद ने बाहर से आनेवाली अच्छाइयों को जैसे तकनीकी को अंगीकार करने को कहा। उनके व्यक्तिवादी जीवन-मूल्यों को अपनाने को नहीं। पश्चिम या जापान जैसे पूरब के देशों से उनकी कार्यसंस्कृति और सामाजिक अनुशासन को अपनाना अच्छी बात है। मगर हम विदेशों की अपसंस्कृति और पूâहड़पन को अपनाते जा रहे हैं और आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति मानवता की संस्कृति को छोड़ते चले जा रहे हैं। सोचना होगा कि ़खतना करने से मुसलमान, चोटी रख लेने से हिंदू और क्रॉस लटका लेने से ईसाई आदमी से कोई और जीव नहीं बन जाता है, तो धर्म का अर्थ मनुष्य को बाँटने का वैâसे हो सकता है! जबकि सृष्टि के नियम और न कोई धर्म आदमी को तोड़ने का हिमायती है तो फिर हम अपने विभिन्न धर्मों को मानव जाति के विखंडन का हथियार क्यों बनाते हैं।
अगर हम सर्वधर्म समभाव, मानव ही नहीं सभी जीवजंतुओं के प्रति समभाव, प्रकृति के प्रति समभाव की भारत भावना से विमुख होते रहेंगे तो भारत विश्व गुरु तो कभी नहीं बनेगा। विश्व का निकृष्टतम राष्ट्र ज़रूर हो जायेगा। हमें खुश़फहमी में नहीं रहना चाहिये। ़गलत़फहमी से ज़्यादा ख़तरनाक खुश़फहमी होती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और बरसों तक हिन्दी ब्लिटज़ के संपादक रहे हैं)
संपर्क
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दूसरी हसनाबाद रोड,
सांताक्रु़ज (पश्चिम),
मुंबई ४०० ०५४.
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