रामकथा पर आधारित वाल्मीकि के ग्रंथ का नाम ‘रामायण’ देने का कारण क्या है, इसपर विचार-विमर्श करना चाहिए। अयन के दो अर्थ हैं – ‘घर’ भी है और ‘चलना’ भी है। राम के घर के बारे में तुलसीदासजी ने एक प्रसंग में कहा है कि वन में पहुँचने पर चित्रकूट वनमाला के द्वार पर वाल्मीकि मिले। उनसे राम ने पूछा कि मैं कहाँ घर बनाऊँ? वाल्मीकि ने उत्तर दिया कि कोई जगह तो नहीं है जहाँ तुम नहीं हो –
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावाँ ठाउँ।।
फिर भी, मेरी दृष्टि में एक ऐसी जगह है जो सर्वथा तुम्हारा घर होने के योग्य है –
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलागे।।
जहाँ कान हमेशा अतृप्त रहते हों, समुद्र की तरह अपूर, कोटिश: कथा-गंगाएँ आएँ और समुद्र जैसा-का-वैसा आकांक्षी बना रहे। इस रमणीय घर में एक विशेषता और होनी चाहिए। इसमें दूसरे के लिए किसी जगह की गुंजाइश न हो।
जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।
जितनी भी वंचनाएँ होती हैं आदमी की- जाति-पाँत, धन-धर्म, बड़प्पन- सबको तजनेवाला मन, तुममें लवलीन रहनेवाला मन तुम्हारा निवास हो।
इसके बाद वाल्मीकि ने चित्रकूट का एक रमणीय स्थल बताया है, जहाँ एक छोटी सी नदी है (वाल्मीकि रामायण मैं तो उसका नाम ‘माल्यवती’ है, तुलसीदास ने उसका नाम ‘मंदाकिनी’ दिया है)। उसी के किनारे पर्णशाला तैयार हुई। उस पर्णशाला की वास्तु-रचना राम, लक्ष्मण, सीता ने अपने श्रम से की। राम ने उसके लिए वास्तु-यज्ञ किया और तब उसमें प्रविष्ट हुए। पर वस्तुत: उनका घर रामकथा से अतृप्त मन ही बना रहा। वह अतृप्त मन भी असंख्य सहज मनोभावों के बीच में स्वावलंबन पर कहीं टिकता है। इस प्रकार सारा वन ही, वन जैसा सहज हृदय ही, भाँति-भाँति के जीवन का आश्रय मन ही राम का अयन है और हम कह सकते हैं कि वन बना मन या मन बना वन ही राम का अयन है। रामायण का मर्म समझने के लिए इस घर का मर्म समझना पहली शर्त है।
अयन का दूसरा अर्थ ‘गति’ है, चलना है, एक निश्चित उद्देश्य से चलना है। वन में आकर राम पर्णशाला तक अपने को सीमित नहीं रखते, वे वनवासियों तक जाते हैं, उनका सुख-दुख बूझते हैं, वन में तपस्या करनेवाले ऋषियों-मुनियों के पास जाते हैं और उनकी रक्षा का भार भी लेते हैं।
पिता द्वारा दिए गए कैकेयी के वचन का पालन तो व्याज था, राम को वन ही में अपना काम करना था। उनका काम है क्या, सिवाय इसके कि संतृप्त लोगों को आश्वासन देना, आश्वस्त लोगों को सविनय प्रीति का उपहार देना। और इस क्रम में वे एक से दूसरे वन को लाँघते-लाँघते दंडक वन में पहुँचते हैं, जहाँ राक्षसों द्वारा खाए गए और आग में पकाए गए ऋषियों की हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं। देखते ही राम का आक्रोश संकल्प बन जाता है कि मैं पृथ्वी को राक्षसविहीन कर दूँगा।
वे वन से वन नापते हुए नगर में कभी प्रवेश नहीं करते – न किष्किंधा में प्रवेश करते हैं, न लंका में, वनवासी ही बने रहते हैं। वन से ही युद्ध का संचालन करते हैं, वन की राजनीति का संचालन करते हैं। और जब अयोध्या लौटते हैं तो कुछ ही वर्षों में अयोध्या वन से भी अधिक बनैली हो जाती है तथा एक ऐसा लांछन लगाती हैं कि राम तो अयोध्या में रहते हैं, लेकिन राम का मन, राम के मन और हृदय की अधिष्ठात्री सीता वन के आश्रय में चली जाती हैं।
इस प्रकार अयन की पूरी यात्रा वन से वन की यात्रा है, एक तप से दूसरे तप की यात्रा है। एक तप वन में होता है और अंतिम वय का तप नगर में, एक वन बने नगर में होता है। इस प्रकार राम का अयन घर होते हुए भी वन है, गति है। ‘रामायण’ ग्रंथ की भी रचना वन में हैं, ग्रंथ का पहला पाठ भी वन में हैं, ग्रंथ की फलश्रुति भी यही है कि यह कथा प्रासादों में नहीं, लोक में बिहरेगी, लोकचित्त में बिहरेगी।
इस कथा के और अंश जितने भी परिवर्तित रूप में मिलते हों, पर राम का वन में निर्वासन, सीता का अयोध्या लौटने के बाद निष्कासन इस कथा के प्रत्येक संस्करण में हैं। वन को जाती हुई राम-लक्ष्मण-सीता की छवि आज भी लोकचित्त में अंकित हैं। आज भी अनेक क्षेत्रों में, तीर्थयात्रा में इसी वनयात्रा के गीत गाए जाते हैं। प्रत्येक तीर्थयात्रा जैसे राम के पीछे-पीछे चलनेवाले अकिंचनों की ऐसे विजन की यात्रा है, जिसमें आदमी अपरिचित जन में भी स्वजन की पहचान पाता है और विजन सही अर्थों में सजन होता है। इसीलिए मैं कहता हूँ, राम का घर वन है।
राम का निरंतर चलते रहना ही उनका जीवन है और जन-जन के पवित्र होने की यात्रा है, पवित्रता की गतिशीलता है। वन घर है तो वन संचरण भी है, जिसमें रास्ते के काँटे, रास्ते के कुश राम और सीता के पैरों में चुभकर धन्य हो जाते हैं। उस स्पर्श से – निराला से शब्द उधार लें तो -उपल ‘उत्पल’ बन जाते हैं, जो कंटक चुभते हैं वे जागरण बन जाते हैं। वन में संपादित यज्ञ के प्रसाद से राम गर्भ में आते हैं, वन में स्थित विश्वामित्र के आश्रम में राम सांगोपांग वेद की शिक्षा पाते हैं, विवाह का मुदमंगल अधिक दिनों तक नहीं रहता, राज्यभिषेक की चर्चा के अगले दिन ही वन-गमन होता है।
राम पद छोड़कर वनगामी होते हैं, राजकुमार से वापस होते हैं ऐसे स्थान में, जहाँ नगर का प्रपंच नहीं है, जहाँ अर्थ की लिप्सा नहीं हैं, जहाँ प्रकृति के मुक्तदान से संतोष हैं, जहाँ छल नहीं है, सहज-सीधा व्यवहार है। वहाँ बीहड़ वन है, जंगली जानवर हैं; पर विचित्र प्रकार का अभय है, कोई किसी से डरता नहीं है, अपने रास्ते जाता है। इसीलिए कोई घेरा नहीं है, किसी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है। राम की वनयात्रा एक सीधे-सादे आदमी की अपने पिता के सच की रक्षा में स्वयं ओढ़ी हुई यात्रा है। यह यात्रा किसी दुख के भोग के लिए नहीं हैं, एक ऐसे भोग के लिए है जिसमें सुख की प्राप्ति भी नहीं है, सुख एक-दूसरे का भाव-अभाव बाँटने में है और दुख देश और व्यापक देश-परिवार छोड़ने का, यदि है भी तो उसकी पूर्ति व्यापक देश और व्यापक परिवार बनाने से वन में होती है।
वाल्मीकि ने वन का वर्णन बड़े रस के साथ किया है। वन में मीठी गंध भिनी हुई है –
त्वया सह निवत्स्यामि वनेषु मधुगंधिषु।
वाल्मीकि की वन की पहचान तरह-तरह के पखेरूओं की आवाज़ों से है, तरह-तरह के वृक्षों की छाया से शीतल तरह-तरह के नदी-झरनों के मीठे सुस्वादु जल से है और इन सबकी समग्र पहचान पत्तों के दोनों में वनवासियों द्वारा लाई गई वन-उपज की भेंट से है। राम अयोध्या के राज के निर्वासित हैं, पर विस्तृत वन-भाग के वन के महीप हैं।
वन के उपांत भाग में या वन के बीच-बीच में जहाँ कहीं छोटे-छोटे टुकड़ों में खेती होती हैं, उनका दृश्य भी वाल्मीकि के रामायण में सज-धज से अंकित है। वाल्मीकि की वन की पहचान हेमंत की मलाईनुमा चाँदनी से है, उस चाँदनी में झरती हुई ओस से हैं, सुबह होते ही उस ओस के मोती बनने से हैं, कुहरे के कारण निश्वास के अदराए दर्पण सरीखे चंद्रमा के चेहरे से है -जिस दर्पण में रात अपना मुँह निहारना चाहती है, निहार नहीं पाती हैं, जुते खेतों में छोड़ी गई शरद् के ताप में झँवाई हुई हराई के धीरे-धीरे ओस से भीगकर स्नेह पिन्हाने से हैं, धान की भरी-पूरी बालियों में खजूर के फूल की दिखती हुई झाँई से हैं, प्यासे हाथी के द्वारा पुष्करिणी के जल को छूते ही तुरंत सूँड़ सिकोड़ लेने से है, उस सूर्य से है जो जैसे-तैसे घने कुहरे के बीच अपनी किरणों के सहारे उगता है तो चंद्रमा की तरह दिखता है और पूर्वाह्न में धूप तो ऐसी लगती है जैसे बेजान हो, मध्याह्न में मीठी लगती है और कुछ ललछाँही, पीली-पीली सी, पृथ्वी पर फैली हुई – अपराह्न में वह एक अलग आभा देती है।
ओस और कुहरे से ढके हुए जंगल फूल-पत्तियों से विकसित होकर सोये से लगते हैं। नदियों की पहचान सारस की बीच-बीच में उठती हुई करुण ध्वनि और कुहरे के घने आवरण से ढके हुए जल तथा बर्फ से भी अधिक ठंडे बलुए तटों से होती है। सबसे अधिक हेमंती वनवास की पहचान राम की इसी चिंता से होती है, इस ठंड में भरत कैसे नंदिग्राम में रह रहे हैं। राज्य का सब सुख-भोग छोड़कर वे तपस्या करते हुए, एक बार मुठ्ठी भर कुछ खाकर ठंडी-ठंडी जमीन पर सो रहे होंगे। इस वनवास में राम को अपनी चिंता नहीं होती, अपने छोटे भाई भरत की चिंता होती है। यही वन की संस्कृति है और इस संस्कृति का काव्य है – ‘रामायण’।
इस वन-संस्कृति की सहजता को नष्ट करने के लिए रावण आता है। रावण के पहले शूर्पणखा आई हैं; उसके भी पहले जयंत आया। राम ने उन सबका समुचित सम्मान किया। रावण जब सीता को हर रहा था तो सीता ने वन का ही आवाहन किया, ‘हे जनस्थान, हे कर्णिकर, हे गोदावरी, हे वन देवताओं, हे इस वन में रहनेवाले विविध पशु-पक्षी! राम से कहो कि रावण सीता का हरण करके जा रहा है।’
इसी वन-संस्कृति का एक दूर दृष्टिवाला प्राणी है जटायु, जो रावण को चुनौती देता है, रावण को राजधर्म का उपदेश देता है कि राजा ही धर्म का पालक होता है। प्रजा शुभ की ओर उन्मुख है या अशुभ की ओर, इसका दायित्व राजा का होता है। राजा ही धर्म है, राजा ही धर्म-कर्म की धरोहर है। उस धरोहर के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं। विलाप करती हुई सीता आकाश मार्ग से जनस्थान के उस पार जा रही हैं और उनके चमकते हुए स्वर्ण आभूषण टूट-टूटकर बजते हुए भूमि पर गिरते हैं।
हार टूटकर गिरता है तो जैसे गंगा ही आकाश से उतर रही हों। उस समय वृक्ष कह रहे हैं कि डरो मत, डरो मत। पुष्करणियाँ सीता के समदुखभाव में खिन्न हो रही हैं, उनके कमल नष्ट हो रहे हैं, भीतर रहनेवाले जलचर त्रस्त हो रहे हैं। सारे वन के पशु-पक्षी सीता के पीछे-पीछे दौड़ते हैं, पर्वत जल-प्रपातों के व्याज से बाँह ऊँची करके चिल्ला रहे हैं, सूर्य मंद पड़ रहे हैं, सोचते हैं – धर्म नहीं रहा, सत्य कहाँ से रहेगा। समस्त प्राणी शोक मना रहे हैं। मृग के शावक ऊपर उचक-उचककर डरी हुई आँखों से देखते हैं, काँप रहे हैं और रो रहे हैं। वनदेवियाँ काँप उठी हैं, तुम्हारी रक्षा में रही सीता हरी जा रही हैं।
इस प्रकार सीता के साथ संपूर्ण वन है, सीता का जैसे यह दूसरा मायका हो। वन जैसे इस बेटी के साथ घटी इस दारुण घटना से विक्षुब्ध हो उठा हो। वन-संस्कृति का दूसरा पक्ष है कि इस प्रकार की असहाय स्थिति में भी सीता की तेजस्विता अप्रतिहत रहती है और सीता रावण को ऐसे फटकार बताती है जैसे कि वह स्वतंत्र शासन करनेवाली हों।
सीता के भीतर यह सहज अभयभाव वन के स्वभाव की देन है। इसी कारण उनमें पराजय का भाव नहीं; उनके भीतर कुछ है जो अजेय बना रहता है। बादलों के बीच बिजली सी छटपटाती सीता तमककर कहती हैं, ‘नीच, तुम्हें लाज नहीं आती ऐसा गर्हित काम करते हुए। मैं अकेली कुटी में थी, चोर की तरह मेरा हरण किया और भागे जा रहे हों। छल करके मेरे पति को मृग के माध्यम से दूर कर दिया, इतने कायर तुम हो कि तुम्हें सामने लड़ने का साहस नहीं! यह तुम्हारा परम पराक्रम हैं, नीच राक्षस, कि अपना नाम उद्घोषित करके तुमने युद्ध में मुझे नहीं जीता है! धिक्कार है तुम्हारी वीरता को! धिक्कार है तुम्हारे सत्व को, तुम्हारे चरित्र को! तुम एक घड़ी रुक जाओ, ऐसे भागो मत तो तुम जीवित नहीं लौटोगे। अगर मेरे पति और मेरे देवर के दृष्टि-पथ में तुम आ जाओ तो अपनी सेना के साथ भी तुम बचकर नहीं जा सकते। उनके बाण का स्पर्श तुम सह नहीं पाओगे; जैसे पक्षी वन में लगी आग को सह नहीं पाता!’
वन में पली हुई वनजा सीता का दुर्धर्ष तेज ही था कि सीता रावण के ऐश्वर्य-प्रलोभ में नहीं आईं। यही कहती रहीं कि ‘तुम्हारे दिन अब लद गए। तुम्हारा सत्व क्षीण हो गया है। तुम्हारी सारी श्री चली गई। लंका विधवा होने वाली है।’
सीता के इस प्रकार हर लिये जाने पर राम दुख से भर जाते हैं; सूनी कुटिया देख, शोक-विह्वल हो वन के एक-एक वृक्ष से पूछना शुरू करते हैं – ‘तुम जानते हो, सीता कहाँ हैं। वह पीत कौशेय धारण करनेवाली हैं, जिसमें तुम्हारे फूलों की आभा झलकती है। स्निग्ध पल्लवों की तरह कोमल हैं वे। तुम जरूर जानते होगे कि सीता किस तरफ गई हैं।
हे अर्जुन, तुम सीता की तरह से गोरे हो, तुम जरूर जानते होगे उनके बारे में कि वे जीवित हैं या नहीं। यह कुसुम का वृक्ष निश्चय ही सीता के बारे में जानता होगा। इतने भौंरे गूँज रहे हैं – ऐसा यह तिलक का वृक्ष तिलक को चाव से सिर पर धारण करनेवाली सीता के बारे में जानता होगा। हे अशोक वृक्ष, प्रिया के दर्श कराके मुझे भी अशोक बनाओ। हे तालवृक्ष, यदि तुम्हारी मुझपर कृपा है तो तुम्हारे फल से सादृश्य रखनेवाली सीता कहाँ हैं? तुम ऊँचे हो, तुमने देखा होगा। हे जामुन, यदि तुम जानते हो सुनहरी कांतिवाली मेरी प्रिया को कि कहाँ गई तो निर्भय बता दो। हे कनेर, फूले-फूले से दिखते हो, कनेर के फूल को प्यार करनेवाली सीता को, बोलो, तुमने देखा है?’ इसी प्रकार राम ने आम, साल, कटहल और पुरइया जैसे वृक्षों के पास जा-जाकर पूछा; मौलश्री, चंपा, चंदन, केवड़े के पास जा-जाकर पूछा। राम जैसे पागल हो गए हों। सीता कहाँ हैं सीता हैं कहाँ? पेड़ नहीं कुछ उत्तर देते तो वन पशुओं से पूछना शुरू किया। मृग से पूछा, ‘तुम्हारे जैसी दृष्टिवाली सीता कहीं मृगियों के साथ खेल तो नहीं रहीं? शार्दूल, दूर तक देखते हो, तुमने यदि देखा है तो भय न करो, धीरे से कान में बता दो।’
कोई उत्तर नहीं देता तो सीता को ही संबोधित करके वे प्रलाप करते हैं और संदेह करने लगते हैं कि कहीं पुष्कर की खोज में पुष्करिणी तो नहीं पहुँच गई। कहीं किसी जंगल में तो नहीं छिप गई। इस प्रकार वनश्री में सीता का अन्वेषण करते हुए राम यह संकेत दे रहे हैं कि सीता वन की आत्मा हैं, वन की संस्कृति हैं। वे वन से बाहर कहाँ जाएँगी। वन से बाहर सीता का भागधेय है ही नहीं।
लंका में रहते हुए भी वन में हैं और अयोध्या में वापस आने पर भी उस वनानुरागिनी सीता का मन नहीं लगता और दोहद की पूर्ति के लिए वन-विहार की अनुमति माँगती हैं। इसी व्याज से लक्ष्मण उन्हें गंगा-तमसा के संगम के पास वाल्मीकि आश्रम के परिसर में छोड़ने जाते हैं। वे ऋषियों की तपस्या का फल थीं, ऋषियों की तपस्या की साधक बनीं। ऋषियों की तपस्या की छाया में उन्होंने बच्चे जने, उनका पालन किया और उस छाँह से दूर अयोध्या बुलाए जाने पर माँ से ही प्रार्थना की कि ‘ हे माधवी देवी, विवर दो कि समा जाऊँ।’
यह भूमि-प्रवेश अयोध्या में हुआ कि लोक -परंपरा के अनुसार वाल्मीकि आश्रम में ही हुआ, कौन जाने; पर सीता की पूरी कहानी तपोवन-परिक्रमा है। वाल्मीकि के मन में राम के राज्य या ऐश्वर्य से तपोवन का यह स्वातंत्र्य अधिक बसा हुआ है। उसके लिए उनके मन में विशेष आदरभाव है। तभी राम पर तो क्रोध कर सकते हैं, लेकिन सीता उनके लिए परम पवित्र हैं, साक्षात तपमूर्ति हैं।
सीता की पवित्रता की प्रतिष्ठा के लिए वे जन्म-जन्मांतर का सुकृत, पुण्य दाँव पर रखने के लिए तैयार हैं। सीता निष्पाप हैं। तपोवन की कन्या को कोई दोष छू नहीं सकता, लग नहीं सकता। उसे पराजित नहीं किया जा सकता। इसी कारण ‘रामायण’ जितना रामचरित है उससे कहीं अधिक ‘सीतायास्चरितं महत्’ है। वन राम का घर हैं, क्यों कि वन ही सीता हैं। ‘रामायण’ का मर्म समझने के लिए वन की इस पृष्ठभूमि के भीतर झाँकने की जरूरत है।
साभार:- अभिव्यक्ति से