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क्या भविष्य है बिहार के हिन्दी अखबारों का

1991 में देश कंगाल हो गया था, इन्हीं राजनेताओं और उनके द्वारा गढ़ी व्यवस्था से। 1991 में उदारीकरण बाजार व्यवस्था का दौर आरंभ हुआ। बाजार व्यवस्था की बुनियादी शर्त है कि बाजार की प्रतिस्पर्द्धा में जो टिकेगा, वही चल पाएगा। अनेक सरकारी उपक्रम, कारखाने बंद हो गए। रांची स्थित एचइसी जैसा कारखाना बंदी के कगार पर है, पिछले तीन वर्षों में लगभग आठ हजार लोग वीआरएस (स्वैच्छिक अवकाश योजना) लेकर गए, फिर भी वह संकट में है। रांची में चार-पांच सरकारी कारखाने हैं। जो 20 से 25 महीने से बंद हैं।

हजारों लोगों को तनख्वाह नहीं मिल रही है। उनके बाल-बच्चों के नाम स्कूलों से कट रहे हैं। कुछ लोग दवा के अभाव में दम तोड़ रहे हैं, पर किसी को सरकार वेतन नहीं दे पा रही, क्यों? क्योंकि जिस सरकारी शैली सब्सिडी, राहत और कामचोरी की संस्कृति से सार्वजनिक कारखाने चल रहे थे, वे बाजार व्यवस्था में टिक नहीं सकते। वे बोझ बन गए और बंद होने के लिए अभिशप्त हैं।

जिस सरकार के मातहत विभिन्न विभागों में काम करने वाले 25-30 माह से बगैर वेतन खर्च रहे हों, विश्वविद्यालय कॉलेजों के प्राध्यापक कई महीनों से बगैर वेतन काम चला रहे हों, पीएफ में पैसे जमा नहीं हो रहे हों, (याद रखिएगा कि कानूनन यह गंभीर अपराध है) वह सरकार या व्यवस्था किस मुंह से घाटे पर चलने वाली इकाइयों को चलते रहने का उपदेश देगी? ऐसी स्थिति में किसी अखबार की आय (विज्ञापन) में लगातार गिरावट हो, कागजों का भाव बेतहाशा बढ़े, बिहार सरकार के विज्ञापन के पैसे न मिलें और वेज बिल बढ़ता जाए, तो वह अखबार बाजार में कैसे और कहां से टिकेगा?

1991 की बाजार व्यवस्था के बाद पूरे देश में और खासतौर से बिहार में सरकारी कारखाने-निगमों की जो हालत होने लगी, उसमें अखबारवालों ने कितनी सीख ली? क्या यह समझा कि सरकार सब्सिडी पर जब कोई कल-कारखाना नहीं चला सकती, तब निजी 20-25 फीसदी सूद पर बाजार से पैसे लेकर घाटे पर अखबार क्यों और किसलिए चलाएंगे? किन विचारों के फैलाव के लिए? अंबानी जैसे बड़े घराने ने जब अपना हिंदी साप्ताहिक 20-25 करोड़ गंवा कर बंद किया, तब कितने लोगों ने बाजार की स्थिति, बदलती दुनिया की तस्वीर और नई उभरती विश्व व्यवस्था की स्थिति समझी?

अगर हिंदी प्रेमी उसी समय यह आहट पाकर इस बाजार में अपनी प्रतिभा, श्रम, क्वालिटी और कुशलता निखारते, तो आज हिंदी अखबारों की यह गति न होती। साल में एक संस्करण पर कई करोड़ घाटा, अब कौन सा समूह उठा पायेगा? हिंदी पत्रकारिता आज भी पुराने सोच से उबर नहीं पायी है। यह सोच क्या था? रामनाथ गोयनका या शांति जैन या रमा जैन या बिड़ला जी घाटा उठा कर भी अखबार निकालते थे, तो उनमें पुराने देशज मूल्य थे।

श्री गोयनका तो अखबारों को घाटे का सौदा ही मानते थे, इस कारण आरंभ से ही बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें बना कर किराए से उस घाटे की भरपाई करते थे। आज की इस भौतिक दुनिया के दर्शन बदल गए हैं। अब इस प्रतिस्पर्धा या बाजार व्यवस्था में घाटा उठा कर कोई काम नहीं हो सकता। यह मामूली सच भी हिंदी की दुनिया समझने के लिए तैयार नहीं है। इस कारण उसे बार-बार झटके लग रहे हैं।

योग्यता-उत्पादकता और क्वालिटी की बदौलत की चीजें बाजार में खड़ा रहेंगी या टिकेंगी। अखबारों के संबंध में भी यही नियम लागू होगा। हिंदी इलाके के सारे दलों के राजनीतिज्ञ अगर इस मामले में आत्ममंधन करें तो वे हिंदी अखबारों और हिंदी समाज की सेवा कर पाएंगे। पिछले कुछ वर्षों से बिहार सरकार के विज्ञापनों का नियमित भुगतान नहीं हो रहा। निगमों-कॉरपोरेशनों के विज्ञापन के पैसे नहीं मिलते।

बड़े अखबारों के करोड़ों रुपए बाकी हैं, तो मामूली अखबारों के कई लाख रुपए सरकार और उसके मातहत विभागों पर विज्ञापन मद में बकाया है। पिछले कई वर्षों से जो व्यवस्था विज्ञापनों के पैसे नहीं चुकाती, वह किस तरह अखबारों के चलते रहने का माहौल बना सकती है? अब वही एक अखबार चलेगा, जिसका प्रसार-क्वालिटी सर्वश्रेष्ठ होगा, यानी जो सचमुच नंबर एक होगा। दूसरे नंबर के अखबारों के दम घुटते रहेंगे। वे कभी भी बुझ सकते हैं।

हां, वे अखबार भी चलेंगे, जो कुछ सौ रुपए पर 14-20 घंटे लोगों से काम कराते हैं, जिनके यहां कागज-रजिस्टर पर 10-20 लोग ही काम करते हैं, जो विज्ञापन बाजार को भरमा कर विज्ञापन कमा सकते हैं। बाकी साफ-सुथरे सरकार द्वारा तय सेवा के अनुसार चलने वाले हिंदी अखबारों के लिए इस बाजार व्यवस्था में कोई गुंजाइश नहीं है। ही चीज दूसरे उद्योगों के लिए भी लागू होगी। इसका स्रोत बाजार व्यवस्था है।

बिहार की आर्थिक-सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था लगातार अखबारों के प्रतिकूल बनती जा रही है। अखबारों की आय का एकमात्र साधन है, विज्ञापन। आज की तारीख में अखबार सिर्फ लागत मूल्य लेने लगें, तो उन्हें आठ पेज के घटिया पेपर पर छपे अखबार के लिए पांच रुपए चुकाने पड़ेंगे? पर यह दाम कम कैसे होता है, विज्ञापन के कारण। बिहार में विज्ञापन की क्या स्थिति है? विज्ञापन, आर्थिक विकास की स्वाभाविक उपज है। (एडवरटिजमेंट्स आर बाइ प्रोडक्ट ऑव इकॉनामिक डेपलमेंट)।

बिहार राज्य में उद्योगविहीनता के कारण विज्ञापन का बाजार लगातार सिकुड़ रहा है। पर अखबारों की संख्या बढ़ रही है। आप इंदौर जाएं या मध्य प्रदेश के किसी दूसरे नगर में और देखें। इंदौर, दूसरी बंबई बन रही है। वहां सात-आठ हिंदी अखबार हैं। दर्जनों साप्ताहिक पाक्षिक-मासिक हैं। सब खुशहाल हैं। मुनाफे में हैं। कुछ तो भारी मुनाफे में चल रहे हैं, क्यों? क्योंकि इंदौर में या मध्य प्रदेश में होनेवाली औद्योगिक गतिविधियों से उन्हें काफी विज्ञापन मिलते हैं। सरकारी विज्ञापनों की परवाह वहां बड़े अखबार नहीं करते। जयपुर से प्रकाशित एक हिंदी अखबार की प्रतिदिन की विज्ञापन आय 15 लाख रुपए है। दूसरी ओर बिहार के सबसे बड़े अखबार की क्या स्थिति है?

कलकत्ता जाकर देखें। जबसे माकपा सरकार ने बंगाल के आर्थिक कायाकल्प का नारा दिया है, औद्योगिक गतिविधियां बढ़ी हैं, तबसे अखबारों में विज्ञापन की मात्रा काफी बढ़ी है। जाहिर है, जिस राज्य में विज्ञापन नहीं होंगे, वहां के बेहतर अखबार, जो अच्छी सेवा शर्तों के साथ चल रहे हैं, नहीं चल पाएंगे। क्योंकि घाटे पर बरसों-बरसों चलनेवाले उद्योगों का जमाना अब अतीत बनता जाएगा।

जब यह स्थिति थी, तब क्या पत्रकार समझ नहीं रहे थे कि बिहार जिस रास्ते पर जा रहा है, उसके स्वाभाविक परिणाम क्या होंगे? ऐसे माहौल में संस्थाओं, उद्योगों और अखबारों का भविष्य क्या है? सरकार कल-कारखानों-निगमों की क्या स्थिति होगी? क्या ये सवाल अखबार में मुद्दा बन कर उभरे और उठे? अखबारवालों ने राजनीतिज्ञों-सरकार को बाध्य किया कि अपनी राजनीतिक या दांव-पेंच जहां करना हो, करें, पर राज्य के एजेंडा का मुख्य विषय आर्थिक विकास, कृषि विभाग, भूमि सुधार और औद्योगिकीकरण हो।

राज्य में अपराधियों के हाथ जा चुकी ट्रेड यूनियनों की राजनीति साफ-सुथरी हो और औद्योगिकीकररण की रफ्तार तेज हो। बिहार सारे प्राकृतिक संपदा-खनिज के बावजूद क्यों पिछ़ड रहा है? और गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, बंगाल वगैरह कैसे आगे जा रहे हैं? अगर राजनीति के केंद्र बिंदु में अखबारों ने यह मुद्दा ला दिया होता, तो आज बिहार में अखबार बंद होने की स्थिति नहीं आती। और दूसरे उद्योग भी बंद नहीं होते। बाहरी पूंजी-उद्योग आते, तो रोजगार बढ़ता। कृषि क्षेत्र में विकास होता, तो गांवों की गरीबी जाती। आपने सुना है कि हाल के वर्षों में महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र, केरल वगैरह में कोई बड़ा अखबार बंद हुआ है?

(साभार: प्रभात खबर से )