म्यांमार की सेना का दावा है कि 8 नवंबर को देश में हुए चुनाव में धोखाधड़ी की गई. सेना का ये भी कहना है कि उसने ख़ुद चुनाव में लाखों गड़बड़ियों का पता लगाया है, जिससे ये संकेत मिलता है कि देश के तमाम क्षेत्रों में मतदाता सूची में फ़र्ज़ीवाड़ा किया गया है.
म्यांमार में जब नई चुनी गई संसद के सदस्यों की बैठक होने वाली थी, उसी समय उसकी सड़कों पर सेना की गाड़ियों ने क़ब्ज़ा जमा लिया. न्यूज़ चैनलों का प्रसारण बंद कर दिया गया. इंटरनेट सेवा रोक दी गई और बैंक व बाज़ारों को बंद कर दिया गया. इसके कुछ देर बाद, सेना के मालिकाना हक़ वाले टीवी चैनल म्यावैडी पर एक वीडियो प्रसारित किया गया. इस वीडियो में ऐलान किया गया कि देश में आपातकाल लागू कर दिया गया है और सत्ता की कमान सेनाओं के कमांडर इन चीफ़, सीनियर जनरल मिन ऑन्ग ह्लाईयिंग को सौंप दी गई है. हालांकि, म्यांमार की सेना के ऐसा क़दम उठाने की आशंका कई दिनों से जताई जा रही थी; लेकिन, मौजूदा हालात के कारण म्यांमार की जनता और दुनिया भर के कई लोग चिंतित हो गए हैं.
मौजूदा बयानों के अनुसार, म्यांमार में 2008 के संविधान के अनुच्छेद 417 के अनुसार देश भर में एक वर्ष के लिए आपातकाल लगाया गया है. संविधान के अनुच्छेद 417 के अंतर्गत, देश के सभी विधायी, प्रशासनिक और न्यायिक अधिकार सेना के कमांडर इन चीफ के हवाले कर दिए गए हैं. इसके अलावा नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) के नेताओं को अगले आदेश तक नज़रबंद कर दिया गया है.
संविधान के अनुच्छेद 417 के अंतर्गत, देश के सभी विधायी, प्रशासनिक और न्यायिक अधिकार सेना के कमांडर इन चीफ के हवाले कर दिए गए हैं. इसके अलावा नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (NLD) के नेताओं को अगले आदेश तक नज़रबंद कर दिया गया है.
साफ़ है कि म्यांमार की सेना ने ये क़दम इसलिए उठाया क्योंकि देश का चुनाव आयोग (UEC) ने मतदाता सूची में गड़बड़ियों की शिकायतें दूर करने में असफल रहा. म्यांमार की सेना का दावा है कि 8 नवंबर को देश में हुए चुनाव में धोखाधड़ी की गई. सेना का ये भी कहना है कि उसने ख़ुद चुनाव में लाखों गड़बड़ियों का पता लगाया है, जिससे ये संकेत मिलता है कि देश के तमाम क्षेत्रों में मतदाता सूची में फ़र्ज़ीवाड़ा किया गया है. देश की सरकार, सेना द्वारा चुनाव में गड़बड़ी की शिकायतें दूर करने में नाकाम रही और ऐसे में जब NLD ने देश में नई सरकार बनाने और संसद की बैठक बुलाने की कोशिश की गई, तो इसे संविधान की धारा 40 (C) और धारा 417 के तहत सत्ता पर ज़बरन क़ब्ज़ा करने की कोशिश के तौर पर देखा गया.
सेना द्वारा ये क़दम उठाने के पीछे म्यांमार के उस संविधान की बहुत बड़ी भूमिका है, जिसे तत्कालीन सैन्य सरकार ने वर्ष 2008 में तैयार किया था. संविधान के मुताबिक़, म्यांमार की सेना के कमांडर इन चीफ देश के सर्वोच्च सैन्य पदाधिकारी हैं. यहां तक कि उन्हें राष्ट्रपति से भी ऊपर का दर्ज़ा हासिल है. दिलचस्प बात ये है कि संविधान के तहत किसी आपात स्थिति या घटना की सूरत में सेना के प्रमुख को ‘ये संप्रभु अधिकार है कि वो देश की सत्ता को अपने हाथ में ले ले.’ इस संवैधानिक व्यवस्था का अर्थ ये निकाला गया है कि जब भी सेना प्रमुख़ को ये लगता है कि देश की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार अपना काम सही तरीक़े से नहीं कर रही है, तो वो इस अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है. संविधान की इन वैधानिक व्यवस्थाओं ने म्यांमार की सेना को बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के डर के, असीमित अधिकार दे दिए हैं. इन्हीं अधिकारों की मदद से तत्माडॉव ने कई तख़्तापलट के बावजूद ख़ुद को क़ानूनी कार्रवाइयों से बचाया है. इनमें ऑन्ग सॉन सू की को घर में नज़रबंद करने और 1990 के चुनाव को सैन्य सरकार द्वारा ख़ारिज कर देने जैसे क़दम शामिल हैं.
सेना के वर्चस्व वाला शासन
म्यांमार के मौजूदा हालात ने लोगों और अन्य अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को बड़ी मुश्किल और भय में डाल दिया है. पहले हुए तख़्तापलट की घटनाओं में तत्माडॉव ने न्यायपालिका से लेकर शिक्षा व्यवस्था तक में ऐसे संस्थानों को तहस नहस कर डाला है, जो उसकी विचारधारा का समर्थन नहीं करते थे. अगर हम म्यांमार में मानवाधिकार के हालात देखें, तो ये दुनिया के तमाम देशों में सबसे ख़राब है. बलात्कार को हथियार की तरह इस्तेमाल करने और बड़ी संख्य़ा में बच्चों को सैनिक के रूप में भर्ती करने के दस्तावेज़ी सबूत हैं. उदाहरण के लिए, रोहिंग्या के जैसे बुरे हालात हैं, वो दुनिया अब भी देख ही रही है.
संविधान की इन वैधानिक व्यवस्थाओं ने म्यांमार की सेना को बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के डर के, असीमित अधिकार दे दिए हैं. इन्हीं अधिकारों की मदद से तत्माडॉव ने कई तख़्तापलट के बावजूद ख़ुद को क़ानूनी कार्रवाइयों से बचाया है.
इसके अलावा, सेना के शासन के कुछ दशकों में ही म्यांमार बाक़ी दुनिया से कट सा गया है. सनक की हद तक राष्ट्रीय संप्रभुता पर ज़ोर देने और अंतरराष्ट्रीय प्रभावों से ख़ुद को पूरी तरह से अलग-थलग रखने के कारण, म्यांमार की विदेश नीति आत्म निर्भरता पर केंद्रित है. इसी वजह से देश में अंतरराष्ट्रीय मदद की ज़रूरत और समझ की भारी कमी देखी जाती है. अब मौजूदा हालात में हम म्यांमार की सेना को दोबारा वैसी प्रवृत्ति को दोहराते देखेंगे या नहीं, ये देखने वाली बात है.
हम म्यांमार में सेना द्वारा तख़्ता पलट करने को लेकर बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं आते देख रहे हैं. भारत, चीन और जापान जैसे देशों ने म्यांमार के हालात पर गंभीर चिंताएं तो जताई हैं. लेकिन, उन्होंने सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए दोनों ही पक्षों को आपस में संवाद करके विवाद के शांतिपूर्ण तरीक़े से समाधान की अपील की है. बहुपक्षीय संगठनों जैसे कि संयुक्त राष्ट्र और आसियान (ASEAN) ने भी इस मसले पर बातचीत करने की मांग उठाई है. वहीं दूसरी तरफ़ पश्चिमी देशों और ख़ास तौर से जो बाइडेन प्रशासन ने सेना द्वारा सरकार के तख़्तापलट की कड़ी आलोचना की है. अमेरिका ने तो तख़्तापलट करने वालों पर प्रतिबंध लगाने की धमकी भी दी है. अब ऐसे प्रयासों से म्यांमार की सेना के बर्ताव में कोई बदलाव आएगा या नहीं, ये देखने वाली बात होगी.
सेना के शासन के कुछ दशकों में ही म्यांमार बाक़ी दुनिया से कट सा गया है. सनक की हद तक राष्ट्रीय संप्रभुता पर ज़ोर देने और अंतरराष्ट्रीय प्रभावों से ख़ुद को पूरी तरह से अलग-थलग रखने के कारण, म्यांमार की विदेश नीति आत्म निर्भरता पर केंद्रित है.
हालांकि, सबसे ज़्यादा उम्मीदें तो म्यांमार के उन नागरिकों से है जिन्होंने नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी को वोट दिया था. ज़रूरी ये है कि म्यांमार की आम जनता और ख़ास तौर से इसके युवा, थाईलैंड की ही तरह इस चुनौती के ख़िलाफ़ एकजुट हों और बिना किसी डर के आवाज़ बुलंद करें. लोकतंत्र के फलने फूलने, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकास और लोकतांत्रिक संस्कृति को मज़बूत करने के लिए जनता की ऐसी भागीदारी ज़रूरी है. हालांकि, म्यांमार में सेना का राजनीतिक प्रभुत्व न सिर्फ़ बना हुआ है, बल्कि ये लगातार और मज़ूबत होता जा रहा है. फिर भी ये देखना ज़रूरी है कि क्या सेना और आम नागरिकों द्वारा चुनी गई सरकार के बीच कोई संवाद हो रहा है या नहीं. या फिर म्यांमार एक बार फिर से अपने अंधे युग की ओर लौटने वाला है.
साभार https://www.orfonline.org/ से