Wednesday, November 13, 2024
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चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को-अदम गोंडवी

अदम गोंडवी देसी मिजाज के शायर थे और शान से देहाती अंदाज़ में ही जीते थे। वे किसी एक आम गाँव वाले की तरह धोती कुरता बंडी और गले में पंछा पहनते थे। मंच पर जब अपनी शायरी सुनाने आते तो भी उनका पहनावा यही रहता था। उनका मूल नाम रामनाथ सिंह था, उनका जन्म 22 अक्तूबर 1947, आटा ग्राम, परसपुर,गोंडा (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनकी दो पुस्तकें धरती की सतह पर, समय से मुठभेड़ प्रकाशित हुई है। वर्ष 1998 में उन्हें मध्य प्रदेश सरकार ने उन्हें दुष्यंत कुमार पुरस्कार से सम्मानित किया था उनका निधन 18 दिसंबर 2011, लखनऊ में हुआ।

उनकी शायरी इतिहास, राजनीति, सांप्रदायिकता संकीर्णता, धर्मांधता और मीडिया की फूहड़ता पर तो चोट करती ही है, गाँव की उस मिट्टी और संस्कृति के साथ ही गाँव के आम आदमी की उस लाचारी का भी एहसास कराती है जो शहरीकरण के दौर में अपने वजूद को बचाने का प्रयास कर रहा है। उनके ये शेर बंदूक से निकली किसी गोली की तरह या तोप के गोले की तरह हमें छलनी कर हमारी अंतरआत्मा को झकझोर देते हैं।
चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें,
चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है,
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है

टी. वी. से अख़बार तक ग़र सेक्स की बौछार हो,
फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो।
बह गए कितने सिकन्दर वक़्त के सैलाब में,
अक़्ल इस कच्चे घड़े से कैसे दरिया पार हो।
सभ्यता ने मौत से डर कर उठाए हैं क़दम,
ताज की कारीगरी या चीन की दीवार हो।
मेरी ख़ुद्दारी ने अपना सर झुकाया दो जगह,
वो कोई मज़लूम हो या साहिबे किरदार हो।
एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें,
झोपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो।

काजू भुने पलेट में विस्की गिलास में,
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत,
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।
आजादी का वो जश्न मनाएँ तो किस तरह,
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें,
संसद बदल गई है यहाँ की नखास में।
जनता के पास एक ही चारा है बगावत,
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।
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महज तनख्वाह से निबटेंगे क्या नखरे लुगाई के,
हजारों रस्ते है सिन्हा साहब की कमाई के।
मिसेज सिन्हा के हाथो में जो बेमौसम खनकते है,
पिछली बाढ़ के तोहफे है ये कंगन कलाई के।

बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को,
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को ।
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए,
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरख़्वान को ।
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून,
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को ।
पार कर पाएगी ये कहना मुकम्मल भूल है,
इस अहद की सभ्यता नफ़रत के रेगिस्तान को।

गरम रोटी की महक पागल बना देती मुझे,
पारलौकिक प्यार का मधुमास ले कर क्या करें

वह सिपाही थे न सौदागर थे न मजदूर थे,
दरअसल मुंशी जी अपने दौर के मंसूर थे।
अपने अफसानों में औसत आदमी को दी जगह,
जब अलिफलैला के किस्से ही यहाँ मशहूर थे

बज़ाहिर प्यार की दुनिया में जो नाकाम होता है,
कोई रूसो कोई हिटलर कोई खय्याम होता है।
ज़हर देते हैं उसको हम कि ले जाते हैं सूली पर,
यही हर दौर के मंसूर का अंजाम होता है।
जुनूने-शौक में बेशक लिपटने को लिपट जाएँ,
हवाओं में कहीं महबूब का पैगाम होता है।
सियासी बज़्म में अक्सर ज़ुलेखा के इशारों पर,
हकीकत ये है युसुफ आज भी नीलाम होता है।

खुदी सुकरात की हो याकि हो रूदाद गांधी की,
सदाकत जिंदगी के मोर्चे पर हार जाती है।
फटे कपड़ों में तन ढांके गुज़रता हो जहाँ कोई,
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है।

भुखमरी की ज़द में है या दार के साये में है,
अहले हिन्दुस्तान अब तलवार के साये में है।
छा गई है जेहन की परतों पर मायूसी की धूप,
आदमी गिरती हुई दीवार के साये में है।
बेबसी का इक समंदर दूर तक फैला हुआ,
और कश्ती कागजी पतवार के साये में है।
हम फकीरों की न पूछो मुतमईन वो भी नहीं,
जो तुम्हारी गेसुए खमदार के साये में है।

“वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है”
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है,
उसी के दम से रौनक आपके बँगले में आई है।
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का,
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है।
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले,
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है।
रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी.
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है।

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मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की,
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की।
आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत,
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की।
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी,
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्या हमारी प्यास की ?
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आख़िर क्या दिया,
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की।
याद रखिए यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार,
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की।

ज़ुल्फ़-अँगड़ाई-तबस्सुम-चाँद-आईना-गुलाब,
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब।
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी,
इस अहद में किसको फुरसत है पढ़े दिल की क़िताब।
इस सदी की तिश्नगी का ज़ख़्म होंठों पर लिए,
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब।
डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल,
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब।
चार दिन फुटपाथ के साए में रहकर देखिए,
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे;
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे।
तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे;
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे।
एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए;
चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे।

चाँद है ज़ेरे-क़दम. सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में क़िरदार बौना हो गया
शहर के दंगों में जब भी मुफलिसों के घर जले
कोठियों की लॉन का मंज़र सलोना हो गया
ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
जिंदगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया
रूह उरियाँ क्या हुई मौसम घिनौना हो गया
अब किसी लैला को भी इक़रारे-महबूबी नहीं
इस अहद में प्यार का सिंबल तिकोना हो गया

विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्यास लिखा है
बूढ़े बरगद के वल्कल पर सदियों का इतिहास लिखा है
क्रूर नियति ने इसकी किस्मत से कैसा खिलवाड़ किया है
मन के पृष्ठों पर शाकुंतल अधरों पर संत्रास लिखा है
छाया मंदिर महकती रहती गोया तुलसी की चौपाई
लेकिन स्वप्निल स्मृतियों में सीता का वनवास लिखाहै
नागफनी जो उगा रहे हैं गमलों में गुलाब के बदले
शाखों पर उस शापित पीढ़ी का खंडित विश्वास लिखा है
लू के गर्म झकोरों से जब पछुआ तन को झुलसा जाती
इसने मेरे तनहाई के मरुथल में मधुमास लिखा है
अर्धतृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्य पर विरहदग्ध उच्छ्‌वास लिखा है।

जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिए
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिए
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए
जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को
किस तरह अश्लील है संसद की भाषा देखिए
मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार
दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिए

घर में ठंडे चूल्हेपर अगर खाली पतीली है
घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीलीहै
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी
सुबह से फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है
बग़ावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है
सुलगते जिस्म की गर्मी का फिर एहसासहो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है।

जिसके सम्मोहन में पागल धरती है आकाश भी है
एक पहेली-सी दुनिया ये गल्प भी है इतिहास भी है
चिंतन के सोपान पे चढ़ कर चाँद-सितारे छू आए
लेकिन मन की गहराई में माटी की बू-बास भी है
इंद्रधनुष के पुल से गुज़र कर इस बस्ती तक आए हैं
जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिंदास भी है
कंकरीट के इस जंगल में फूल खिले पर गंध नहीं
स्मृतियों की घाटी में यूँ कहने को मधुमास भी है।

हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये।

एक निवेदन

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