एक समय था जब हमारे युवाओं के आदर्श, सिद्धाँत विचार, चिंतन और व्यवहार सब कुछ भारतीय संस्कृति के रंग में रँगे हुए होते थे। वे स्वयं ही अपनी संस्कृति के संरक्षक थे, परंतु आज उपभोक्तावादी पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से भ्रमित युवा वर्ग को भारतीय संस्कृति के अनुगमन में पिछड़ेपन का अहसास होने लगा है। आज अँगरेजी भाषा और अँगरेजी संस्कृति के रंग में रँगने को ही आधुनिकता का पर्याय समझा जाने लगा है।
जिस युवा पीढ़ी के ऊपर देश के भविष्य की जिम्मेदारी है, जिसकी ऊर्जा से रचनात्मक सृजन होना चाहिए, उसकी पसंद में नकारात्मक दृष्टिकोण हावी हो चुका है। संगीत हो या सौंदर्य, प्रेरणास्रोत की बात हो या राजनीति का क्षेत्र या फिर स्टेटस सिंबल की पहचान, सभी क्षेत्रों में युवाओं की पाश्चात्य संस्कृति में ढली नकारात्मक सोच स्पष्ट परिलक्षित होने लगी है।
आज महानगरों की सड़कों पर दौड़ती कारों का सर्वेक्षण करें, तो पता लगेगा कि हर दूसरी कार में तेज धुनों पर जो संगीत बज रहा है वह पॉप संगीत है। युवा वर्ग के लिए इसे बजाना दुनिया के साथ चलने की निशानी बन चुका है। उनके अनुसार, “जिंदगी में रफ्तार लानी हो या कुछ ठीक करना हो तो ‘गो इन स्पीड’ एवं पॉप संगीत सुनना तेजी लाने में सहायक है।” हमें साँस्कृतिक विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत के स्थान पर युवा−पीढ़ी ने पॉप संगीत को स्थापित करने का फैसला कर लिया है।
नए गाने तो बन ही रहे हैं, साथ ही पुराने को भी पॉप मिश्रित नए रंग−रूप में श्रोताओं के समक्ष पेश किया जा रहा है। आज बाजार की यह स्थिति है कि नई फिल्म के गाने का ‘रिमिक्स’ यानि तेज म्यूजिक डाले गए कैसेट आ जाने के बाद सामान्य कैसेट की बिक्री में बहुत ज्यादा गिरावट आई है। सब कुछ पॉप में ढालकर युवाओं को परोसा जा रहा है और वह पसंद भी किया जा रहा है।
विदेशी संगीत चैनल, एम.टी.वी. एवं चैनल वी अधिकाँश युवाओं की पहली पसंद हैं। इन संगीत चैनलों का ललित दर्शक वर्ग 15 से 35 वर्ष का युवा है। जनवरी 1996 में प्रारंभ इन चैनलों ने सुनियोजित तरीके से भारतीय युवाओं को पॉप कल्चर का दीवाना बना देने की ठान ली है और वे उसमें सफल भी हुए हैं।
आज युवाओं में ‘सौंदर्य’ के मानदंड एवं प्रयोजन भी परिवर्तित हो चुके हैं। दुनिया भर के विभिन्न देशों में अपनी सुँदरियों के वार्षिक चुनाव प्रतियोगिता से सौंदर्य का अब व्यवसायीकरण हो चुका है। सुँदर दिखने व उससे लाभ उठाने की आकाँक्षा ने युवतियों में येन−केन प्रकारेण सुँदर दिखने की अदभ्य लालसा पैदा कर दी है। पहले जहाँ दया, क्षमा, करुणा, ममता, लज्जा नारी सौंदर्य के अविच्छिन्न अंग हुआ करते थे, वहीं अब मानसिक उच्छृंखलता एवं शारीरिक नग्नता सौंदर्याभिव्यक्ति की अनिवार्य शर्त बन चुकी है।
बदलाव सिर्फ इन बाह्य क्रियाकलापों तक सीमित नहीं है। आज युवाओं के आँतरिक मूल्य एवं सिद्धाँत भी बदल चुके हैं और इस बदलाव से एकमात्र धन कमाना ही उनका उद्देश्य रह गया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हर वह व्यक्ति उनका प्रेरणा स्रोत है, जो सफल है। उनकी दृष्टि में सफलता की सिर्फ एक ही परिभाषा है—दौलत और शोहरत, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो। इसके लिए वे कुछ भी करने के लिए तैयार हैं।
राजनीति का क्षेत्र भी युवाओं में आए मानसिक परिवर्तन से अछूता नहीं रहा। इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पूरी तरह युवाओं के ही त्याग−बलिदान, साहस व जीवटता की कहानी है। अँगरेजों के शोषण, दमन एवं हिंसा भरी राजनीति से भारत को मुक्त कराने का श्रेय युवाओं को ही जाता है। भारतीय राजनीति के दमकते सूर्य को जब आपातकाल का ग्रहण लगा, तब इसी युवा पीढ़ी ने भयावह अत्याचारों को सहते हुए लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपना खून पसीना एक कर दिया था। आज जबकि परिस्थितियाँ और चुनौतियाँ और ज्यादा विकट हैं, भारतीय राजनीति आकंठ भ्रष्टाचार में दब चुकी है देश आर्थिक गुलामी के संकट की ओर अग्रसर है, ऐसे में भ्रष्टाचार व कुशासन से लोहा लेने के बजाय समझौतावादी दृष्टिकोण युवाओं का सिद्धाँत बन गया है। उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में आज के युवा की आकाँक्षा सिर्फ भौतिक सुख−सुविधा समेटने तक सीमित रह गई है। उनके भोग−विलास पूर्ण जीवन में मूल्यों व संघर्षों के लिए कहीं कोई स्थान नहीं रहा।
भारतीय संस्कृति में सदा से मेहनत, लगन, सचाई का मूल्याँकन किया जाता रहा है, परंतु आज के युवाओं का तथा कथित स्टेटस सिंबल बदल चुका है, जिन्हें वे रुपयों के बदले दुकानों से खरीद सकते हैं। कुछ खास−खास कंपनियों के कपड़े, सौंदर्य−प्रसाधन एवं खाद्य सामग्री का उपयोग स्तर दर्शाने का साधन बन चुका है। महँगे परिधान, आभूषण, घड़ी, चश्मे, बाइक या कार आदि से लेकर क्लब मेंबरशिप, महँगे खेलों की रुचि तक स्टेटस−सिंबल के प्रदर्शन की वस्तुएँ बन चुकी हैं। संपन्नता दिखाकर हावी हो जाने का ये प्रचलन युवाओं को सबसे अलग एवं श्रेष्ठ दिखाने की चाहत के प्रतीक लगते हैं।
आखिर युवाओं की इस दिग्भ्राँति का कारण क्या है? इसका जवाब यही है कि कारण अनेक हैं। सबसे प्रमुख कारण है, प्रचार−प्रसार माध्यम। युवा पीढ़ी तो मात्र उसका अनुसरण कर रही है। आज भारत में हर प्रचार माध्यम के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता के स्थान पर पश्चिमी मानदंडों के अनुसार प्रतिद्वंद्वी को मिटाने की होड़ लगी हुई है। अच्छाइयों को सामने लाने से परहेज कर बुराइयों को सजा−सँवार कर रोचक व आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करना ही उनका ध्येय रह गया है। सनसनीखेज पत्रकारिता के नाम पर आज पत्र−पत्रिकाएँ ऐसी सामाजिक विसंगतियों की घटनाओं की खबरों से भरी होती हैं, जिसे पढ़कर युवाओं की उत्सुकता उसके बारे में और जानने की बढ़ जाती है। परिणाम होता है कि वे स्वयं उसे आचरण में उतारकर उसका अनुसार करने लग जाते हैं। दूरदर्शन के विभिन्न चैनल भी जन−जीवन की भारतीय परंपरा से हटकर अब मात्र उपभोक्ता वस्तुओं के प्रचार−प्रसार के साधन बन गए हैं। विभिन्न कार्यक्रमों व विज्ञापनों ने युवा पीढ़ी को असंयमित व असीमित इच्छा−आकाँक्षाओं से भर दिया है, जिसे हर हालत में पूरा करना ही उनका सपना रह गया है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भारतीय बाजार में बढ़ता प्रभाव भी इस स्थिति के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है। एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में आकर बस गई विदेशी कंपनियां जो तरह−तरह के शीतल पेय, खाद्य पदार्थ सौंदर्य प्रसाधन बनाती हैं, उसके सबसे बड़े खरीददार युवा ही होते हैं। ये कंपनियों उपभोक्तावादी संस्कृति की पोषक होती हैं। अतः स्वाभाविक है कि जब ये किसी देश की सामाजिक व्यवस्था में अतिक्रमण करती हैं, तो उस देश के सामाजिक मूल्य अपना महत्त्व खोने लगते हैं और समाज में विसंगतियाँ फैलने लगती हैं।
परिवर्तन प्रकृति का नियम हैं, परंतु यह परिवर्तन उत्थान से पतन की ओर ले जाए, तो निश्चित रूप से घातक हैं। परिवर्तन का स्वरूप सदा सकारात्मक होना चाहिए जो अच्छाई से और ज्यादा अच्छाई की ओर ले जाए। भारतीय संस्कृति की कुछ मूलभूत विशेषताएँ हैं। इन विशेषताओं का अपना मूल्य है, जो शाश्वत हैं, जिनकी महत्ता सभी कालों में समान रूप से विद्यमान है। आज जबकि पूरा विश्व पुनः भारतीय संस्कृति की ओर उन्मुख है, हमारे युवाओं की पाश्चात्य संस्कृति के प्रति दीवानगी उनकी मानसिक कुँठा को ही दर्शाती है, जिसे किसी भी कीमत पर दूर किया ही जाना चाहिए।
साभार- अखंड ज्योति से