शायद ही कोई ऐसा भारतीय होगा जो बंगाल की प्रतिभा एवं बौद्धिकता को देखकर अचंभित न रह जाता हो! पर कैसी विचित्र विडंबना है कि जो बंगाल कला, सिनेमा, संगीत, साहित्य, संस्कृति की समृद्ध विरासत और बौद्धिक श्रेष्ठता के लिए देश ही नहीं पूरी दुनिया में विख्यात रहा है, वह आज हिंसा, रक्तपात, राजनीतिक हत्याओं के लिए जाना-पहचाना जाने लगा है। कदाचित ही कोई दिन ऐसा बीतता हो जब वहाँ होने वाली हिंसक राजनीतिक झड़पें अख़बारों की सुर्खियाँ न बनती हों! क्या ऐसे ही बंगाल की कल्पना बंकिम-रवींद्र-सुभाष ने की होगी? क्या यह महाप्रभु चैतन्य, परमहंस रामकृष्ण और स्वामी विवेकानंद का बंगाल है? क्या इन मनीषियों में अपार श्रद्धा रखने वाले तमाम बंगालियों एवं समस्त भारतवासियों ने सपने में भी ऐसे बंगाल की कल्पना की होगी? पश्चिम बंगाल के ऐसे रक्तरंजित परिवेश में क्या ‘माँ, माटी, मानुष” का नारा केवल छलावा नहीं लगता?
दुर्भाग्यपूर्ण है कि कतिपय बुद्धिजीवी अतिरिक्त उत्साह या उतावलेपन में बंगाल की वर्तमान हिंसा एवं अराजकता को उसकी स्थाई पहचान बताने लगते हैं। जबकि वे जानते हैं कि बंगाल प्रतिभा एवं पांडित्य की धरती है, आस्था एवं विश्वास की धरती है, नव-जागरण एवं सामाजिक सुधारों की धरती है। कुछ तो वहाँ हो रही हिंसा एवं अराजकता को सामान्य चुनावी घटना बताकर प्रकारांतर से उसकी पैरवी-सी करने लगते हैं। पर वे यह नहीं बताते कि इसी भारतवर्ष में अनेक ऐसे राज्य हैं, जहाँ चुनावी हिंसा बीते ज़माने की बात हो गई है। माना कि बंगाल में हिंसा का चलन नितांत नया नहीं है। पर क्या उसके राजनीतिक चाल-चरित्र में बीते छह दशकों से व्याप्त हिंसा के उत्तरदायी मूल कारणों और कारकों की कभी खुली, स्पष्ट एवं ईमानदार विवेचना की गई? हिंसा एवं ख़ूनी क्रांति में विश्वास रखने वाले वामपंथ को क्या कभी उसके लिए कठघरे में खड़ा किया गया? एक अनुमान के मुताबिक 60 के दशक से आज तक 9000 से भी अधिक राजनीतिक कार्यकर्त्ता बंगाल में हिंसा के कारण मारे जा चुके हैं। तृणमूल सरकार तो केवल 1977 से 2007 के बीच 28000 राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं की हत्या का दावा करती है। कुछ बुद्धिजीवी जान-बूझकर बंगाल में हिंसा की परिपाटी को स्वतंत्रता-पूर्व तक ले जाते हैं। बंग-भंग और भारत-विभाजन के समय हुई हिंसा की तुलना भला स्वातंत्र्योत्तर-भारत की हिंसा से कैसे की जा सकती है? बंगाल में वास्तविक हिंसा 60 के दशक में नक्सलवाड़ी आंदोलन से प्रारंभ हुई। इस आंदोलन में किसानों-मजदूरों को न्याय दिलाने के नाम पर तमाम राजनीतिक हत्याएँ की गईं। 1977 में वाममोर्चे की सरकार बनने के बाद तो हिंसा एवं हत्या को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। सरकारी मशीनरी का भारी पैमाने पर राजनीतिकरण होता चला गया। पुलिस-प्रशासन से लेकर अधिकतर सरकारी महकमा व अधिकारी कम्युनिस्ट कैडर की तरह काम करने लगे। गैस-बिजली-पानी कनेक्शन से लेकर राशन कार्ड, आवास प्रमाण-पत्र बनवाने या रोज़मर्रा की तमाम ज़रूरतों के लिए आम-निष्पक्ष नागरिकों को कम्युनिस्ट कैडरों, स्थानीय नेताओं, दबंगों पर निर्भर रहना पड़ता था। जिसने भी इन वामपंथी निरंकुशता या मनमानेपन के विरुद्ध मुखर एवं निर्णायक आवाज उठाई उसे या तो भय दिखाकर चुप करा दिया गया या हमेशा-हमेशा के लिए उसके जीवन का ही पटाक्षेप कर दिया गया। कहते हैं कि 77 से 80 के मध्य सीपीएम कैडरों और उनके संरक्षित बाहुबलियों ने शरणार्थी बांग्लादेशी हिंदुओं पर इतना ज़ुल्म ढाया कि उनके कहर से बचने के लिए उनमें से कई समुद्र में कूद जाया करते थे। इन विषम एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण वहाँ की सर्वसाधारण जनता के लिए भी हिंसा एक स्वीकार्य दबावकारी औज़ार बनती चली गई। 1977 से 2011 के बीच कम्युनिस्टों के शासनकाल में ही हिंसा बंगाल का प्रमुख राजनीतिक चरित्र बना। और इस अवधि में वहाँ तमाम नरसंहारों को अंजाम दिया गया।
तृणमूल काँग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी निरंकुश एवं सर्वाधिकारवादी वामपंथी सत्ता के विरुद्ध सबसे मुखर एवं सशक्त आवाज़ बनकर उभरीं। वे अनेक बार वामपंथी हिंसा का शिकार भी हुईं। इसलिए 2011 में उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद देश में एक उम्मीद जगी कि अब पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा के दौर का अवसान होगा। पर हुआ उलटा। सत्ता से बेदख़ल होने के बाद सरकारी सुविधाओं एवं पैसों की मलाई खाने के अभ्यस्त वामपंथी कैडरों और स्थानीय नेताओं-दबंगों ने तृणमूल का दामन थाम लिया। परिणामतः बंगाल की राजनीति का हिंसक रक्तचरित्र यथावत रहा। सत्ता बदली, पर सत्ता का कम्यूनिस्टिक चरित्र नहीं बदला। सत्ता को मिलने वाली चुनौती यथास्थितिवादियों को न तब स्वीकार थी, न अब। और कोढ़ में खाज जैसी स्थिति हाल के वर्षों में तेजी से बदलती पश्चिम बंगाल की डेमोग्राफी, रोहिंगयाओं व बांग्लादेशी घुसपैठियों की बढ़ती तादाद के कारण भी निर्मित हुई। दरअसल आज वहाँ जो संघर्ष दिख रहा है, वह प्रतिगामी-यथास्थितिवादी और प्रगत-परिवर्तनकामी शक्तियों के मध्य है।
भाजपा की सक्रिय उपस्थिति, बढ़ते जनाधार, केंद्रीय मंत्रियों के दौरे और तृणमूल में मची टूट-फूट और भगदड़ के बाद यह संघर्ष और खुले रूप से सतह पर आने लगा है। ममता की राजनीतिक ज़मीन बड़ी तेज़ी से दरकती और खिसकती जा रही है। पहले तो भय दिखाकर उन्होंने अपने विरोधियों को रोकने की भरसक कोशिश की। राज्य में सत्ताधारी तृणमूल का ऐसा खौफ़ रहा है कि 2018 में हुए पंचायत चुनाव में उसके लगभग 35 प्रतिशत उम्मीदवार निर्विरोध चुन लिए गए थे, क्योंकि तब उनके ख़िलाफ़ जाकर पर्चा दाख़िल करने का साहस तक कोई नहीं जुटा सका था। पर 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने तृणमूल से केवल 3 प्रतिशत कम यानी 40.3 प्रतिशत वोट हासिल करके राज्य की 42 में से 18 सीटों पर जीत दर्ज की। इस ऐतिहासिक जीत के बाद भाजपा कार्यकर्त्ताओं में भी साहस एवं उत्साह का संचार हुआ है। वे सरकारी संरक्षण में फल-फूल रहे तृणमूल कार्यकर्त्ताओं और नेताओं का खुलकर प्रतिकार करने लगे हैं। अल्पसंख्यकों के भयावह तुष्टिकरण और बहुसंख्यकों की घनघोर उपेक्षा का अब वहाँ डटकर विरोध किया जाने लगा है। ममता के काफिलों के गुज़रने पर स्थानीय लोगों द्वारा जय श्रीराम के नारे लगाए जाने लगे हैं। जो तल्ख़ तेवर एवं बाग़ी अंदाज़ कभी ममता की ताक़त हुआ करती थी, आज उनकी कुढ़न और कमज़ोरी मानी जाने लगी है। पिछले साल अमित शाह के रोड शो के दौरान हुई हिंसा, कुछ समय पूर्व हुई बीजेपी विधायक देवेंद्रनाथ की हत्या और हाल ही में बीजेपी अध्यक्ष जे.पी.नड्डा और कैलाश विजयवर्गीय के काफ़िले पर हुए हमले ने पश्चिम बंगाल में सियासी पारे को परवान चढ़ाया है।
गृहमंत्री अमित शाह की रैली एवं रोड शो में उमड़ी जबरदस्त भीड़ और मेदिनीपुर व उसके आस-पास के 50 विधानसभा सीटों पर अच्छा-खासा प्रभाव रखने वाले शुवेंदु अधिकारी समेत लगभग 10 विधायकों एवं एक सांसद का बीजेपी में शामिल होना आगामी विधानसभा चुनाव की तस्वीरें साफ़ करता है। पर राजनीति की बिसात पर तब तक न जाने और कितने मासूमों-बेगुनाहों को वहाँ अपनी कुर्बानी देनी पड़े? यह कम-से-कम बंकिम का ”सुजलाम, सुफलाम् …शस्यश्यामलाम् ” या टैगोर का 1906 में लिखा ”आमार शोनार बांग्ला” वाला बंगाल तो बिलकुल नहीं है। कोई भी भद्र बंगाली मानुष या भारतीय ऐसे हिंसक सत्ता-तंत्र की दुःस्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता!
प्रणय कुमार
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