भारत, संस्कृति और संस्कृत यह तीनों शब्द मात्र शब्द नहीं अपितु प्रत्येक भारतीय के भाव ही है। भारतवर्ष के लिए कहा भी गया है –
“देवतानां प्रियं धाम तवाप्यस्ति ममापि च।“
-अर्थात यह भारत भूमि देवताओं के साथ-साथ हम सभी की अति प्रिय भूमि है। और इस भारत भूमि की जब प्रतिष्ठा की बात आती है तब पंक्ति उद्धृत होती है –
“भारतस्य प्रतिष्ठे द्वे संस्कृतं संस्कृतिः तथा।“
अर्थात भारत की दो मात्र प्रतिष्ठा पहली संस्कृत और दूसरी संस्कृति है जो कि एक दूसरे के पूरक ही हैं –“संस्कृतिः संस्कृताश्रिता”अर्थात यह जो संस्कृति है यह संस्कृत आश्रित ही है। यह भाषा राष्ट्रीय एकता, नैतिकता, अखण्डता, एवं आध्यात्मिकता के महत्व को निरूपित करती हैं। भारतीय संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन हेतु भारतीय ज्ञान परंपरा का ज्ञान परम आवश्यक है। अतः विद्यालयी पाठयक्रम में भारतीय ज्ञान परंपरा का ज्ञान अपरिहार्य है। अतएव राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’में भी बहुभाषावाद को प्रासंगिक बताते हुए शिक्षाक्षेत्र के सभी स्तरों पर संस्कृत को जीवन जीने की मुख्य धारा में शामिल कर अपनाने पर बल दिया गया है। अतः संस्कृत का अध्ययन कर के छात्र-छात्राएं न केवल अपने-अपने अतीत से गौरवान्वित होकर वर्तमान में संतुलित व्यवहारशील की ओर अग्रसर होंगे; अपितु भविष्य के प्रति भी उल्लासित होंगे।
हमारी प्राचीन शिक्षा प्रणाली ने व्यक्ति के सर्वांगीण विकास पर ध्यान केंद्रित किया तथा विनम्रता, सच्चाई, अनुशासन, आत्मनिर्भरता और सम्मान जैसे मूल्यों पर बल दिया। वेदों और उपनिषदों के सिद्धांतों का पालन करते हुए तथास्वयं, परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों को पूरा करते हुए शिक्षण एवं अधिगम जीवन के सभी पहलुओं को शामिल करती हैं । भारत में शिक्षा का स्वरूप व्यावहारिकता को प्राप्त करने योग्य और जीवन में सहायक है।इस प्रकार, यह ध्यातव्य है कि एनईपी 2020 ने न केवल प्राचीन भारत के गौरवशाली अतीत को मान्यता दी है, बल्कि प्राचीन भारत के विद्वानों जैसे-चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, मैत्रेयी, गार्गीआदि के विचारों एवं कार्यों को वर्तमान पाठ्यक्रम में प्री-स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक शामिल करने की ओर भी हमारा ध्यान आकृष्ट किया है।
सम्पूर्ण वैदिक-वाङ्मय, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतिग्रन्थ, दर्शन, धर्मग्रन्थ, काव्य, नाटक, व्याकरण तथा ज्योतिष शास्त्र संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होकर इनकी महिमा को बढाते हैं, जो भारतीय सभ्यता, संस्कृति की रक्षा करने में पूर्णतः सहायक सिद्ध होते हैं। संस्कृत से ही संस्कारवान समाज का निर्माण होता है, जैसे- वैदिक संस्कृति में गर्भाधान से अंत्येष्टि पर्यन्त षोडश संस्कार का विधान है। संस्कारों से कायिक, वाचिक, मानसिक पवित्रता के साथ-साथ पर्यावरण भी स्वच्छ होता है। संस्कारों का वैज्ञानिक महत्त्व भी है।इसकी वैज्ञानिकता को नासा ने 1987 ई. में ही संस्कृत को कंप्यूटर के लिए सर्वोत्तम भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की, जिसका कारण- संस्कृत भाषा को अंतरिक्ष में सन्देश प्रेषण के लिए सबसे उत्कृष्ट माना है।क्योंकि संस्कृत के वाक्य उल्टे हो जाने पर भी अपने अर्थ को नहीं बदलते। पाश्चात्य भाषा वैज्ञानिकों ने पाणिनीय-व्याकरण को सर्वोत्कृष्ट मानवीय रचना का दर्जा प्रदान किया। आज भी अमेरिका, जर्मनी आदि अनेक देश संस्कृत के क्षेत्र में नित-नवीन अनुसंधान कार्य करके इसकी यशोवृद्धि में प्रयत्नशील है।
अतएव बदलते सामाजिक परिवेश और भारतीय मूल्यों के अंतर्द्वंद में हमारी शिक्षा व्यवस्था को समावेशी बनाना अत्यावश्यक है। यह समावेशी व्यवस्था भारतीय प्राचीन ज्ञान परंपरा को लिए बिना नहीं चल सकती है क्योंकि एक तरफ तो हम आधुनिकता के दौर में सरपट भागे जा रहे हैं लेकिन हमारी संस्कृति में निहित ज्ञान विज्ञान परंपरा को भूलते जा रहे हैं। तथा इस अंधानुकरण में हमारी वही स्थिति हो चुकी है जैसा कि उपनिषदों में कहा गया है – “अन्धेनैव नीयमानाः यथान्धाः” अर्थात अंधों को रास्ता दिखाने वाला भी अंधा हो तो लक्ष्य कैसे प्राप्त हो सकेगा। अतः हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में भारतीय ज्ञान परंपरा का समावेश करना अत्यंत आवश्यक होता जा रहा है जिससे हमारी आने वाली पीढ़ियों भारतीय ज्ञान परंपरा की सुदृढ़ नींव पर उज्जवल भविष्य का निर्माण कर सकेंगी । अर्थात हमारी शिक्षा व्यवस्था में हमारे भारतीय मूल्यों और ज्ञान की स्पष्ट झलक दिखाई दे सके इसी उपक्रम में –राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान राष्ट्रीय बोर्डों में से एक लगातार विभिन्न माध्यमों से ललित कला और संस्कृति की शिक्षा में निरंतर प्रयासरत है। यह कला एकीकरण को विभिन्न कार्यक्रमों में पाठ्येतर शैक्षणिक उपागम के रूप में प्रस्तुत करता है।
एनआईओएस ने वैदिक शिक्षा, संस्कृत भाषा और साहित्य, भारतीय दर्शन और प्राचीन भारतीय ज्ञान के कई अन्य क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने के लिए ‘भारतीय ज्ञान परंपरा नामक एक नए स्ट्रीम की शुरुआत की है।
‘इंडियन नॉलेज ट्रेडिशन’ स्ट्रीम के अंतर्गत, एनआईओएस ने पहले से ही माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तरों पर संस्कृत और हिंदी माध्यम में पांच पाठ्यक्रम विकसित किए हैं-
वेद अध्ययन, संस्कृत व्याकरण, भारतीय दर्शन, संस्कृत साहित्य, संस्कृत (भाषा विषय)
एनआईओएस ने ‘भारतीय ज्ञान परंपरा’ के अंतर्गत तीन माध्यमों-संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी में निम्नलिखित विषयों में मुक्त बेसिक शिक्षा (ओबीई) कार्यक्रम के क, ख और ग स्तरों पर पाठ्यक्रम और स्व-अध्ययन सामग्री भी विकसित किया है:
स्तर क – वेद, योग, विज्ञान और व्यावसायिक कौशल, स्तर ख – वेद, योग, विज्ञान और व्यावसायिक कौशल, स्तर ग – वेद, योग, विज्ञान और व्यावसायिक कौशल
संस्कृत/हिंदी माध्यम में भाषा विषय के रूप में संस्कृत विषय को भी विकसित किया गया है।
इन पाठ्यक्रमों में रामायण महाकाव्यादि कथाएँ, भगवद्गीता, पाणिनी द्वारा प्रतिपादित माहेश्वरसूत्र, समरसलोक संग्रह,वैदिक भजन, विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र, शिक्षावल्ली, ब्रह्मवल्ली, भृगुवल्ली, ललितासहस्रनाम स्तोत्र आदि जैसे विषय शामिल हैं। इन विषयों का उद्देश्य शिक्षार्थियों को हमारे समृद्ध भारतीय संस्कृति के प्रति जागृत करना है। योग के विषय में पतंजलि योग सूत्र, सूर्य नमस्कार, आसन, प्राणायाम, क्रोध प्रबंधन अभ्यास, एकाग्रता और स्मृति विकास विषयक अभ्यास शामिल हैं। शिक्षार्थियों के समग्र विकास के साथ-साथ सभी के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए ये अभ्यास बहुत महत्वपूर्ण हैं।
माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तरों पर निम्नलिखित सात नए पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जा रहा है-
आयुर्वेद, योग, वेदपाठ, न्यायशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, अनुप्रयुक्त संस्कृत व्याकरण, नाट्यकला
एनआईओएस ने भारतीय ज्ञान परंपरा के क्षेत्र में नवीन पाठ्यक्रमों के विकास के लिए विभिन्न गुरुकुलों/संस्थानों से प्रस्ताव भी आमंत्रित किए हैं। इन पाठ्यक्रमों का उद्देश्य शिक्षार्थियों को हमारी समृद्ध भारतीय संस्कृति से अवगत कराना और मूल्यों को विकास करना है।
माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर चित्रकला पाठ्यक्रम और माध्यमिक स्तर पर हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत पाठ्यक्रम चलाया जा रहा है।
हमारे शिक्षार्थियों को ‘योग: कर्मसु कौशलम’के दर्शन का ज्ञान देने के लिए मुक्त बेसिक स्तर पर योग विषय का पाठ्यक्रम भी उपलब्ध है। योग मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए प्रभावी है, क्योंकि यह ‘विद्या’ और ‘अविद्या’ के बीच स्पष्ट अंतर करते हुए निषेधात्मक मानसिक प्रवृत्ति से दूर करने तथा कर्म पर बल देता है। इस प्रकारहमारे देश के भविष्य का निर्माण करने वाली भावी पीढ़ी हेतु ये अभ्यास बहुत महत्वपूर्ण हैं।
भारत की सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखना देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे देश की पहचान बनती है। अंतर्राष्ट्रीय मंच पर इसके महत्व को समझते हुए तथा विदेश के साथ सांस्कृतिक संबंध विकसित करने के लिए एनआईओएस ने प्रवासी अध्ययन केंद्र स्थापित किया है। इसका लक्ष्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘की भावना के आलोक में शांति, बहुलता और सार्वभौमिक बंधुत्व को बढ़ावा देना है।
शिक्षा जैसे सशक्त माध्यम के साथ एनआईओएस का यह प्रवासी अध्ययन केंद्र अन्य देशों में भी भारतीय प्रवासी केन्द्रों को सशक्त करने के लिए कार्य करेगा। यह भारतीय ज्ञान परंपरा को एक गत्यात्मक तथा व्यापक जीवन प्रणाली के रूप में प्रस्तुत करते हुए भारत की गौरवशाली संस्कृति और परंपरा को स्थापित करेगा।
(लेखिका राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान नोएडा उ.प्र. की अध्यक्ष है)
साभार https://www.thepurvai.com/ से