तकनीक के विस्तार के साथ ही संचार माध्यमों का तीव्र गति से विकास हो रहा है। सूचना के लिए कभी हम अखबारों पर निर्भर हुआ करते थे, फिर दौर आया रेडियो का और इसके बाद दूरदर्शन और फिर बांहें फैलायी टेलिविजन मीडिया ने। इस दौर में सोशल मीडिया ने भी अपनी ताकत दिखायी लेकिन इन सबके बीच खामोशी से कम्युनिटी रेडियो विस्तार पा रहा है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि प्रसारण का यह माध्यम लघु आकार में है और इसका यही स्वरूप इसकी पहचान है। कम्युनिटी रेडियो अभी शैशवकाल में है। 2016 में भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने नीति बनाकर इसे विस्तार देने का प्रयास किया है। ‘जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि’ वाली पंक्ति चरितार्थ करता प्रसारण माध्यम का यह लघु स्वरूप उन गांवों-टोलों और मंजरों में सूचना पहुंचाने का कार्य कर रहा है, जहां अन्य संचार माध्यमों की पहुंच ना के बराबर है।
लगातार विस्तार पाते इस संचार माध्यम को जानने और समझने के लिए साहित्य लगभग ना के बराबर है। ऐसे में भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार मनोज कुमार की किताब ‘कम्युनिटी रेडियो’ अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती है। किताब में कम्युनिटी रेडियो की उत्पति, विस्तार, देश-दुनिया में स्थिति, रेडियो स्टेशन निर्माण, संचालन, कार्यक्रम निर्माण, तकनीकी जानकारी तथा समय-समय पर केन्द्र सरकार द्वारा प्रदत्त आर्थिक सहायता के साथ ही रेडियो स्टेशन आरंभ करने के लिए जरूरी नियम-शर्तों को शामिल किया गया है।
इस किताब के बारे में भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक लीलाधर मंडलोई लिखते हैं-‘सामुदायिक रेडियो एक ऐसा संचार माध्यम है जिसे जनसामान्य को केन्द्र में रखकर नयी अवधारणा के स्तर पर मूर्त किया गया है। इस माध्यम पर अभी बहुत कुछ प्रकाश में नहीं आया है। इस दृष्टि से यह किताब इस माध्यम को सम्यक रूप से प्रकाश में लाती है। वे आगे लिखते हैं कि यह किताब रेडियो के उज्जवल इतिहास की परम्परा में सामुदायिक रेडियो को नए ढंग से न केवल परिभाषित करती है बल्कि हाशिये की जनता से संवाद का एक नया पुल निर्मित करती है।’
यह किताब उन लोगों के लिए तो जरूरी है ही जो कम्युनिटी रेडियो स्टेशन आरंभ करना चाहते हैं बल्कि प्रसारण माध्यम के विद्यार्थियों के लिए भी यह उपयोगी है। दिल्ली के आलेख प्रकाशन ने इस किताब का प्रकाशन किया है। 130 पृष्ठ वाली हार्डबोर्ड बाइंड किताब का मूल्य तीन सौ पचास रुपये है। लेखक मनोज कुमार की यह आठवीं किताब है। इसके पहले पत्रकारिता में साक्षात्कार विषय पर उनकी पहली किताब ‘साक्षात्कार’ का प्रकाशन मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी ने वर्ष 1995 में किया था। तब साक्षात्कार को पत्रकारिता में बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था किन्तु आज मीडिया में साक्षात्कार एक स्वतंत्र विधा के रूप में पढ़ाई जा रही है। इसके अलावा उनकी चर्चित किताबों में ‘भारतीय सिनेमा के सौ साल’ हैं। मनोज कुमार भोपाल से प्रकाशित मीडिया एवं सिनेमा की मासिक शोध पत्रिका ‘समागम’ का विगत 16 वर्षों से संपादन कर रहे हैं।
साभार- samachar4media.com/ से