मप्र में मंत्री जीतू पटवारी के बयान पर हंगामा बरपा हुआ है,खेल मंत्री जीतू पटवारी ने कहा कि 100 फीसदी पटवारी(लेखपाल)भृष्ट है वे बगैर पैसे लेकर काम नही करते है।
मीडिया से लेकर दलों और सरकार में अनुशासन का डंडा दिखाने वाले लाल पीले हो रहे है।साल भर पहले इन्ही पटवारियों से परेशान रहे बीजेपी के नेता भी पटवारियों के समर्थन में खड़े है।प्रदेश के हजारों पटवारी मंत्री के विरुद्ध खुलेआम सड़कों पर खड़े है जब पूरा प्रदेश अतिवर्षा की त्रासदी झेल रहा है जनता सरकार के मंत्रियों से नुकसान के मुआवजे के लिये गुहार लगा रही हो तब जीतू पटवारी का सार्वजनिक रूप से यह कहना कि 100 फीसदी पटवारी भृष्ट है अपने आप मे तमाम सवाल खड़े करता है।सवाल देश की राजस्व व्यवस्था पर है जो आज भी आम आदमी के लिये सहूलियत की जगह वेदनापूर्ण अहसास के साथ अन्याय और भृष्टाचार का सबब है।
यह समझा जाना चाहिये कि आखिर खेल मंत्री जीतू पटवारी या बाल विकास मंत्री इमरती देवी ने बुनियादी रूप से गलत क्या कहा है?क्या मप्र के 100 फीसदी पटवारी ईमानदार है ?क्या मप्र में किसी भी ट्रांसफर में पैसे नही लिए जाते है? इन दोनों प्रश्नों को किसी बड़े नेता यहां तक कि किसी पूर्व मुख्यमंत्री ,राज्यपाल से अकेले में पूछ लीजिये..।या फिर मुख्यसचिव स्तर के अफसर से निजी बातचीत में इसका जबाब सुन लीजिये।गांव में अंतिम छोर के बेघर आदिवासी से पूछिए उसके मुख्यमंत्री/ प्रधानमंत्री आवास में पटवारी ने कितने पैसे खाये है?
जाहिर है व्यवस्था के शिखर पर बैठे नीति निर्धारकों से लेकर अंतिम पायदान के व्यक्ति तक हर स्तर पर सच्चाई सबको पता है इसलिए मंत्री जीतू पटवारी का अभिनन्दन नही होना चाहिये?उन्होंने क्या गलत कहा है? लेकिन उन्होंने सच जरूर कहा है?क्या भारत के संसदीय लोकतंत्र में मंत्री को सच बोलना मना है?
अजीब परिपाटी हमारे नेताओं ने ओढ़ ली है कि वे सरकार में आते ही अफसरशाही और कर्मचारियों की कारगुजारियों ,उनके भृष्ट आचरण,कदाचरण और अनुत्तरदायी कार्य पद्धति को खुद ढांकने की कोशिशें करते है इस खोखली दलील के साथ कि अब सरकार उनकी है और वे अपनी सरकार को जनता के लिये बदल रहे है या पिछली सरकार की तरह नही है उनकी सरकार।यह मान्य धारणा बन चुकी है कोई मंत्री अपनी सरकार की आलोचना नही कर सकता है अगर करता है तो उसे मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री के विरुद्ध विद्रोह माना जाता है।मीडिया भी इसे मोर्चा खोलने जैसे शब्दों के साथ प्रस्तुत करता है।
सवाल यह है कि संसदीय लोकतंत्र में यह कहाँ प्रावधान है कि कोई मन्त्री सरकार के किसी निकाय या व्यवस्था की आलोचना नही कर स।कता है?इसलिये जीतू पटवारी और इमरती देवी के बयान लोकतांत्रिक व्यवस्था का तकाजा है। हकीकत यह है कि देश भर में हमारा सरकारी तंत्र सड़ चुका है यह आम आदमी के लिये इतना दुरूह और पीड़ादायक है जिसकी तुलना ब्रितानी हुकूमत के दौर तक से की जा सकती है।जिस पटवारी सिस्टम के 100 फीसदी भृष्ट होने की बात जीतू पटवारी ने कही वह अंग्रेजी राज की देन है राजस्व विभाग की धुरी है जमीनों की नापजोख,नामांतरण, बंटवारे, के बुनियादी काम के अलावा फसलों का लेखाजोखा रखना,प्राकृतिक आपदा के समय नुकसानी सर्वे करना भी इसका काम है।जाहिर है बड़े महत्वपूर्ण काम पटवारियों के हवाले है लेकिन यह भी हकीकत है कि पटवारी का कोई दफ्तर नही वह राजस्व इकाई हल्का पर पदस्थ होता है जो एक तहसील को विभक्त कर बनाई जाती है एक हल्के में औसतन 4 से 5 गांव होते है। एक पटवारी पर दो तीन हलकों तक का चार्ज होता है।
तहसीलदार इनका बॉस है जिसे वह रिपोर्ट करते है पर तहसील मुख्यालय पर भी इनका कोई दफ्तर नही होता है समझा जा सकता है कि गांव के लोग पटवारी को कितनी कठिनाई से उसके घर जाकर ही पकड़ पाते है।किसानों की फसलों को राजस्व रिकार्ड पर प्रति फसल दर्ज करने का काम पटवारी करते है लेकिन 90 फीसदी पटवारी अपने हलके में खेतों पर जाते है नही है और अंदाज से फसल विवरण दर्ज कर देते है।किसान जब समर्थन मूल्य (msp)पर अपनी फसल बेचने आता है तब इस राजस्व रिकार्ड से मिलान में अक्सर अंतर होता है किसान चने की फसल लाता है पटवारी का रिकार्ड गेंहू बोलता है,रकबे में भी अंतर आता है।अब इन विसंगतियों का तोड़ यह निकाला गया है कि किसान पटवारियों को रकबे के हिसाब से रिश्वत देते है और मनचाही फसल दर्ज करा लेते है।
प्राकृतिक आपदा के समय मुआवजे के लिये नुकसानी सर्वे का काम भी पटवारी करते है इसी सर्वे की शिकायतो से परेशान होकर जीतू पटवारी ने यह बयान दिया था।हकीकत यह है कि पटवारी खेतों तक जाते ही नही और घर बैठकर नुकसानी सर्वे दर्ज कर देते है इसका दर्द छोटे सीमांत किसानों को अधिक होता है क्योंकि उनकी जोत छोटी होती है और पटवारी उसमे भी एक चौथाई से कम नुकसान दर्ज करता है लिहाजा उसे सरकारी मुआवजा नुकसान के अनुरूप नही मिल पाता।
मंत्री विधायक जब रहनुमा बनकर गांवों में जाते है तो लोग उनसे पटवारी की शिकायत करते है।पटवारी नुकसानी सर्वे में भी लोगों का शोषण करने से नही चूकते है।25 फीसदी को बदलकर 50 फीसदी नुकसान दर्ज करने की बकायदा पटवारी हल्का बार रेट चलती है।गांव/शहर में सभी राजस्व अभिलेख को प्रमाणित करने के काम पटवारी ही करता है।किसान को केसीसी बनबाना होना,कर्जमाफी आवेदन करना हो,किसी अनुदान आधारित कृषि योजना का लाभ लेना हो,खेत मे ट्यूबवेल खुदवाना हो,हर काम के लिये पटवारी के घर जाकर याचक की तरह खड़ा ही रहना पड़ता है।वैसे तो मप्र में भूराजस्व रिकार्ड ऑनलाइन कर दिया गया है लेकिन पोर्टल पर आप रिकार्ड देख सकते है उसका प्रिंट ले सकते है लेकिन कानूनी रुप से दस्तावेज तभी मान्य होगा जब पटवारी प्रमाणित करें या नकल शाखा से नकल प्रमाणित की हुई हो।जाहिर है किसान पटवारी की चौखट पर जाने के लिये व्यवस्थागत रूप से मजबूर है।
किसी भी राजस्व न्यायालय में आज औसतन दो हजार से अधिक मामले लंबित रहते है जो नामांतरण, बंटबारे,बटांकन,फौती नामान्तरन(पीढ़ीगत),डायवर्सन, साल्वेंसी, से जुड़े रहते है।किसी भी प्रकरण में कोई समय सीमा निपटान की नही है क्योंकि वे राजस्व न्यायालय के अधीन हो जाते है सभी मंत्री, मुख्यमंत्री अच्छी तरह जानते है कि तहसीलदार के न्यायालय हो या एसडीएम का दफ्तर यहां 90 फीसदी काम बगैर रिश्वत के नही होते है। आज भी जमीनों की नाप जोख जरी से होती है जरी लोहे की जंजीर है जिसे मुगलकाल में नाप तोल के लिये चलन में लाया जाता था।जमीन के सीमा चिन्ह ढूढने के लिये पटवारी जरी को किसी कुंए,बाबड़ी से ही नापते हुए आते है।कोई भी नाप बंटवारा अविवादित इसलिय ही नही होता क्योंकि इसके किया अभी भी कोई वैज्ञानिक तकनीकी प्रयोग में नही लाई जाती है। विवादित राजस्व प्रकरणों का अंबार इसीलिये प्रायोजित कहा जा सकता है।इसलिये जीतू पटवारी का कथन असल में जमीन के अनुभवों की अभिव्यक्ति ही है।आज देश भर में राजस्व के सेटअप को पुनः रिक्षित करने की आवश्यकता है।
राजनीतिक दलों को इस बात पर समवेत होने की आवश्यकता है कि जिन बुनियादी विषयों पर सरकारी तंत्र भृष्ट और अनुत्तरदायी है उन पर सरकार और विपक्ष में अलग मापदंड नही होने चाहिये क्योंकि जनता आज भी अपने दुख दर्द के लिये नेताओं से ही सम्पर्क करती है अफसरशाही तो सिर्फ ताकतवर नेताओं के साथ ही अपने घर दफ्तर छोड़कर जनता के बीच आती है।
मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ को चाहिये कि वह खेल मंत्री जीतू पटवारी के बयान को उदार मन से जनता की पीड़ा के साथ विश्लेषण करें।क्योंकि पटवारी सिस्टम से लेकर भू राजस्व सहिंता के सभी प्रावधान आम आदमी को किसी तरह की सहूलियत नही दे पा रहे है बल्कि गांव,गरीब,के दर्द को बढ़ाने के माध्यम है।किसी एक किसान से अकेले में पटवारी के साथ उसके जीवन भर के अनुभवों को सुनकर आप इस सिस्टम और अंग्रेजी राज में कोई खास अंतर महसूस नही कर पाएंगे।
डॉ अजय खेमरिया
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