(४ फरवरी १९३८ – १६ जनवरी २०२२)
कथक नृत्य को एक नई पहचान देने वाले और नामी फिल्मी अभिनेत्रियों को अपनी अंगुली पर नचाने वाले बिरजू महाराज का रविवार देर रात निधन हो गया. बिरजू महाराज अगले महीने 84 साल के होने वाले थे । महान कथक नर्तक बिरजू महाराज के निधन पर उनकी पोती रागिनी महाराज ने बताया, पिछले एक महीने से उनका इलाज चल रहा था. बीती रात उन्होंने मेरे हाथों से खाना खाया, मैंने कॉफी भी पिलाई. वे रात के भोजन के बाद अंताक्षरी खेल रहे थे, जब अचानक सांस लेने में तक़लीफ होने लगी. हम उन्हें अस्पताल ले गए लेकिन उन्हें बचाया न जा सका।
बिरजू महाराज का जन्म कत्थक नृत्य के लिये प्रसिद्ध जगन्नाथ महाराज के घर हुआ था, जिन्हें लखनऊ घराने के अच्छन महाराज कहा जाता था। ये रायगढ़ रजवाड़े में दरबारी नर्तक हुआ करते थे। इनका नाम पहले दुखहरण रखा गया था, क्योंकि ये जिस अस्पताल पैदा हुए थे, उस दिन वहाँ उनके अलावा बाकी सब कन्याओं का ही जन्म हुआ था, जिस कारण उनका नाम बृजमोहन रख दिया गया। यही नाम आगे चलकर बिगड़ कर ‘बिरजू’ और उससे ‘बिरजू महाराज’ हो गया। वे शास्त्रीय कथक नृत्य के लखनऊ कालिका-बिन्दादिन घराने के अग्रणी नर्तक थे। पंडित जी कथक नर्तकों के महाराज परिवार के वंशज थे जिसमें अन्य प्रमुख विभूतियों में इनके दो चाचा व ताऊ, शंभु महाराज एवं लच्छू महाराज; तथा इनके स्वयं के पिता एवं गुरु अच्छन महाराज भी आते हैं। हालांकि इनका प्रथम जुड़ाव नृत्य से ही है, फिर भी इनकी पर भी अच्छी पकड़ थी, तथा ये एक अच्छे शास्त्रीय गायक भी थे। उन्हें 500 ठुमरियाँ याद थी।
बिरजू महाराज की माताजी को उनका पतंग उड़ाना और गिल्ली-डंडा खेलना बिल्कुल पसंद नहीं था। जब माँ पतंग के लिए पैसे नहीं देतीं तो नन्हा बिरजू दुकानदार बब्बन मियां को नाच दिखा कर पतंग ले लिया करता। बिरजू महाराज की तबला, पखावज नाल, सितार आदि कई वाद्ययंत्रों पर भी महारत हासिल थी, वो बहुत अच्छे गायक, कवि व चित्रकार भी थे। उन्होंने विभिन्न प्रकार की नृत्यावलियों जैसे गोवर्धन लीला, माखन चोरी, मालती-माधव, कुमार संभव व फाग बहार इत्यादि की रचना की है।
जाने माने कलाकार, संगीतकार और एकल नाटक तुलसीदास, विवेकानंद व कबीर से दुनिया भर में पहतान बनाने वाले शेखर सेन के जन्मदिन पर मुंबई में आयोजित कार्यक्रम में बिरजू_महाराज ने नृत्यकला को प्रकृति से जोड़ते हुए कहा था, पूरी प्रकृति २४ घंटे नर्तन करती है, प्रकृति में सब-कुछ लय-मय है। हवा का चलना, पत्तों का झड़ना,बारिश का होना, बादलों की गर्जना सब कुछ लय है और नर्तन है।
गिरिजा देवी के गुरु पंडित श्रीचंद्र मिश्र की पुत्री लक्ष्मी देवी से बिरजू महाराज का विवाह हुआ था। उनके काका शंभू महाराज और लच्छू महाराज भी कथक के नर्तक थे। इसके अलावा उनके पिता और गुरु अच्छन महाराज भी हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन परंपरा में एक बड़ा नाम थे। विख्यात सारंगी वादक पंडित हनुमान प्रसाद मिश्र के छोटे पुत्र पंडित साजन मिश्र के साथ पंडितजी की बड़ी बेटी कविता का विवाह हुआ है।
सबसे पहले सत्यजीत रे ने फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के लिए दो शास्त्रीय नृत्यों के लिए संगीत रचा और गायन भी किया। तब बिरजू महाराज ने सत्यजीत राय के सामने शर्त रखी थी कि बाल से पैर के नाखून तक संगीत में छेड़छाड़ नहीं होगी, तभी वे इसमें काम करेंगे। सत्यजीत राय ने उनकी शर्त स्वीकार की और उनके काम मोें कोई हस्तक्षेप नहीं किया। फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ के गाने ‘मोहे रंग दो लाल’ के लिए बिरजू महाराज को बेस्ट कोरियोग्राफी का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी दिया गया था।
बहुत पहले एक साक्षात्कार में बिरजू महाराज ने अपने जीवन के संघर्ष के बारे में बताते हुए कहा था, लू लगने के कारण २० मई, १९४७ को जब ये मात्र ९ वर्ष के ही थे, इनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। पिताजी की मृत्यु के बाद, माँ को दुखी देखकर मैं भी उदास रहने लगा। कुछ दिनों बाद, मैं और मां नेपाल चले गए। लेकिन पैसों की तंगी इतनी थी कि फिर अम्मा मुझे बांस बरेली ले गईं,उन्होने सोचा कि वहां नाचेगा तो इनाम मिलेगा।मैं आर्यानगर में 25-25 रुपये के दो ट्यूशन पढ़ाने लगा। 50 रुपये कमाकर,मैं किसी तरह पढ़ता रहा। मैं सीताराम नाम के एक अमीर लड़के को डांस सिखाता था और वह मुझे पढ़ा देता था। पैसों की कमी कारण मेरी पढ़ाई ठीक से नहीं हुई।
14 साल की उम्र में, मैं लखनऊ आ गया और कपिला जी के सहयोग से संगीत भारती में काम करने लगा। वहां, मेरी मुलाकात निर्मला जी हुई। उन्होंने ही मुझे कथक करने की सलाह दी। फिर नौकरी छोड़कर, मैं भारतीय कला मंदिर में क्लास करने लगा। हां पूरे मन से कथक सीखा। ऑल बंगाल म्यूजिक कॉन्फ्रेंस, कलकत्ता में मेरी प्रस्तुति इतनी शानदार रही कि देर तक तालियाँ बजती रही और यहीं मेरा मेरा भाग्योदय हुआ। उनका मानना था कि वे जिस ऊेंचाई पर पहुँचे हैं उसमें सबसे बड़ा योगदान उनकी माँ का ही था।
मुंबई के भुवंस कल्रल सेंटर में बिरजू महाराज ने कई बार अपने कार्यक्रम दिए और वे मंच से लेकर व्यक्तिगत बातचीत में खूब किस्सागोई करते थे। एक बार उन्होेंने बताया था कि
इलाहाबाद की हंडिया तहसील स्थित उनका गांव कथक के लिए प्रसिद्ध था। यहां सन् 1800 में कथक कलाकारों के 989 परिवार रहते थे। पहले गांव में कथकों का तालाब भी हुआ करता था। तालाब तो अब भी है, लेकिन कलाकार नहीं।
उन्होंने बताया था कि पहले कलाकार मंदिरों में प्रस्तुति देते थे। मंदिरों में चढ़ावे से जो पैसा, प्रसाद मिलता था उसी में से कलाकारों को भी दे दिया जाता था। चूंकि कलाकार बहुत दूर जाकर प्रस्तुति नहीं देते थे, इसलिए घर की महिलाएं यह कला नहीं सीख पाई।
अपने खुद के परिवार का उदाहरण देते हुए बिरजू महाराज ने बताया कि उनके दादा कई जगहों पर प्रस्तुति के बाद दादी को बोल आदि बताते थे। दादी ने औपचारिक शिक्षा तो नहीं ली, लेकिन सुन-सुनकर ही वे काफी बारीकियां समझ गई थीं। चूंकि कलाकार दिवाली व दशहरा पर नृत्य और कथा की प्रस्तुति देते थे, इसलिए उन्हें रामायण कंठस्थ होता था। उस समय महिलाएं प्रस्तुति में शामिल नहीं होती थीं, इसलिए महिलाओं से जुड़े प्रसंग के दौरान कलाकार ओढ़नी के माध्यम से किरदार को जीवंत बनाते थे। बाद के वर्षो में उन्हें जमींदारों के यहां प्रश्रय मिला। वहां भी कलाकार काफी प्रस्तुति देते थे। दादरा, भजन व संस्कृत के श्लोक सुनाते थे। बाद में यह कला दरबार पहुंची। दरबार में कथक को गति मिली। पांवों की गति पर ध्यान दिया जाने लगा।
वाजिद अली शाह का जिक्र करते हुए वे बताते थे कि वे खुद भी बहुत बड़े कलाकार थे। पहले कथक में हाव-भाव से ही कहानी सुनाई जाती थी, लेकिन जब साहित्य का दामन थामा तो और प्रभावी हो गई। शब्दों का प्रभाव लोगों पर ज्यादा होता है। इन्होंने कत्थक नृत्य में नये आयाम नृत्य-नाटिकाओं को जोड़कर उसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।इन्होंने कत्थक हेतु ”’कलाश्रम”’ की स्थापना भी की है। इसके अलावा इन्होंने विश्व पर्यन्त भ्रमण कर सहस्रों नृत्य कार्यक्रम करने के साथ-साथ कत्थक शिक्षार्थियों हेतु सैंकड़ों कार्यशालाएं भी आयोजित की।
उन्होंने बताया था कि पहली बार, महज छह साल की उम्र में रामपुर नवाब के यहां मंच पर गाया था । मंचों के जरिये जमा हुए 501 रुपए अम्मा ने बाबूजी को बतौर नजराना दे दिया। वो हँसते हुए बोले, तुम्हारा बेटा तो अमीर हो गया। इसके बाद उन्होंने मुझे अपना शार्गिद बना लिया। तब मैं साढ़े सात साल का था। लेकिन, डेढ़ ही साल बाद 9 साल को पहुंचा, तो अच्छन महाराज (पिता) का निधन हो गया। अम्मा को रोता देख, मैं भी रोने लगा। फिर काका शंभू महाराज से शिक्षा लेने लगा। वहीं, 12 साल तक पहुंचते-पहुंचते लोगों को सिखाने भी लगा।
बचपन से मिली संगीत व नृत्य की घुट्टी के दम पर बिरजू महाराज ने विभिन्न प्रकार की नृत्यावलियों जैसे गोवर्धन लीला, माखन चोरी, मालती-माधव, कुमार संभव व फाग बहार इत्यादि की रचना की। सत्यजीत राॅय की फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के लिए भी इन्होंने उच्च कोटि की दो नृत्य नाटिकाएं रचीं। इन्हें ताल वाद्यों की विशिष्ट समझ थी, जैसे तबला, पखावज, ढोलक, नाल और तार वाले वाद्य वायलिन, स्वर मंडल व सितार इत्यादि के सुरों का भी उन्हें गहरा ज्ञान था।
अपने काका, शम्भू महाराज के साथ नई दिल्ली स्थित भारतीय कला केन्द्र, जिसे बाद में कत्थक केन्द्र कहा जाने लगा; उसमें काम करने के बाद इस केन्द्र के अध्यक्ष पर भी कई वर्षों तक आसीन रहे। तत्पश्चात १९९८ में वहां से सेवानिवृत्त होने पर अपना नृत्य विद्यालय कलाश्रम भी दिल्ली में ही खोला।
उन्हें अपने दोनों काका लच्छू महाराज एवं शंभु महाराज से प्रशिक्षण मिला, तथा अपने जीवन का प्रथम गायन इन्होंने सात वर्ष की आयु में दिया।
बिरजू महाराज ने मात्र १३ वर्ष की आयु में ही नई दिल्ली के संगीत भारती में नृत्य की शिक्षा देना आरम्भ कर दिया था। उसके बाद उन्होंने दिल्ली में ही भारतीय कला केन्द्र में सिखाना आरम्भ किया। कुछ समय बाद इन्होंने कत्थक केन्द्र (संगीत नाटक अकादमी की एक इकाई) में शिक्षण कार्य आरम्भ किया। यहां ये संकाय के अध्यक्ष थे तथा निदेशक भी रहे। तत्पश्चात १९९८ में इन्होंने वहीं से सेवानिवृत्ति पायी। इसके बाद कलाश्रम नाम से दिल्ली में ही एक नाट्य विद्यालय खोला।
इन्होंने सत्यजीत राय की फिल्म शतरंज के खिलाड़ी की संगीत रचना की, तथा उसके दो गानों पर नृत्य के लिये गायन भी किया। इसके अलावा वर्ष २००२ में बनी हिन्दी फ़िल्म देवदास में एक गाने काहे छेड़ छेड़ मोहे का नृत्य संयोजन भी किया। इसके अलावा अन्य कई हिन्दी फ़िल्मों जैसे डेढ़ इश्किया, उमराव जान तथा संजय लीला भन्साली निर्देशित बाजी राव मस्तानी में भी कत्थक नृत्य के संयोजन किये।
बिरजू महाराज को अपने क्षेत्र में आरम्भ से ही काफ़ी प्रशंसा एवं सम्मान मिले, जिनमें १९८६ में पद्म विभूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार तथा कालिदास सम्मान प्रमुख हैं। इनके साथ ही इन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं खैरागढ़ विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि मानद मिली। साथ ही इन्हें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं खैरागढ़ विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि मानद मिली। 2016 में हिन्दी फ़िल्म बाजीराव मस्तानी में ‘मोहे रंग दो लाल’ गाने पर नृत्य-निर्देशन के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। 2002 में उन्हें लता मंगेश्कर पुरस्कार से नवाजा गया। 2012 में ‘विश्वरूपम’ के लिए सर्वश्रेष्ठ नृत्य निर्देशन का और 2016 में ‘बाजीराव मस्तानी’ के लिए सर्वश्रेष्ठ नृत्य निर्देशन का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला।