जीत हमेशा सकुन देती है. यह जीत व्यक्ति की हो या संस्था की और बात जब राजनीति की हो तो यह और भी अर्थपूर्ण हो जाता है. कांग्रेस की कर्नाटक में बम्पर जीत से कांग्रेसजनों का उल्लासित होना लाजिमी है. यह इसलिए भी कि लगातार पराजय के कारण कांग्रेस पार्टी के भीतर निराशा पनपने लगी थी और यह माहौल बनाया जा रहा था कि देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस पराभव के दौर से गुजर रही है. राजनीति में यह सब होना कोई अनोखा नहीं है. कल हम शीर्ष पर थे तो आज वो हैं और कल कोई होगा. ये पब्लिक है सब जानती है कि बात यहीं चरितार्थ होती है. कांग्रेस के खुश होने के अपने कारण हैं तो भाजपा को स्वयं की समीक्षा करने के लिए एक अवसर है.
आने वाले समय में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं और इन राज्यों में भाजपा की परीक्षा होगी तो कांग्रेस को भी इम्तहान से गुजरना होगा. एक जीत के बाद जश्र में डूब जाना कांग्रेस के लिए कतई हितकारी नहीं होगा. कांग्रेस के लिए कर्नाटक एक अवसर बनकर आया है और इस अवसर को आगे उसे भुनाने के लिए स्वयं को तैयार करना होगा. कांग्रेस की कर्नाटक में बड़ी जीत के बाद यह माहौल बनाया जा रहा है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बड़ी जीत मिल सकती है और भाजपा पीछे रह जाएगी. लेकिन ऐसा हो पाएगा, या नहीं, यह भविष्य के गर्भ में है. इस बात को भी समझना होगा कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे हिन्दी प्रदेश कर्नाटक नहीं हैं। इन राज्यों की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां अलग-अलग है इसलिए यह मानकर चलना कि कर्नाटक जैसा परिणाम इन राज्यों में कांग्रेस के लिए होगा, अभी जल्दबाजी होगी.
जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव निकट भविष्य में होना है, वहां भाजपा समीक्षा करेगी और लगभग शेष छह माह की अवधि में स्वयं को तैयार कर इन राज्यों में अपनी सरकार बनाने या बचाने का प्रयास पुरजोर ढंग से करेगी. कांग्रेसशासित राजस्थान एवं छत्तीगसगढ़ में जिस तरह की गुटबाजी कांग्रेस में है, वह जगजाहिर है. मुख्यमंत्री गहलोत के लिए सचिन पायलट रोज एक मुसीबत लेकर सामने आ रहे हैं तो छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल वर्सेस सिंहदेव की खटास भी किसी से छिपा हुआ नहीं है. मध्यप्रदेश में सरकार तो कांग्रेस की बन गई थी लेकिन आपसी रार के चलते एक बड़ा गुट भाजपा के साथ होकर सरकार गिराने में कामयाब रही. यही नहीं, कांग्रेस छोडक़र भाजपा का दामन थामने वाले बागी नेताओं में अधिकांश ने उपचुनाव में वापस जीत दर्ज की. इस तरह से कांगे्रस को अभी आत्ममंथन की जरूरत है कि कैसे इन राज्यों में सत्ता में वापसी हो. हालांकि भाजपा में सब ठीक है, यह कहना भी गलत है। यहां भी असंतोष उभार पर है। वैसे भी राजनीति में महत्वकांक्षा पालना गलत नहीं है लेकिन योग्यता और भाग्य ही साथ देते हैं और इस पैमाने पर फिलवक्त शिवराज सिंह का कोई विकल्प नहीं है।
मध्यप्रदेश में भी विधानसभा चुनाव इस साल के आखिर में होना है और यह राज्य कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है. चुनौती कांग्रेस के लिए स्वयं मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान हैं. चौहान उन बिरले नेताओं में हैं जिनकी पकड़ जमीनी तौर पर पक्की है. आम आदमी के साथ उनका अपनापन का रिश्ता उस जमीन को मजबूत करता है जिसकी आम आदमी को चाहत होती है. थोड़ा अंतराल छोड़ दें तो करीब-करीब 20 वर्षों से सत्ता पर काबिज शिवराजसिंह चौहान बहनों के लिए भाई, बेटा-बेटियों के लिए मामा तो बुर्जुर्गों के लिए श्रवण कुमार बने हुए हैं. आम आदमी के बीच शिवराजसिंह चौहान ने अपनी जो छवि बनायी है, उसका तोड़ भाजपा के भीतर भी नहीं है, कांग्रेस तो दूर है ही. आपदा को अवसर में बदलने का मंत्र शिवराजसिंह को बखूबी आता है. वे किसी भी अवसर पर चूकते नहीं हैं. यही कारण है कि बार-बार उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के कयास लगाये जाते रहे और अब राजनीतिक गलियारों में इस कयास पर भी पूर्ण विराम लग गया है. यह अकारण नहीं है क्योंकि लोकप्रियता की दृष्टि से देखें तो शिवराजसिंह के बराबर इस समय प्रदेश में किसी भी दल में कोई लीडर नहीं दिखता है.
शिवराजसिंह इतने लोकप्रिय क्यों हैं, यह जानने की कोशिश करेंगे तो एक पंक्ति में जवाब मिलेगा कि गैरों को भी अपना बनाने की अदा. पिछले बीस वर्षों में उन्होंने जनकल्याण की इतनी जमीनी योजनाएं लागू की कि उनका कोई तोड़ किसी के पास नहीं है. अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने बेटियों को सक्षम बनाने के लिए लाडली लक्ष्मी योजना का श्रीगणेश किया. बच्चियों की शिक्षा पर पूरा ध्यान आकर्षित किया और किताबों से लेकर स्कूल जाने तक के लिए सायकल का इंतजाम कर उनकी शिक्षा की गारंटी ली. अब शहरी बच्चों को स्कूटी दिला रहे हैं. यह योजना इतना पापुलर हुई कि वे सहज रूप से घर-घर के मामा बन गए. कोई उन्हें मुख्यमंत्री या राजनेता के रूप में नहीं देखता है बल्कि वे परिवार के मुखिया के रूप में चिहिंत किये गए.
ओला-पाला के बीच रोते-बिसूरते किसानों के साथ खेतों में बैठकर उनका दुख बांटते रहे. दिलासा देते रहे और उनकी जिम्मेदारी अपने हिस्से लेकर उन्हें राहत दिलाने का पूरा प्रयास किया. यहां तक कि ऐसे किसानों की बेटियों के ब्याह का जिम्मा भी सरकार ने लिया. प्रदेश के उन हजारों-हजार परिवारों के लिए वे एक नेमत की तरह मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना लेकर आए. आर्थिक और शारीरिक रूप से अशक्त वृद्धजनों को तीर्थ यात्रा पर लेकर निकल पड़े. सबसे बड़ी बात यह कि इस तीर्थदर्शन में सभी वर्ग के लोग शामिल किये गए. सर्वधर्म, समभाव की उनका यह दर्शन लोगों के दिलों तक पहुंच गया. वृद्धावस्था पेंशन का मामला हो या बच्चों के इलाज के लिए इंतजाम करना, कोई कटौती नहीं की गई. कोविड-19 के दौरान मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने जो सक्रियता दिखाकर लोगों की जिंदगी बचाने में जुटे रहे. गरीब और असमर्थ लोगों को आयुष्मान योजना के तहत पूरा लाभ दिलाया और निजी अस्पतालों के खिलाफ कड़े कदम उठाने से भी नहीं चूके. मंडला से झाबुआ तक, कब और कहां शिवराजसिंह पहुंच जाएं, किसी को खबर नहीं होती है. लोगों से चर्चा करना, संवाद करना और उनकी जरूरतों को जानकर उनकी जरूरत के अनुरूप योजना को मूर्तरूप देने की जो उनकी कोशिश होती है, उन्हें एक अलग रूप में खड़ा करती है.
हालिया लाड़ली बहना स्कीम ने तो मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को एक अलग किस्म की ऊंचाई दी है. प्रत्येक महिला को प्रत्येक माह एक हजार रुपये दिए जाएंगे जिससे वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी बन सकें. पेंशन पाने वाली माताओं को अलग करने के बजाय इसमें जोडक़र उनका भी आशीष पा रहे हैं. उनके विरोधियों केे लिए लाडली बहना स्कीम पॉलिटिकल गिमिक हो सकता है लेकिन जो लाभ लेने की स्थिति में हैं, वे इसे अपने भाई शिवराजसिंह से मिलने वाली सुरक्षा मान रही हैं. अगले महीने जब बहनों के खाते में रकम जमा होने लगेगी, तब यह अब तक कि शिवराजसिंह सरकार की सबसे बड़ी लोकप्रिय योजना साबित होगी. शिवराजसिंह जब जनसभा में बड़े मजे में बोलते हैं कि ‘बहनों को जब एक हजार रुपया मिलेगा तो सास घी चुपड़ी रोटी खिलाएगी’. उनकी इस बात पर हरेक के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है.
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान कभी किसी चाय के टपरे पर जाकर खड़े हो जाते हैं तो कभी किसी के कांधे पर हाथ रख देते हैं तो वह भाव-विभोर हो जाता है. उनके ही क्षेत्र में कुछ मजदूरों ने शिवराजसिंह को पहचानने से इंकार कर दिया था. तब भी शिवराजसिंह चौहान इसे हंसी हंसी में लेते हुए रवाना हो गए-चलो, भाई यहां शिवराज को नहीं पहचानते हैं. यही मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की विनम्रता है. यही उनकी पूंजी है जो राजनीतिक फलक से बाहर है. कल्पना कीजिए, यहीं पर उनके स्थान पर कोई और राजनेता होता तो शायद इन मजदूरों पर कहर टूट पड़ता. सौम्य, मृदुभाषी और संयत भाषा के साथ विरोधियों का सम्मान करने वाले शिवराजसिंह चौहान अजेय हैं.
निकट भविष्य के चुनाव में जीत हासिल करने के लिए एक विनम्र और मिलनसार शिवराजसिंह चाहिए. मतदाता भाजपा को अपना वोट दे या ना दे लेकिन शिवराजसिंह के नाम पर वोट ना मिले, इस पर सहसा भरोसा नहीं किया जा सकता है. मध्यप्रदेश की आर्थिक हालात, भ्रष्टाचार और ऐसे जनमुद्दों पर राज्य सरकार को घेरा जा सकता है लेकिन स्पष्ट है कि विधानसभा चुनाव में किसी भी दल के लिए शिवराजसिंह के स्तर पर मुकाबला आसान नहीं है. यह मध्यप्रदेश का दिल है और राज्य की जनता के दिलों में शिवराजसिंह राज करते हैं, मध्यप्रदेश की सत्ता पर नहीं.
कर्नाटक में विजय के पहले हिमाचल में जीत और नेता राहुल गांधी की अथक मेहनत के बाद कांग्रेस का आत्मविश्वास लौटा है और एक मजबूत लोकतंत्र के लिए यह जरूरी भी है. किन्तु इस बात का भी खास खयाल रखना होगा कि मध्यप्रदेश हो, छत्तीसगढ़ हो या राजस्थान, सबकी आबो-हवा एक सी नहीं है. इसलिए जीत का सेहरा पहनने के लिए उत्सव नहीं, आत्ममंथन की जरूरत इस समय अधिक है. भाजपा को भी सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि छत्तीसगढ़ में साय और मध्यप्रदेश में दीपक जोशी का कांग्रेस में जाना चिंता में तो डालता है। कौन जीतेगा और कौन हारेगा, यह तो समय के गर्भ में है।
(लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं)