Saturday, November 23, 2024
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बगैर आपातकाल के ही सत्ता के आगे नतमस्तक है मीडिया वाले

क्या मौजूदा वक्त में मीडिया इतना बदल चुका है कि मीडिया पर नकेल कसने के लिए अब सरकारों को आपातकाल लगाने की भी जरूरत नहीं है। 1975 वाले उस दौर की जरूरत नहीं, जब आपातकाल लगने पर अखबार के दफ्तरों में ब्लैकआउट कर दिया जाए। संपादकों को सूचना मंत्री सामने बैठाकर बताएं कि सरकार के खिलाफ कुछ लिखा तो अखबार बंद हो जाएगा। आज के हालात और चालीस बरस पहले के हालात में कितना अंतर आ गया है, यह समझने के लिए जून 1975 में लौटना होगा।

आपातकाल की पहली आहट 12 जून को सुनाई पड़ी जब इलाहबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला सुनाया। समाचार एजंसी पीटीआइ ने इसे जारी कर दिया। ऑल इंडिया रेडियो ने भी समाचार एजंसी की कॉपी उठाई और पूरे देश को खबर सुना दी। राजधानी नई दिल्ली में इस फैसले की खबर एक आघात की तरह पहुंची। तब के खुदमुख्तार युवराज संजय गांधी ने सूचना प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को बुलाकर खूब डपटा कि प्रधानमंत्री के खिलाफ इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले को बताने के तरीके बदले भी तो जा सकते थे।

उस वक्त ऑल इंडिया रेडियो के समाचार संपादक रहे कपिल अग्निहोत्री के मुताबिक, वह पहला मौका था जब सत्ता को लगा कि खबरें उसके खिलाफ नहीं जानी चाहिए। पहली बार समाचार एजंसी पीटीआइ-यूएनआइ को चेताया गया कि बिना जानकारी इस तरह से खबरें जारी नहीं करनी हैं। समाचार एजंसी तब सरकार की बात ना मानती तो एजंसी के सामने बंद होने का खतरा मंडराने लगता। यह अलग मसला है कि मौजूदा वक्त में सत्तानुकूल हवा खुद-ब-खुद ही एजंसी बनाने लगती है क्योंकि एजंसियों के भीतर इस बात को लेकर ज्यादा प्रतिस्पर्धा होती है कि कौन सरकार या सत्ता के ज्यादा करीब है।

बहरहाल, जब जयप्रकाश नारायण को गांधी पीस फाउंडेशन से गिरफ्तार किया गया और उन्होंने उसवक्त मौजूद पत्रकारों से जो शब्द कहे उसे समाचार एजंसी ने जारी तो कर दिया। लेकिन चंद मिनटों में ही जेपी के कहे शब्द वाली खबर ‘किल’ कर जारी कर दी गई। समूचे आपातकाल के दौर यानी 18 महीनों तक जेपी के शब्दों को किसी ने छापने की हिम्मत नहीं की। वह शब्द था: विनाशकाले विपरीत बुद्धि…।

अगली सुबह जब खबर चली तो पहली बार समाचार एजंसी के संवाददाता आल इंडिया रेडियो पहुंचे। सारे नेताओं की प्रतिक्रिया लिखकर ले गए। उसी वक्त तय हो गया कि अब देश भर में फैले पीआइबी और आल इंडिया रेडियो ही खबरों को सेंसर करेंगे। यानी पीआइबी हर राज्य की राजधानी में खुद-ब-खुद खबरों को लेकर दिशा-निर्देश बताने वाला ग्राउंड जीरो बन गया। मौजूदा वक्त में पीआइओ के साथ खड़े होकर जिस तरह पत्रकार खुद को सरकार के साथ खड़े करने की प्रतिस्पर्धा करते है, वैसे हालात 1975 में नहीं थे।

लेकिन अब की तुलना में चालीस बरस पहले के कई हालात अलग थे। मसलन, अभी संघी सोच वालों को रेडियो, दूरदर्शन से लेकर प्रसार भारती और सेंसर बोर्ड से लेकर एफटीआइआइ तक में फिट किया जा रहा है तो आपातकाल लगते ही सरकार के भीतर संघ के करीबियों और वामपंथियों को खोजकर उन्हें तो निकाला जा रहा था या हाशिए पर ढकेला जा रहा था। वामपंथी आनंद स्वरूप वर्मा उसी वक्त रेडियो से निकाले गए। हालांकि उस वक्त उनके साथ काम करने वालों ने आइबी के उन अधिकारियों को समझाया कि रेडियो में कोई भी विचारधारा का व्यक्ति हो, उसका कोई मतलब नहीं है क्योंकि खबरों के लिए अलग-अलग पूल बनाए जाते हैं, फिर विचारधारा का क्या मतलब। वर्मा तो वैसे भी खबरों का अनुवाद करते हैं।

अनुवादक किसी भी धारा का हो, सवाल तो अच्छे अनुवादक का होता है। लेकिन आइबी अधिकारियों को भी तो अपनी सफलता दिखानी थी, तो दिखाई गई। ऊपर से हुक्म था कि- हर बुलेटिन की शुरुआत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नाम से होनी चाहिए। यानी इंदिरा गांधी ने कहा है। और अगर किसी दिन कहीं भी कुछ नहीं कहा तो इंदिरा गांधी ने दोहराया है कि…या फिर इंदिरा गांधी के बीस सूत्री कार्यक्रम में कहा गया है कि…। मौजूदा वक्त में जिस तरह नेताओं को, सत्ताधारियों को कहने की जरूरत नहीं पड़ती और उनका नाम ही बिकता है। नेताओं को खुश करने के लिए उनके नाम का डंका चैनलों में बजने लगता है। वह चालीस बरस पहले आपातकाल के दबाव में कहना पड़ रहा था।

आज की तुलना में अखबारी बंदिश के उस माहौल की चर्चा जरूरी है। आपातकाल लगने के 72 घंटे के भीतर इंद्र कुमार गुजराल की जगह विद्याचरण शुक्ल सूचना प्रसारण बनते ही संपादकों को बुलाते हैं। दोपहर दो बजे मंत्री महोदय पद संभालते हैं तो पीआइबी के प्रमुख सूचना अधिकारी डॉ एआर बाजी शाम चार बजे दिल्ली के बड़े समाचार पत्रों के संपादकों को बुलावा भेजते हैं। बैठक शुरू होते ही मंत्री महोदय कहते हैं कि सरकार संपादकों के कामकाज से खुश नहीं है। उन्हें अपने तरीके बदलने होंगे। इस पर एक संपादक बोलते हैं कि ऐसी तानाशाही स्वीकार करना उनके लिए असंभव है। इस पर मंत्री उत्तर देते हैं: हम देखेंगे कि आपके अखबार से कैसा बरताव किया जाए।

गिरिलाल जैन बहस करने के लिए कहते हैं कि ऐसे प्रतिबंध तो अंग्रेजी शासन में भी नहीं लगाए गए थे। शुक्ल उन्हें बीच में ही काट कर कहते हैं, ‘यह अंग्रेजी शासन नहीं है। यह राष्ट्रीय आपात स्थिति है।’ इसके बाद संवाद भंग हो जाता है। उसके बाद अधिकतर नतमस्तक हुए। करीब सौ समाचार पत्रों को सरकारी विज्ञापन बंद कर झुकाया गया। तब भी स्टेट्समैन के सीआर ईरानी और एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका ने झुकने से इनकार कर दिया। सरकार ने इनके खिलाफ फरेबी चालें शुरू कीं। पीएमओ के अधिकारी ही सेंसर बोर्ड में तब्दील हो गए। प्रेस परिषद भंग कर दी गई। आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक का घृणित अध्यादेश 1975 लागू कर दिया गया।

यह अलग बात है कि इसके बावजूद चालीस साल पहले संघर्ष करते पत्रकार और मीडिया हाउस आपातकाल में भी दिखाई जरूर दे रहे थे। लेकिन चालीस साल बाद तो बिना आपातकाल सत्ता झुकने को कहती है तो हर कोई सरकारों के सामने लेटने को तैयार हो जाता है।

 (साभार: prasunbajpai.itzmyblog.com से )

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