वृद्धावस्था एक सच्चाई है, किन्तु एक सामाजिक प्रश्न भी है। वृद्धावस्था में स्वयं व्यक्ति में जीवकोपार्जन की शक्ति नहीं रहती और अधिक आयु होने पर उनके लिए चलना-फिरना या सामान्य जीवन बसर करना भी कठिन होता है। वृद्धों को न केवल अपनी उदर पूर्ति के लिये अपितु अपने अस्तित्व तक के लिए दूसरों पर निर्भर करना पड़ता है। समाज के सामने सदैव यह प्रश्न मुंह बाये खड़ा रहा है कि किस प्रकार वृद्धों को समाज पर भार न बनने दिया जाए, उनको समाज का एक उपयोगी अंग बनाया जाए तथा उनकी देखभाल, उनकी आवश्कताओं की पूर्ति तथा सब प्रकार की सुविधाओं का प्रबंध किया जाए ?
बुढ़ापा अपने साथ कई रोग भी लेकर आता है। पर कोई संदेह नहीं की शारीरिक दुर्बलता और बीमारी तक इस मुद्दे को सीमित रखकर और संभव हुआ तो अक्सर रहम की तर्ज़ पर कुछ दवाइयाँ या कभी-कभी कुछ उपचार करवाकर परिजन अपने कर्तव्य की इति मान बैठते हैं। जबकि हमारे बुजुर्गों की तकलीफ शारीरिक से कहीं अधिक मानसिक है, जिसकी आम तौर पर या तो उपेक्षा कर दी जाती है या फिर उन्हें उपहास का पात्र भी बनना पड़ता है। यह सचमुच बहुत दुखद और चिंतनीय स्थिति है। जिनकी वज़ह से ज़िन्दगी के सारे सुख और दुखों से लड़ने की ताकत मिली हो उन्हें स्वयं अपने तनावों में थोड़ी सी तसल्ली, थोड़ा सा सहारा देने वाला कोई न हो, अगर हो भी तो उनको उनके हाल पर ही छोड़ दें तो इसे क्या कहा जाये, कहना मुश्किल है।
अवसाद से जीवन की खुशियां नष्ट हो जाती हैं तथा जीवन की गुणवत्ता पर इसका गहन प्रभाव पड़ता है। एक पहलू और भी है जिसका सम्बन्ध देखभाल से जुदा है। वयोवृद्ध रोगियों के साथ दुर्व्यवहार एक अलग समस्या है। वयोवृद्ध व्यक्तियों के शोषण का स्वरूप बहुत विस्तृत होता है तथा उसमें शारीरिक शोषण, मनोवैज्ञानिक शोषण, वित्तीय शोषण, उपेक्षा आदि शामिल होते हैं।
इन सब बातों से यह निष्कर्ष निकालने की गलती न हो जाये की बुजुर्गों के साथ अच्छा सलूक होता ही नहीं है। नहीं, ऐसा कतई नहीं है, फिर भी समय कठिन है। यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि हमारे बुजुगों का समय उससे भी कठिन है। लेकिन बात तो तब बनेगी जब हम याद रखें कि –
छत नहीं रहती, दहलीज़ नहीं रहती
दीवारो दर नहीं रहता
घर में बुजुर्ग ना हो तो घर, घर नहीं रहता।
आइए बुजुर्गों की देखभाल करें और पूरे मन से कहें – जियो जीतने के लिए !
मो. 9301054300