लगभग नौ-दस साल पहिले मुझे आधुनिक रुद्रप्रयाग के निर्माता श्री 1008 स्वामी सचिदानंद (जन्मांध सूरदास) जी के बावत विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से ग्रीष्मावकाश के दौरान रुद्रप्रयाग, गढ़वाल की यात्रा करनी पड़ी थी | वहां पहुंचने पर मुझे बताया गया कि स्वामी जी के अतिनिकट रहे अनुयायी श्री हरिकृष्ण शास्त्री बेलणी, रुद्रप्रयाग में अपने मकान में रहते हैं |
लेकिन जब मैं उन्हें मिलने गया तो शास्त्री जी उन दिनों अपने पैतृक गांव चोपड़ा-नागपुर गये हुये थे | वहां जाने का पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम न होने से मुझे रुद्रप्रयाग में स्वामी जी द्वारा लगाये गये फलदार पौधे, संस्कृत विद्यालय, राजकीय इंटरमीडिएट कालेज, धर्मशालायें, मानव तथा पशु चिकित्सालय के दर्शनमात्र से ही संतुष्ट हो जाना पडा था | किसी देवीय शक्ति के निर्देशानुसार पिछले डेढ़ साल से चोपड़ा जाने की योजना बना रहा था, लेकिन किसी न किसी वजह से वहाँ जाने का कार्यक्रम संभव नहीं हो रहा था | अंततः गत दीपावली के अवकाश के दौरान चोपड़ा जाने का प्रोग्राम बन ही गया |
27 अक्टूबर को चंडीगढ़ से सुबह की बस द्वारा हरिद्वार-नजीबाबाद होते हुये रात को अपनी विमाता तथा छोटे भाई, भरत सिंह के पास कोटद्वार जा पहुंचा | दुसरे दिन पौड़ी-खेड़ाखाल जाने वाली 7:30 बजे की बस द्वारा माता जी और मैं दुगड्डा पहुंचे |
जैसे ही बस ने पुल पार किया, दाहिने हाथ की तरफ किनारे का दुमंजिला मकान देखते ही लगभग 47-48 साल पहिले की याद ताजा हो उठी | तब पिताजी (स्व. श्री कुंवर सिंह रावत), विमाता (श्रीमती सुदामा देवी) तथा मैं (प्रेम सिंह) बरसात के मौसम में सड़क अवरुद्ध हो जाने से लैंसडाउन से आकर इस होटल में एक या दो रात रुके थे |
बस के गुमखाल की दो- तिहाई चढाई पार करते ही जहरीखाल की बड़ी-बड़ी इमारतें दिखाई देने लगी | एक बार माता जी अपने किसी पड़ोसी महिला के साथ लैंसडाउन घूमने गई थी | वह उन सभी जगहों को देख आई थी जहाँ कभी हम लोग पिताजी के साथ एक साल तक रहकर घूमे होंगे | मुझे कैंटोनमेंट स्कूल, परेड ग्राउंड, बाजार, सिनेमाघर, सब्ज़ी मार्केट तथा मोटा ‘ग्यारसी’ लाला, गिरिजाघर वाली दूरबीन, कालेश्वर महादेव तथा पुजारी जी द्वारा स्कूल से घर आते वक़्त प्रसाद के रूप में कुछ न कुछ खाने को देना वगैरह-वगैरह आज भी अच्छी तरह याद हैं | मेरी निगाहें खिड़की से बाहर बार-बार इन स्थानों को फिर से देखने के लिये तरस रही थी |
सचमुच समय कितना गतिशील है | कब बचपन बीता, कब जवानी आई और कब चली गई, लेकिन पीछे छोड़ गयी खट्टी-मीठी यादों को | इस बीच मां कहने लगी कि एक बार उसने कोटद्वार की सैनिक कैंटीन में पिताजी के साथ के उनके ख़ास सहयोगी ‘अमलदार’ चाचा जी को देखा था जिनका नाम श्री नेत्र सिंह तथा उनकी पत्नी का नाम श्रीमती सूरजी देवी जी था | माताजी, श्रीमती सूरजी देवी जी तथा बीच में खड़ा मैं, की तब की फोटो अब भी मेरे एल्बम में लगी हुई है, लेकिन उसकी (माता जी की) हिम्मत बात करने की नहीं हुई | उस दम्पति का परिवार पहिले से ही कोटद्वार में रहता था और दोनों के पिताजी होनररी कप्तान थे | तब उनका कोई बच्चा नहीं था | माता जी के मन में अब भी उन चाचा जी से मिलने की चाह बनी हुई है | शायद इस लेख को पढ़ने से उनसे मुलाकात हो जाये |
बस जल्दी ही गुमखाल पहुंच गई | वहां पर थोड़ी देर रुकने के बाद वह जल्दी-जल्दी उतराई पार करती हुई सतपुली बाजार पहुंची | यहां पर सड़क के बायीं तरफ के होटल आज भी वैसे ही मुसाफिरों को अपनी ओर मच्छी या दाल भात खाने को ललचाते हैं जैसे बहुत पहिले किया करते थे, लेकिन अभी खाने को वक़्त न होने से संतरों व केलों को खा कर मन को समझाया |
15-20 मिनट के बाद बस पौड़ी की तरफ चल पड़ी | पूर्वी नयार का पुल पार करते ही वह सतपुली बाढ़ में बहे मृतकों की यादगार में बने स्मारक से होती हुई पाटीसैण पहुंची | वहाँ पर कुछ स्थानीय सवारियां बस में चढ़ी | उनसे पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि ये लोग चंडीगढ़ से अच्छी तरह परिचित हैं और निकट भविष्य में उत्तराखंड लोकोत्सव के लिये पहुँचने वाले हैं |
बातों ही बातों में उन्होंने बिजली विभाग द्वारा गलत ढंग से आंकलित कम्प्यूटरीकृत बिलों के बावत जानकारी दी | उनके एकेश्वर विकास क्षेत्र के बहुतेरे गांववासियों के बिजली के बिल 5000 या इससे अधिक रुपयों के हैं | वे कहने लगे कि क्या हमने घरों में कारखाने खोल रखे हैं? वे इस सम्बन्ध में मुझ जैसे प्रवासी नौकरी करने वालों से उ. प्र. सरकार तथा सम्बंधित बिजली विभाग से लोगों की परेशानी के बावत लिखने का निवेदन करने लगे |
मैंने उन्हें समझाया कि एक बार प्रभावित परिवारों के नुमांइदों को सम्बंधित बिजली विभाग के उच्च अधिकारियों से अवश्य मिलना चाहिये | आशा की जाती है कि अब तक उन लोगों की समस्या विभाग द्वारा अवश्य हल कर ली गई होगी |
अमोठा के आते ही ये सवारियां बस से उतर गई | बस अपनी निर्बाध गति से पश्चिमी नयार के पुल को पार कर ज्वाल्पा देवी की चढ़ाई चढ़ने लगी और सही 12:30 बजे पौड़ी बस अड्डे पर पहुंच गयी | तब तक वहाँ से कांडई बच्छणस्यूं जाने वाली बस चल पड़ी थी, लेकिन हमारी बस के चालक व कंडक्टर के अनुरोध पर बस रुकी और हम उसमें चढ़ गये | इस तरह हमारा एक या डेढ़ घंटा जो पौड़ी में खराब होना था बच गया |
बस बुवाखाल, चौबट्टा और खिर्सू की पक्की सड़क को जल्दी-जल्दी तय करती गई | बस में पौड़ी से बैठा एक अधेड़ उम्र का अवकाश प्राप्त फौजी सिपाही श्री श्याम सिंह से मुलाकात हुई, जिसे बुदेसु गांव में उतरना था | बातों ही बातों में पता लगा कि उसका लड़का श्री विक्रम सिंह फ़ौज में मेजर के पद पर है तथा वह उस इलाके में अकेला फौजी अफसर है |
मैंने फौजी की ख़ुशी को बढ़ाने के लिये कहा कि मैंने तुम्हारे गांव का नाम तो सुन रखा था, लेकिन अब लोग तुम्हारे बुदेसु गांव को तुम्हारे अफसर बेटे विक्रम सिंह के नाम से ज्यादा जान पायेंगे |
फौजी कहने लगा कि उसका बेटा गांव में मकान बनाने के लिये इंकार करता है | इस पर मैंने कहा कि अफसर को गांव में रहने के मुताबिक पक्का मकान अवश्य होना चाहिये, क्योंकि अब शहरों का वातावरण वहाँ रहने लायक नहीं रह गया है | नौकरी तथा बच्चों की शिक्षा के लिये वहां रहना मजबूरी है, लेकिन अब हर प्रवासी, गढ़वाली – कुमाऊनी की मनोवृति पहिले जैसी नहीं रह गई है | फिर जब गांव में सभी तरह की सुविधायें उपलब्ध हो चुकी हैं तो यहाँ का स्वछ्न्द वातावरण अपने आप ही उसे खींच लायेगा | वह आदमी बुदेसु के बस स्टॉप पर उतर गया |
कुछ और दूरी तय करने के बाद बस खेड़ाखाल पहुंची | वहां पर थोड़ी देर तक रुकी रही | खेड़ाखाल में मेरे बचपन के तीन वर्ष जूनियर हाई स्कूल की पढाई करने में गुजरे | वहाँ से मैं 1961 में आगे की पढाई के लिये श्रीनगर चला गया था | बी. एस. सी. करने के बाद मैंने 1968-69 के एक वर्ष के लिये हाई स्कूल में अध्यापन का कार्य किया था, इसलिये भी यह स्थान मुझे बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता है | पट्टी बच्छणस्यूं का यह पश्चिमी प्रवेश द्वार भी है |
यहाँ से पूरी पट्टी बहुत ही सुहावनी घाटी लगती है विशेषकर सावन-भादों के महीने में, जब धान की फसल पक रही होती है और मंडुए की फसल में गहरी हरियाली छायी होती है तथा गाड़-गधेरों का पानी दूध जैसा सफ़ेद दिखाई देता है | बीच-बीच में गांवों के मकानों में सफ़ेद या लाल रंग के पुंज दिखाई देते हैं जिनकी छतें बारिश से धुल कर साफ़-सुथरी तथा चमकदार दिखती हैं | प्रकृति के इस लुभावने दृश्य को देखने के लिये कई बार ग्रामवासी, विशेषकर प्रवासी इन पहाड़ों की सैर करते हैं |
खेड़ाखाल से आधे घंटे का सफर तय करने के बाद हम गहड़खाल होते हुए तीन बजे के आसपास अपने गांव स्यूणी-सैंधार के बस स्टॉप पर उतर गये | यहाँ से कुछ दूर पैदल चलकर चार बजे के लगभग अपने घर पहुंच गये |
दुसरे दिन 29 तारीख को मैं अकेला ही आठ बजे की बस से खांकरा होते हुए रुद्रप्रयाग जा पहुंचा| बस अड्डे पर उतरते ही मुझे मौसा श्री बचन सिंह जगवाण जी को मिलने बोहरा नर्सिंग होम जाना पड़ा जहाँ उनका गदूद का ऑपरेशन हो रखा था और वे कुछ दिनों से वहाँ भर्ती हो रखे थे | उनसे यह मेरी 12 साल बाद की मुलाकात थी |
कुछ देर उनसे बातचीत करने के बाद ग्यारह बजे चोपड़ा नागपुर वाली बस में बैठ गया | दीपावली से पहिले का दिन होने की वजह से बस सवारियों से खचाखच भरी हुई थी | काफी लोगों को मेरी तरह बस में खड़े रहना पड़ा तथा कई नौजवान बस की छत पर चढ़ गये थे | बस सही समय पर अपने गंतव्य स्थान चोपड़ा-कुरझाणा के लिये प्रस्थान कर गई |
अगली कड़ी में पढ़िये -यात्रा के दौरान हुई कुछ रोमांचक मुलाकातें