Saturday, April 27, 2024
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विनायक दामोदर सावरकर हर दौर में प्रासंगिक रहेंगे

सावरकर जी(२८ मई,१८८३ – २६फरवरी,१९६६) स्वातंत्र वीर ,स्वतंत्रता सेनानी, राष्ट्रवाद के प्रणेता ,राष्ट्रीय आंदोलन में अपने ओज व  उर्जा से स्वतंत्रा आंदोलन को आम नागरिकों के मानसिक शिथिलीकरण का साध्य बनाए थे। सावरकर जी के व्यक्तित्व एवं राष्ट्रीय आंदोलन में उनके उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेई ने कहा था की “सराहना हो या निंदा, वह दोनों को समभाव से स्वीकार करते रहे क्योंकि सावरकर केवल एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक संपूर्ण विचारधारा है। वह चिंगारी नहीं, जलता हुआ अंगारा हैं। उनका वर्णन परिभाषाएं तक ही सीमित नहीं बल्कि अपने जीवनकाल के दौरान अपने भाषण और कार्यों में प्रदर्शित सद्भाव की तरह दिव्य और विशाल विस्तारित हैं”।
सावरकर जी निर्विवाद रूप से सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व थे,जिन्होंने बीसवीं शताब्दी में “हिंदू अधिकारों “के मुद्दे को प्रबल समर्थन किया और वर्तमान में “हिंदुत्व की विचारधारा” के प्रबल पैरोकार हैं। सावरकर जी ने अपना समस्त जीवन व  ऊर्जा भारत माता की स्वतंत्रता के लिए समर्पित किया था, एवं अपने जीवनकाल के दौरान हिंदू समाज को उर्जित करने में व्यापक पैमाने पर उपादेयता दिया था। उन्होंने विभिन्न विषयों पर लेखनी  से  समकालीन समाज में अमरत्व प्राप्त किए हैं ।इन विषयों में  जाति व्यवस्था, भारतीय समाज से जाति व्यवस्था का उन्मूलन, भारतीय समाज के सामाजिक बुराइयों को जड़ से समाप्त करना, भारतीय समाज के लिए मशीनीकरण का महत्व, भारत के लिए पूंजीवादी व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय मामलों एवं राष्ट्रीय एकता और एकजुटता आदि शामिल हैं।
सावरकर जी किसी भी तरह के भेदभाव और जातिवाद से मुक्त पूरी तरह से स्वतंत्र भारत का सपना देखा था, एक ऐसे राष्ट्र की संकल्पना किया था, जो विकास पथ पर उन्नयन हो रहा है, जहां पर सभी समुदाय के बच्चों को प्राचीन और धार्मिक परंपराओं और मिथकों को पीछे छोड़कर वैज्ञानिक पद्धति अपनाने चाहिए, जहां पर आक्रमणकारी व मलेक्छ हिंदू और मुसलमानों के बीच धार्मिक मतभेदों का लाभ नहीं उठा सकते हैं ।वर्तमान समय में भारत को अपनी एकता ,अखंडता और एकीकरण बनाए रखने के लिए विभिन्न मोर्चों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता हैं।विघटनकारी शक्तियां टुकड़े-टुकड़े गुटएवं असामाजिक तत्व भारत को विघटित करने के सपने देखते हैं। हमें वीर सावरकर जैसे स्वातंत्र वीर की ओर देखना चाहिए, जिन्होंने असंख्य कठिनाइयों का सामना किया और भारत माता की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी हैं।
सावरकर जी सामाजिक और सार्वजनिक बराबरी के पक्षधर थे। उन्होंने छुआछूत उन्मूलित करने के लिए आंदोलन चलाया, सभी वर्ग भय मुक्त होकर पूजा अर्चना करें ,इसके लिए “पतित पावन मंदिर” का प्राण प्रतिष्ठा करवाएं। विनायक दामोदर सावरकर जी ने महाड़ सत्याग्रह को बिना शर्त समर्थन दिया था ।इस विषय पर श्री धनंजय कीर ने सावरकर की जीवनी ‘ सावरकर एंड हिज टाइम्स’  में लिखते हैं कि “तत्कालीन समय में कहा था कि छुआछूत की निंदा की जानी चाहिए बल्कि अब उसे धर्म के आधार के तौर पर जड़ से समाप्त करने का समय आ चुका हैं ।ये नीति या औचित्य   का सवाल नहीं है, बल्कि न्याय और मानवता की सेवा के मुद्दे से जुड़े हैं “।
सावरकर जी ने घोषणा की थी  कि प्रत्येक हिंदू का एक पवित्र कर्तव्य है कि वह अपना धर्म मानने वाले व्यक्तियों के मानवाधिकारों की रक्षा करें। अपने आप के दैहिक/भौतिक/शरीर  को किसी पशु के मूत्र(गौ मूत्र) से पवित्र करना व शुद्धि करना ,मानव मात्र के स्पर्श भर से अपवित्र हो जाने की अवधारणा से कहीं हास्यास्पद और निंदनीय कुछ नहीं हो सकता हैं। सावरकर जी ने जनवरी, 1924 में जेल से रिहा होने के बाद सामाजिक सुधार की दिशा में बहुत काम किया था क्योंकि रत्नागिरी जनपद में उनको गैर-  राजनीतिक काम करने की रियायत/छूट दी गई थी ।उन्होंने अछूतों को मंदिर में प्रवेश कराने और सभी जातियों के लोगों के साथ खाना खाने का अभियान भी शुरू किया था। डॉक्टर बी. आर आंबेडकरजी ने सावरकर जी के सामाजिक सुधारों के लिए काम करने की उनकी प्रशंसा किए थे। 1930 में पतित पावन मंदिर में वंचित वर्ग के शिबू ने गायत्री मंत्र का पाठ किया और गणेश जी की प्रतिमा पर पुष्प अर्पित किए। १९३१ स्वयं शंकराचार्य श्री कूर्त हरी जी  ने मंदिर का उद्घाटन किए और वंचित वर्ग के नेता श्री राम भोज ने उनकी चरण पूजा की। सावरकर जी ने मांग समुदाय की कन्या का भरण – पोषण करने की जिम्मेदारी भी उठाई थी, जो भारत के पहले अस्पृश्य माने जाते थे।
 सावरकर जी के लेखन का मुख्य केंद्र बिंदु हिंदुत्व था ,जिससे  उनको” हिंदू राष्ट्रवादी” भी कहा जाता हैं। उन्होंने भारतीय समाज में प्रचलित जाति व्यवस्था, मशीनीकरण का महत्व, मुसलमानों के बीच आधुनिकरण, राष्ट्रीय एकता और एकजुटता के विचार शामिल हैं ।सावरकर जी ने जाति व्यवस्था के बारे में लिखते तर्कसंगत रूप से इससे संबंधित मिथकों का सामना किया। उन्होंने स्पष्ट रूप से चतुर्वर्ण व्यवस्था को” पूरी तरह से अर्थहीन” कहा जो बाद में जाति व्यवस्था में बदल गई। सावरकर जी  ने इस लोकप्रिय मिथक को तोड़ दिया कि जाति व्यवस्था अनिवार्य रूप से सनातन धर्म का हिस्सा हैं।
सावरकर जी ने सनातन धर्म का अर्थ समझाया और लिखा है कि” सनातन उन विचारों और मान्यताओं को संदर्भित करता है जो समय से पहले के हैं, जो स्वयं सिद्ध और अविनाशी है। ये वे  अवधारणाएं हैं जो हमारे वेदों, उपनिषदों या भगवत गीता से आई हैं। मानव जाति नष्ट भी हो जाती है, तो अवधारणाएं बनी रहती हैं। ऐसा विश्वासों का मूलभूत महत्व है। मुझे ऐसा महसूस होता है कि स्वयं ईश्वर भी उनको नष्ट नहीं कर सकता है। सनातन धर्म की ऐसी अमूर्त और महत्वपूर्ण और अवधारणा  को देखते हुए इसे धर्म के साथ शिथिल रूप से उपयोग करना और इसे मानव निर्मित अनुष्ठानों और परंपराओं के साथ जोड़ना शाश्वत सत्य हैं।
सावरकर जी ने जाति व्यवस्था के पूर्ण और बिना शर्त उन्मूलन की पैरवी किए, और इनके साथ प्रयासों ने गांधी जी और आंबेडकर जी से पहले भी इस मुद्दे को लोकप्रिय राजनीतिक विमर्श में लाने में मदद की हैं। सावरकर जी ने जाति व्यवस्था का वैज्ञानिक और तार्किक विश्लेषण किया था। सावरकर जी ने  जाति व्यवस्था के बारे में लिखते हुए तर्क दिया कि “भूत के इतिहास उसे इस तरह के आदेशों से सबसे महत्वपूर्ण घटकों में से एक है जिसे इतिहास के गर्त में फेंक दिया जाना चाहिए, वह है कठोर जाति व्यवस्था, हिंदू समाज को कई टुकड़ों में बांट दिया हैं। हमेशा के लिए एक दूसरे के साथ युद्ध के लिए। मंदिरों, गलियों, घरों, नौकरियों, ग्राम परिषद से लेकर विधायिका तक, इसने दो हिंदुओं के बीच शाश्वत संघर्ष का भूत पैदा किया है। किसी भी बाहरी खतरे के खिलाफ एकजुट होने के लिए हमारी एकता और संकल्प क्षीण किया है ।यह हिंदू राष्ट्र की अवधारणा में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है, दुनिया भर के देशों की मुक्ति व एकीकरण चाहे वह अमेरिका या यूरोप, लोगों के बीच इन झूठे विभाजन  को उजागर करके ही संभव हुआ है। हमारे देश में इसी तरह का दृष्टिकोण क्यों नहीं लाया जा सकता है ?इससे पहले किसी चीज को तोड़ दें, आइए हम समझने के लिए रुके कि वह क्या है? जिसे हम स्वयं को मुक्त करना चाहते हैं , विदेशी शासन का बंधन स्पष्ट रूप से वह है जिससे हमें स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करना हैं”।
विस्तृत शोध व विस्तृत अध्ययन के पश्चात सावरकर जी ने हिंदू समाज के सात बेड़ियों/ कठिनाइयों /जंजीरों के विषय में बताते हैं। उन्होंने वेदोक्त बंदी, व्यवसाय बंदी , स्पर्शबंदी, समुंद्रबंदी, शुद्धि बंदी, रोटी बंदी और बेटी बंदी को बताया, जिसके कारण हिंदू समाज जकड़न /उलझन में हैं। वेदोक्त बंदी में उन्होंने तर्क दिया कि वेद केवल एक विशेष समुदाय का शास्त्र नहीं हैं।वैदिक साहित्य को संपूर्ण मानव जाति के लिए” सभ्यता ज्ञान” और संपूर्ण मानव जाति के लिए भारत का अनूठा उपहार कहा हैं। व्यवसाय बंदी में उन्होंने समझाया है कि पेशे की एक व्यक्ति की पसंद को उसकी प्रतिभा और योग्यता के आधार पर उस पर छोड़ दिया जाना चाहिए,स्पर्शबंदी  में सावरकर जी का कहना था कि “अस्पृश्यता की प्रथा” पाप है, और मानवता पर एक काला धब्बा हैं। समुद्र बंदी में उनका कहना था कि प्राचीन काल में व्यापार फलता-  फूलता था लेकिन दकियानूसी मिथकों ने समुद्र पार करने से मना किया और तब से भारत ने  विभिन्न मोर्चों पर बहुत अवसर खो दिए। रोटी बंदी और बेटी बंदी पर सावरकर जी का कहना था कि गहरी जड़ें जमा चुकी जाति व्यवस्था की बेड़ियों को तोड़ने के लिए अंतर भोजन और अंतरजातीय विवाह के उपादेयता को बताया था।
सावरकर जी की लेखनी आजादी के युधक  के स्वाभिमान की रक्षा के लिए तत्पर रहती थी ।उनकी पुस्तक ‘ 1857 स्वातंत्र समय’  आजादी की सशक्त प्रेरक ऊर्जा दायिनी पुस्तक सिद्ध हुई थी। इस ग्रंथ से क्रांतिकारी राष्ट्रवादी भगत सिंह व सुभाष चंद्र बोस अत्यधिक प्रभावित हुए ।आजाद हिंद फौज के गठन में इस पुस्तक के महान उपादेयता थी, इसी प्रख्यात और बहुचर्चित ग्रंथ की उपादेयता के कारण प्रसिद्ध शिक्षाविद, लेखक कवि, पत्रकार और नाटककार के केशव अन्ने जी ने सावरकर जी को” वीर” की उपाधि प्रदान किया था। 1857 के प्रथम महान स्वतंत्रता संग्राम पर अपनी शोध पूर्ण ग्रंथ ‘  अट्ठारह सौ सत्तावन का स्वतंत्र समर’  में स्वतंत्रता से जुड़े तथ्य  व अवधारणा प्रस्तुत किए कि घबराई व  बेचैन ब्रिटिश सरकार ने प्रकाशन के पहले ही प्रतिबंध लगा दिया । ग्रंथ भारतवर्ष में अंग्रेजों के घोर उत्पीड़न ,अत्याचार व अन्याय से अवगत कराता है।
यह  ग्रंथ वास्तविक तौर पर आज़ादी का शंखनाद था-
 ” वो हुतात्मा
   स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हो  एक बार
 पिता से पुत्र को पहुंचे बार-बार भले पराजय  हो यदा-कदा
 पर मिले विजय  हर-  बार”।
 इस तरह 10 जनवरी ,1947 को ‘ अट्ठारह सौ सत्तावन का स्वतंत्र समर’  का पहला अधिकृत कानूनी संस्करण प्रकाशित हुआ था। सावरकर जी आजीवन हिंदू ,हिंदी और हिंदुस्तान के प्रति आत्मीय समर्पित थे। अपने अंतिम कविता ‘ आइका भविष्ला’ में उन्होंने कहा है कि” हिंदू आजाद हो जाएंगे और वैश्विक स्तर पर समानता ,करुणा और चरित्रवान व्यक्तियों की रक्षा के लिए स्वतंत्र कर देंगे “। सावरकर जी का मानना था कि राजनीति का यथेष्ट लक्ष्य “वैश्विक /भूमंडलीकृत राज्य ” का निर्माण करना है।हिंदू राष्ट्रवाद के दर्शन को वह वैकासिक   आयाम देने में सावरकर का अभूतपूर्व योगदान था, इसलिए उनको व उनके विचारों को प्रखर राष्ट्रवाद का शब्दकोश कहा जाता हैं। हिंदुत्व के प्रति उपादेयता के कारण उनको छह बार अखिल भारतीय हिंदू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया था ।समकालीन समय में जाति आधारित भेदभाव और हिंसा अभी भी भारत के विभिन्न हिस्सों में दिखाई देती हैं। इसका समूल नष्ट करना ही मानवता का वास्तविक सेवा है।
(लेखक संपादक,दूरदर्शन समाचार के सलाहकार संपादक हैं) 
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